एक नज़र

सपना चन्द्रा (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

प्लैटफ़ॉर्म पर गाड़ी ससरती हुई रुक गयी थी। अनाउंसमेंट की आवाज़ें, भीड़ का शोर और उतरने-चढ़ने वालों का एक-दूसरे से उलझना। यह सब देख सर चकरा-सा गया और मैं वहीं एक जगह कुछ देर के लिए आँखें मूँद टेक लेकर बैठ गया। 

मेरी गाड़ी के आने में अभी कुछ वक़्त था। 

अचानक से मुझे लगा कोई चीज़ मेरी जंघा पर रेंग रही है। नज़रें नीची की तो देखा एक नौ या दस वर्ष का बच्चा था। 

मैं सीधा होकर बैठ गया। 

उससे पूछा, “क्या चाहिए।” 

उसने कहा, “पैसा दो न! बिस्कुट लूँगा।” 

मैंने कहा, “ठहरो! मैं दिला देता हूँ।” 

उसने कहा, “नहीं पैसा दो। मैं माँ को दूँगा वह मुझे बिस्कुट ले देगी।” 

मैंने कहा, “मेरे पास छुट्टे नहीं हैं। इसलिए मैं ख़रीद कर दे देता हू़ँ। बिस्कुट ही चाहिए न! चलो मेरे साथ सामने ही दुकान है।” 

उसने ग़ुस्से से कहा, “बोला न माँ लेकर देगी फिर बार-बार एक ही बात काय को करते हो।” 

मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। कितनी निडरता से कह रहा है यह। 

मैंने कहा, “कितने पैसे लोगे जिससे तुम्हारी बिस्किट आ सकती है।” 

उसने कहा, “आता हूँ मैं माँ से पूछकर, वो बैठी है। आज माँ बीमार है इसलिए कुछ नहीं ला पाई खाने के लिए।” 

उसने हाथ के इशारे से एक महिला की ओर दिखाते हुए कहा। 

मैंने देखा महिला दीवार के सहारे बैठी थी। आने-जाने वालों से खाने के लिए माँग रही थी। 

मैंने कहा, “ठीक है। जल्दी आना। मुझे जाना भी है।” 

उसने कहा, “तुरंत आता हूँ।” 

इस बार अपने साथ में वह एक बच्ची लेकर आया। 

मैंने पूछा—कौन है यह . . .? 

उसने कहा, “बहन है साहब। देखिए कितनी सुंदर है। सब लोग इसे देखते हैं।” 

मैंने कहा, “हाँ! सचमुच बहुत सुंदर है और प्यारी भी। बिल्कुल तुम्हारी तरह।” 

उसने कहा—साहब मेरी माँ भी बहुत सुंदर है। मैंने उसे सौ के नोट पकड़ाए और सीधा उसे अपनी माँ के पास जाने को कहा। 

मेरे मुँह से अनायास ही एक सवाल निकल गया, “तुम्हारे पिता . . .?” 

“साहब माँ कहती है कि बहुत कुरूप है। तुम लोग डर जाओगे।” 

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