उतरन

सपना चन्द्रा (अंक: 199, फरवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

रजनी का जीवन हमेशा उतरन पर ही टिका रहा। बचपन से लेकर अब विवाह जैसी बात भी . . . किसी की छाँड़न ही उसका भाग्य बनेगी। उसने कोई सपना देखा ही नहीं . . . उसे न जाने क्यूँ ये विश्वास हो चला था कि मुझे किसी भी चीज़ के लिए तरसना नहीं पड़ेगा। क्योंकि मैं ही उस वस्तुस्थिति में फ़िट बैठती हूँ। 

अब विवाह के पश्चात एक नये माहौल में उसे अपने को ढालना था।

ख़ुद में कई सवालों की गठरी लादे भरे मन के साथ वह सहमी-सहमी पति की अनुगामिनी बनकर चली आ रही थी। 

अपने क़दम बढ़ाते हुए उसे ऐसा प्रतीत हो रहा था . . . मानो कोई वज़नी चीज़ बाँध दी गई हो। 

दहलीज़ की रेखा पार करते ही उसे उस वज़न का एहसास हो गया था। 

अब जिस कमरे में उसे ले जाया गया . . . उसके अंदर क़दम रखने से पहले ही दो आँखें उसे घूरती दिखीं . . . लगा उससे कह रही हों . . . रुक जाओ, वहीं रुक जाओ। इतना आसान नहीं किसी की पदवी लेना। 

रिश्ते की ननदों ने मज़ाकिया लहज़े में कहा, “अब आप तैयार रहिए . . . नयी ज़िन्दगी की शुरूआत है।” 

कमरे के दरवाज़े बाहर से सटाकर वो लोग जा चुकी थीं . . . एक गहरा सन्नाटा कमरे की हर कोने को भेद रहा था। 

चारों तरफ़ नज़र घुमाती हुई वह पलंग के एक कोने में दीवार से सट कर बैठ गई। 

वो उस आँख को देख रही थी . . . आँखों से अंगारे बरसाती वो आँखें। 

एक पल को सहम गई थी . . . किसी को आवाज़ देनी चाही . . . पर गले ने साथ ही नहीं दिया। 

पूरा शरीर पसीने से लथपथ . . . पंखे  का स्विच ऑन किया तो एक अजीब आवाज़ के साथ डैने घुमते रहे। 

उसे लग रहा था वह जबरन किसी की जगह ले रही हो जिससे हरेक चीज़ अगाह कर रही थी। 

धीरे-धीरे सामान्य होती आवाज़ और पंखे की हवा में आँखें लग गई . . . अभी कुछ पल ही हुए थे कि अचानक से दरवाज़े पर किसी के क़दमों की आहट ने जगा दिया था। 

वह उठकर खड़ी हो गई . . .। 

तभी . . . “बैठ जाओ . . . अब हम लोग के सिवाय और कोई नहीं है। 

“कपड़े बदलना चाहो तो बदल सकती हो . . .।” वो थोड़ा असहज हो गई। 

पहली बार ऐसी बात किसी ने की थी . . . और उसने कुछ न कहा। 

उसकी आँखों में कोई हसीन ख़्वाब न थे। थोपे गए रिश्ते बड़े बोझिल होते हैं।

वो अनजाना सा शख़्स अब अपने अनजानेपन के खोल से बाहर आ गया था। 

उसने बताया कि उसे फूल और उसकी सुगंध भरमाती है . . . 

हाथ पकड़ धीरे से पास बैठा लिया था . . . अपने अधिकार की खाता-बही खोल ली . . .। अपने में सिमटते-सिकुड़ते देख कहा . . . “इस शर्म और हया की दीवार जितनी जल्दी गिरा दो उतना अच्छा।”

एक करंट सा दौड़ गया सारे शरीर में . . . 

इशारे से उस तस्वीर की ओर देखकर बताया कि वो आँखें कितनी ख़ूबसूरत थीं। जिसे देख वह मदहोश हो जाया करता था। 

फूलदान में सजे फूल को हाथों में ले चूमता रहा . . . जब तक की उसकी महक बरक़रार रही। 

फूल की ख़ुश्बू से ख़ुद को तरोताज़ा कर लिया उसने।

ख़्यालों में डूब फूल की पंखुड़ियाँ देर तलक तोड़ता रहा . . . 

बातों में ख़्यालों में उसने अपने आप को ढूँढ़ना चाहा . . . मिली भी तो बेजान जिस्म की तरह . . . 

उसका होना न होना . . . अब आए दिन की बात हो गई।

रिक्त स्थान की पूर्ति भर थी वो . . . ख़ुमारियों में वह कहीं नहीं थी।

अपनी मौजूदगी का हरपल एहसास दिलाती ताकती वह आँखें। और वह किसी बियाबान जंगलों में भटकती अपनी ही खोज में मृग की भाँति छटपटाती रही। 

एक तरफ़ वो आँखें उसपर हँसती रहीं। दूसरी तरफ़ उसकी आँखें बरसती रहीं। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें