अजनबी

सपना चन्द्रा (अंक: 203, अप्रैल द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

“वो सड़क पर कब से खड़ा भीग रहा है . . . बारिश भी ज़ोर की हो रही है, क्यूँ न बारिश बंद होने तक उसे अपने बरामदे में बुला लाएँ . . .?" रघु अपनी बेटी मनू से कहता है। 

“न बाबा! ना . . . ना . . . ऐसे ही समय ठीक नहीं . . . किसी को भी सहारा देना ख़तरे से ख़ाली नहींं| चोरी की घटनाएँ कितनी सुनने को मिल रही हैं।”

“अरे अपने घर मेंं चोरी के लिए क्या है . . . यही दो-चार बर्तन . . .? इसके अलावा क्या मिलेगा किसी को . . . हाँ . . . बोल। बुलाता हूँ उसे . . .।” 

“चलो आ जाओ भाई! . . . कुछ देर हमारी, ग़रीब की झोपड़ी मेंं शरण ले लो . . . बारिश थम जाएगी तो चले जाना।” 

राहगीर दौड़ता हुआ झोपड़ी मेंं आता है . . . 

“मनू! . . . कोई कपड़ा तो दे दे . . . शरीर पोंछने को।”

“अभी आई बाबा . . . ये लो . . .”

राहगीर पानी पोंछता हुआ . . . एक भरी निगाह से झोपड़ी का मुआयना कर बैठा। 

“अरे बाबा! . . . ये यहाँ-वहाँ से टपकता है . . . कैसे रह लेते हो . . .? और कौन-कौन है तुम्हारे घर मेंं . . .?”

“क्यूँ भाई . . .?  चोरी करने का इरादा तो नहींं . . . जो जानना चाहते हो।

“मैं पहले ही बता देता हूँ . . . हम बाप-बेटी के अलावा . . . कुछ बर्तन हैं जो शोर करते हैं . . . बाक़ी हम ग़रीबों के पास और कुछ नहींं।”

“कैसी बात करते हो बाबा . . . तुम तो क़ीमती हीरा सँभाल कर रखे हो . . . ग़रीब कहाँ . . .?” 

“बाबू . . . तुम्हारी नज़र मेंं हम ग़रीब नहींं हैं ये अच्छी बात है . . . और हम ग़रीब किसी अजनबी निगाह से हीरे को हमेशा बचा कर रखते हैं।” 

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