अवसर

सपना चन्द्रा (अंक: 221, जनवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

हाल ही में प्रशासनिक सेवा से अवकाश प्राप्त कर चुके मि. बजाज बच्चों को खुले आसमान के नीचे मुफ़्त कोचिंग क्लास दिया करते जिससे ग़रीब और असमर्थ बच्चे भी प्रशासनिक सेवा में भाग ले सकें। 

अपने सादा जीवन शैली और उच्च आदर्शों के कारण सभी के प्रिय रहे। 

एक दिन उन्हें कहीं जाना था पर स्टेशन पहुँचते ही रेलगाड़ी खुल चुकी थी और अगली ट्रेन के लिए अब प्लैटफ़ॉर्म पर इंतज़ार करने के सिवा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं था। 

उधर से ही रतन कुली जा रहा था उसने झट बजाज जी को पहचान लिया क्यूँकि यही वो शख़्स थे जिनसे उसके बेटे सहित और बच्चे भी शिक्षा पा रहे थे। उसने देखा कि बजाज जी के एक जूते का तस्मा खुला हुआ है, जिसे देख उसके मस्तिष्क में एक युक्ति सूझी जिसे वह स्वर्णिम अवसर बनाना चाहता था। 

उसकी बड़ी लालसा थी कि एक बार इस महान आत्मा के दर्शन हो जाए और उनके चरणों में अपना आभार प्रकट कर सके। 

समय के बड़े पाबंद बजाज जी से मिलना बहुत मुश्किल था। अपने किसी ख़्यालों में खोये दूसरी तरफ़ देख रहे बजाज जी के जूते के तस्मा को बिना समय गँवाए वह बाँधने लगा। 

धूल की पतली परत को अपने गमछे से साफ़ करता रतन धन्य हुआ जा रहा था। 

आज मेरी मुराद पूरी हो गई। 

अचानक से उनकी तंद्रा टूटी तो अपने सामने रतन को देख आश्चर्य से भर गए। 

“अरे! कौन हो तुम, और ये मेरे जूते के साथ क्या कर रहे हो . . .?” बजाज जी ने रतन से पूछा।

“सर आपके जूते का तस्मा खुला हुआ था इसलिए मैंने बाँध दिए। आपके जूते पर धूल चढ़ गई थी उसे भी मैंने साफ़ कर दिया।” 

“ओह! . . . पर तुम यूँ अचानक! न जान, न पहचान। कौन हो तुम . . .?” 

“साहब मैं उन बच्चों में से एक जिन्हें आप कोचिंग देते हैं, रमेश का पिता हूँ और यहीं से मेरी रोज़ी-रोटी चलती है। 

“आप हम जैसों को कैसे जान सकते हैं, हमारी तो ज़िन्दगी यहीं खपती है, पर आपको तो सारा शहर जानता है। आप ग़रीबों के मसीहा है। 

“हम जैसे ग़रीब के बच्चे भला वो सपने कैसे देख सकते थे जो आपने देखने के लिए प्रेरित किया।”

तस्मा बाँधने के पश्चात उनके चरणस्पर्श कर उसे ऐसा लगा मानो साझात ईश्वर के दर्शन हो गए। 

उसकी आँखों में एक उम्मीद जन्म ले रही थी। इनके पढ़ाए हुए बच्चों में भी ऐसी ही ख़ूबियाँ देखने को मिलें।

“सर! . . . आपके जैसे दो-चार हो जाएँ तो हमारा देश बदल जाए।”

“हाँ सही कह रहे हो, इतना आसान नहीं तो मुश्किल भी नहीं; चंद लोग ही देश की तक़दीर बदलकर रख दें अगर इरादे अटल हों तो और हम सब एक मज़बूत लोकतंत्र के भागीदार बनें।”

“ज़रूर बनेगा सर, ज़रूर बनेगा . . .” 

रतन की बातों से बजाज जी का मन ख़ुश हो गया, लगा कि इन ग़रीबों में भी आगे बढ़कर कुछ अच्छा करने की कितनी चाह है। 

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