शीतलन
सपना चन्द्रारेलगाड़ी अपनी रफ़्तार में बढ़ती जा रही थी। एक महिला अपने नवजात बच्चे को गोद में लिए छोटी सी गठरी के साथ दुबकी खड़ी थी।
यात्रियों से खचाखच भीड़ में कौन किसकी परवाह करता?
जिसे बैठने की जगह मिल गई वो उसकी सम्पत्ति हो गई।
दुधमुँहें बच्चे के रोने से सारा कंपार्टमेंट परेशान हो रहा था।
एक तो उमस भरी गर्मी और भरी भीड़। लोग रह-रहकर उस ग़रीब को सलाह दे रहे थे।
“अरे! चुप तो कराओ। दिमाग़ ख़राब हो रहा है। ज़रूरत क्या थी इतनी भीड़ में छोटे बच्चे को लेकर चढ़ने की?”
बेचारी सबकी बात सुनती रही।
“जाना कहाँ है तुम्हें . . . अकेली हो . . .?”
“हाँ बाबू जहाँ तक ये ट्रेन जाएगी वहीं जाना है।”
“हद है! इन जैसों की वजह से ही सफ़र का मज़ा चला जाता है।”
यात्रियों में से ही किसी ने कहा था।
इधर-उधर नज़रें दौड़ाती रहीं। कोई छोटी-सी जगह भी नहीं जो बच्चे की भूख मिटाती।
छाती से सटाए पुचकारने की नाकाम कोशिश करती कभी वेंडरों के धक्के खाकर इधर तो कभी उधर।
“चुप कराओ इसे . . . दूध तो पिलाओ।”
“कैसी माँ है तू . . . समझ में नहीं आता।”
“समझ तो सबकुछ आता है बाबू . . . कुछ तुम भी समझ जाते।”
“हर किसी की भूख अलग होती है।”
“कब से तुम्हारे बग़ल में खड़ी हूँ . . . लेकिन इंच भर भी जगह नहीं दे पा रहे।”
जाने कब से बच्चा सबका दवाब झेल रहा था।
माँ की छाती में ठंडक महसूस हुई और आँख बाँध तोड़ चुपचाप बह रही थी। बच्चा अब शांत था . . . उमस भरी गर्मी में भीड़ को पानी-पानी कर गई थी।