पाषाण-हृदय
सपना चन्द्रा
“अरे! . . . किसलिए दरवाज़े पर खड़ी हो तुम, जब आना होगा आ जाएगा तुम्हारा लाड़ला। आख़िर जायगा कहाँ . . .?”
“सुबह से बच्चा भूखा है तनिक भी तुमको चिंता है इसकी। हर वक़्त बोलते रहते हो। कितना पत्थर दिल है तुम्हारा।”
“हाँ मैं पत्थर दिल का हूँ तो . . .?
“जब पेट जलेगा तो घर की याद आ ही जाएगी, तभी अक़्ल ठिकाने लगेगी साहबज़ादे की। रहने दो भूखा, ज़्यादा सोचने की ज़रूरत नहीं है।”
“अरे! कैसे रहने दूँ भूखा . . .?
“तुम्हें क्या मालूम जब मेरे पेट में था, खाना नहीं मिलता था मुझे तब कितनी लातें मारता था। मेरे खाना खाते ही वह भी शांत हो जाता।”
"हाँ! . . . सही कहा, मुझे क्या मालूम।
“उसी भूख को शांत करने के लिए मैं न दिन देखता था न ही रात।
“उसे सही राह पर लाने के लिए मेरा पत्थर बने रहना ज़रूरी है।”
“आपका कहना सही है, पर इतना भी नहीं कि आप दोनों के टकराहट से उत्पन्न आग में सब झुलस जाए!”