आत्मसम्मान

15-05-2022

आत्मसम्मान

सपना चन्द्रा (अंक: 205, मई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

वो दिन अच्छी तरह याद है जब कार के रेड सिग्नल पर रुकते ही, एक छोटा बच्चा अपने हाथों में हवा से नाचने वाली चकरी का बंडल थामे निलय के पास आ गया था। 

“ले लो न साहब! . . . मुझे स्कूल के लिए कुछ सामान ख़रीदने हैं। दो घंटे बाद मेरी स्कूल लगने वाला है।

“ले लो न साहब . . . आपके बच्चे इसे देखकर ख़ुश हो जाएँगे।”

“अच्छा ठीक है, पहले अपना नाम बताओ! . . . किस कक्षा में पढ़ते हो . . .?” 

“मेरा नाम निकेतन है साहब। /, और मैं छठी कक्षा में पढ़ता हूँ।”

“अरे वाहऽ . . . बहुत प्यारा नाम है तुम्हारा और तुम भी बहुत प्यारे हो।”

बच्चे की तरफ़ थोड़ी दया दिखाते हुए निलय ने कुछ पैसे उसे यूँ ही देना चाहा। 

“लो ये रख लो, तुम्हारे काम आएँगे।”

“नहीं, नहीं साहब!। ये तो आप मेरे भविष्य के साथ अन्याय कर रहे हैं। 

“क्या मैंने आपसे रुपये भीख में माँगे हैं!। अगर भीख ही लेना होता तो भीख ही माँगता।

“कोई बात नहीं साहब! . . . आपको नहीं लेने हैं मत लीजिए,” यह कहकर निकेतन आगे की ओर बढ़ने लगा। 

“अरे! अरे!। बेटा मुझे माफ़ करो। इधर आओ। बताओ कितने की हैं ये पूरी की पूरी।”

“पूरी क़रीब दो सौ की है साहब, पर आपको कितनी चाहिएँ वो बोलो।”

बच्चे के स्वाभिमानी तेवर पर एक पल को निलय शर्मिंदा हो आया। 

“मुझे सारे के सारे चाहिएँ! दो मुझे . . . और ये लो अपने दो सौ रुपये।”

तभी हरी बती के जलते ही गाड़ी बढ़ानी पड़ी। 

“सुनो कल मुझे यहीं मिलना . . . ठीक है। ज़रूर मिलना।” 

रास्ते भर निलय उस बच्चे के बारे में सोचता रहा। 

अगले दिन ठीक वहीं पर वह इंतज़ार करता मिला। 

“निकेतन! ये बताओ घर में और कौन-कौन है . . .?” 

“घर?. . .  मेरा तो कोई नहीं . . . एक आई है जो हम जैसे बच्चों को रहने और खाने में मदद करती हैं। उनका भी कोई नहीं . . . हमारा भी कोई नहीं।

“हमलोग मिलकर ही परिवार बन गये हैं। आई और हम सब मिलकर ये सामान बनाते और बेचते हैं। जिससे स्कूल की पूर्ति करता हूँ।”

“ये तो अच्छी बात है। क्या तुम मेरे साथ चलना चाहोगे . . .? तुम्हें अच्छी शिक्षा मिलेगी और एक घर-परिवार भी मिलेगा।”

“साहब! . . . मैं इतना स्वार्थी नहीं!। हमारी आई और मेरे वो भाई-बहन, उन सबको छोड़ दूँ . . .? सिर्फ़ अपनी ख़ुशी के लिए?

“हमारे प्यार में दया की सेंधमारी मत करो साहब! . . . हमारे पास अगर कुछ है तो एक-दूसरे के लिए प्यार।” 

आज अचानक से अपने सामने एक जानी-पहचानी आवाज़ सुन वह चौंक पड़ा। निलय ग़ौर से उस चेहरे को देखता हुआ बोला, “निकेतन?”

“हाँ साहब! . . . मैं निकेतन! . . . आज से मैं ही आपका असिस्टेंट हूँ। आपने मेरा रेज़्यूमे देखकर ही मुझे यह पद दिया है।” 

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