चक्रव्यूह
सपना चन्द्रा
वो जानता था जीवन का पथ समतल नहीं है। निर्झर भी ऊपर से नीचे बहता हुआ कितनी चोटें खाता है पर उफ़ कहाँ करता है।
प्रकृति के संग मौन संवाद करते रहना सबके वश की बात नहीं। कोई कैसे निर्जीव कह सकता है। आवाज़ लगाई जाए तो टकराकर वापस लौट आती है। इस कल-कल जल से जो संगीत निकलता है वो किसी वीणा की तार में कहाँ . . .?
इंसान और प्रकृति का साथ तो सदा से है। एक-दूसरे में रचे-बसे, रमे हुए . . .
इंसानों ने ही अपनी लोलुपता में इस सम्बन्ध से किनारा कर लिया। मनमाना दोहन किसी के लिए भी असहनीय है शायद मेरी तरह ही।
अपने जीवन की इहलीला को समाप्त करने का ख़्याल लिए वह निकल तो पड़ा था। पर वो इतना दुर्बल नहीं था। परिस्थितियों ने इस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया, वरना वो तो एक योद्धा था।
अपने अंदर के इंसान को समझा ना पाया।
झंझावातों के बोझ ने मानसिक रूप से कमज़ोर कर दिया।
अब और नहीं . . . मुझे लौटना होगा . . . अपने रणक्षेत्र में जहाँ अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह भेदने होंगे।
1 टिप्पणियाँ
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12 Sep, 2023 01:17 PM
बहुत बढ़िया लघुकथा, प्रासंगिक