अजनबी
सपना चन्द्रा“वो सड़क पर कब से खड़ा भीग रहा है . . . बारिश भी ज़ोर की हो रही है, क्यूँ न बारिश बंद होने तक उसे अपने बरामदे में बुला लाएँ . . .?" रघु अपनी बेटी मनू से कहता है।
“न बाबा! ना . . . ना . . . ऐसे ही समय ठीक नहीं . . . किसी को भी सहारा देना ख़तरे से ख़ाली नहींं| चोरी की घटनाएँ कितनी सुनने को मिल रही हैं।”
“अरे अपने घर मेंं चोरी के लिए क्या है . . . यही दो-चार बर्तन . . .? इसके अलावा क्या मिलेगा किसी को . . . हाँ . . . बोल। बुलाता हूँ उसे . . .।”
“चलो आ जाओ भाई! . . . कुछ देर हमारी, ग़रीब की झोपड़ी मेंं शरण ले लो . . . बारिश थम जाएगी तो चले जाना।”
राहगीर दौड़ता हुआ झोपड़ी मेंं आता है . . .
“मनू! . . . कोई कपड़ा तो दे दे . . . शरीर पोंछने को।”
“अभी आई बाबा . . . ये लो . . .”
राहगीर पानी पोंछता हुआ . . . एक भरी निगाह से झोपड़ी का मुआयना कर बैठा।
“अरे बाबा! . . . ये यहाँ-वहाँ से टपकता है . . . कैसे रह लेते हो . . .? और कौन-कौन है तुम्हारे घर मेंं . . .?”
“क्यूँ भाई . . .? चोरी करने का इरादा तो नहींं . . . जो जानना चाहते हो।
“मैं पहले ही बता देता हूँ . . . हम बाप-बेटी के अलावा . . . कुछ बर्तन हैं जो शोर करते हैं . . . बाक़ी हम ग़रीबों के पास और कुछ नहींं।”
“कैसी बात करते हो बाबा . . . तुम तो क़ीमती हीरा सँभाल कर रखे हो . . . ग़रीब कहाँ . . .?”
“बाबू . . . तुम्हारी नज़र मेंं हम ग़रीब नहींं हैं ये अच्छी बात है . . . और हम ग़रीब किसी अजनबी निगाह से हीरे को हमेशा बचा कर रखते हैं।”