जुगलबंदी
सपना चन्द्रा
“तुम हमेशा सर्तक रहते हो! दूसरों की चुग़ली सुनने में।”
“तुम्हारी ही मेहरबानी है। अब तुम बोलो और मैं न सुनूँ ये कैसे हो सकता है?”
कान और मुँह की वार्तालाप गंभीर हो चली थी।
“अच्छा ये चुहलबाज़ी छोड़ो और बताओ . . . तुम कैसे इतनी बातें अपने अंदर समा लेते हो! थकते नहीं . . .?”
“मैं तो थक जाता हूँ कभी-कभी, पर क्या करूँ, बिना बोले रहा भी नहीं जाता। क्यूँकि ख़ामोशी संदेह पैदा करती है।”
“बात तुम्हारी ठीक है। मैं भी थक जाता हूँ पर शुक्र है कि हम दो हैं। इसी कारण सँभाल लेना आसान है। मेरा मूड बिगड़ता है तो एक से सुनता हूँ और दूसरे से निकाल फेंकता हूँ।”
“कभी सोचा है कि हम दोनों की जुगलबंदी न होती तो क्या होता . . .?”
“पता है न! न ही कोई महाभारत होता न ही रामायण लिखी जाती। सदियों से हम काम पर लगे हैं। इतिहास यूँ ही नहीं बनता प्यारे . . .।
“क्यूँ सही कहा न! . . . ह ह ह ह ह ह . . .”