दर्पण

सपना चन्द्रा (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

“अरे भाई! . . . ये देश का माहौल ख़राब करने में नेताओं का ही हाथ है। तुम मानो या ना मानो।”

अपने दोस्त राजीव से बातें करता हुआ रमन रसोई से चाय की ट्रे लेकर सामने आकर बैठता है। 

“शक्कर कितनी लोगे . . .?” कप में चाय उड़ेलता राजीव की ओर देखकर पूछा। 

“एक चम्मच बस . . . ”

“आजकल मीठा कम ले रहे हो क्या . . .?” 

“हाँ रमन! . . . लेकिन सही मायने में पूछो तो जीवन का स्वाद ही बिगड़ गया है।

“ये शक्कर तो महज़ खानापूर्ति है इस जीभ की।” 

“अरे ऐसा क्या हुआ?” 

“अभी तुमने ही तो कहा ना . . . देश का माहौल ख़राब है। अब हर बात पर धर्म और धर्म की ही बातें . . . क्या इसी पर बच्चों का भविष्य तैयार होगा . . .? आज युवाओं को ही देख लो! . . . कैसे किसी के बहकावे में अपना भला-बुरा सोचे बग़ैर कूद पड़ते हैं इस धर्मांधता लीन होकर।”

“बात तुम्हारी सही है राजीव . . . पर अपने धर्म की रक्षा के लिए कुछ तो करना होगा ना। हाल ही मैंने एक कट्टर संगठन में अपना नाम लिखवाया है। कहो तो तुम्हारी भीऽऽऽऽ . . .!”

“माफ़ करो रमन! . . . मैं एक शिक्षक हूँ। मेरा काम अँधेरे से दूर निकालना है ना कि गर्त में ढकेलना। कभी ठंडे दिमाग़ से सोचना . . . हम कहाँ जा रहे हैं . . .? 

“जिन हाथों में क़लम होनी चाहिए उनको अब धर्म का पाठ पढ़ाया जायगा।

“सृजनात्मक होने के बजाय विध्वंस की ओर हमारी पीढ़ी चलती जाएगी।

“बच्चों का मन तो दर्पण होता है जैसा उन्हें दिखाया या सिखाया जाएगा वही करेंगे।

“मुझे तो इसके दूरगामी परिणाम बहुत ही ख़तरनाक लग रहे हैं।

“मतलब साफ़ है . . . विद्या का मंदिर भी अछूता नहीं रहेगा इन बातों से।

“बचपन से ही मज़हब को बाँटने वाली सोच को बो दिया जाए। फिर जो पौधा तैयार होगा उसका इस्तेमाल अपने फ़ायदे के लिए करेंगे।

“एक बात सुन लो . . . 

“अब शायद हमारी दोस्ती पर भी धार्मिक लकीरें उथल-पुथल मचा दें उससे पहले बेहतर है कि अपने रास्ते बदल लें।”

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