शगुन

सपना चन्द्रा (अंक: 226, अप्रैल प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

रोज़ की तरह ही रमा कमरे की साफ़-सफ़ाई कर रही थी। कोनों मेें झाड़ू लगाते समय एक सिक्का कोने में दिख गया, पर उसने उसे वहीं छोड़ दिया। 

कई दिनों से यह क्रम चल रहा था . . . 

एक बार मन होता उठा ले फिर कुछ सोच कर छोड़ देती, ‘कौन सा ज़्यादा है, एक रुपए का ही तो सिक्का है’। 

सिक्का अपनी उपेक्षा से आहत होता, पड़ा-पड़ा अपनी क़ीमत ढूँढ़ रहा था। 

पहले कितनी पूछ थी . . . किसी बच्चे के हाथ लगे तो फिर कितनी ख़ुशी मिलती थी। अब तो बच्चे भी उसकी ओर नहीं देखते। 

एकबारगी उसे लगा, अब वाक़ई उसका ज़माना चला गया है। बड़े नोटों के मुक़ाबले उसकी क्या औक़ात . . .? 

तभी उसने देखा किसी शुभ कार्य हेतु उसकी तलाश ज़ोरों पर थी। 

अचानक से रमा को याद आया . . . कोने में तो सिक्का है ही, कब से परेशान हो रही थी। 

हाथ में लेकर देखा अब सिक्का थोड़ा मलिन पड़ गया था। 

“कोई बात नहीं!। इसे रगड़कर अभी चमका देती हूँ।”

फिर शगुन और यात्रा शुभ-शुभ हो जाएगी। 

अब तो सिक्का चल निकला। मन ही मन ख़ुश हुआ कि खोटा नहीं कहलाया। 

बाहर की दुनिया देखे वर्षों बीत गए थे। 

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