चक्करघिन्नी 

01-03-2023

चक्करघिन्नी 

सपना चन्द्रा (अंक: 224, मार्च प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

मालिनी रोज़ की तरह ऑफ़िस जाने के लिए निकलती। रास्ते में पड़ने वाली ईंट के भठ्ठे में काम करती हुई महिलाओं को ग़ौर से देखती। 

बदन पर चिपके ईंटों के चूरे से आती चमक और पसीने से लथपथ पूरा शरीर, पीठ में बच्चे को बाँधे कितनी कुशलता से एक पर एक ईंट रखती है। 

मालिनी का कलेजा मुँह को आ जाता ये सोचकर कि ज़रा सा भी फिसली तो बच्चे का क्या हो जाए। पर मजाल है कि थोड़ी सी भी चूक की गुंजाइश हो। 

“उफ्फ!। किसी दीवार से कम नहीं हैं ये। समाज क्यूँ नहीं स्वीकारता अपने बराबर में इस जीवट देह को। उतनी ही भार की ईंटों को ढोने वाले पुरुष को ज़्यादा पैसे मिलते हैं। ये कहाँ का इंसाफ़ है . . .? कमज़ोर, कमज़ोर कहने वालो, ज़रा देखो तो! पेट और पीठ पर कैसा भार ढोती है। कभी पेट पर भार बाँध कर चलना औरत के क़दम से क़दम मिलाकर। नहीं चल पाओगे, ये तय है। अंधे कहीं के!”

रास्ते भर मन खट्टा हो रहता। आख़िर उसे क्यूँ फ़र्क़ पड़ता है इतना, वो तो पढ़ी-लिखी है। अच्छे से ओहदे पर है, अपना अच्छा-बुरा सोचने को स्वतंत्र है। 

एक मुस्कान होंठों पर तैर गई . . . कुछ भी तो अलग नहीं हैं औरतों के मसले। क्या-कुछ नहीं ढोना पड़ता है इसके अलावे। उतार फेंकना भी सम्भव नहीं। 

वो हाशिए पर रहती है और मैंऽऽऽ . . .

हम दोनों ही चक्करघिन्नी सी नाचते रहते हैं। 

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