आश्रित

15-02-2023

आश्रित

सपना चन्द्रा (अंक: 223, फरवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

“चाचा! अब आपकी उम्र आराम करने की है और अब तक मोची का काम करते आ रहे हैं . . . आपके बच्चे तो अच्छे-अच्छे ओहदे पर हैं फिर क्या ज़रूरत है शरीर को कष्ट देने की?” 

बनवारी को कई वर्षों से सड़क के किनारे रोज़ ही दुकान लगाते देखता आ रहा था राजन। 

“बेटा! कहते हैं कि जब तक अपना शरीर साथ दे तब तक चलाते रहना चाहिए। इज़्ज़त बनी रहती है। इसलिए अपना काम करता हूँ बस। बच्चों की पहचान बनाने में मैं अपने आप को कैसे भूल सकता हूँ जो कल था वही आज भी हूँ। जो उनका रास्ता था उनको मिला। मैं जहाँ था वहीं आज भी हूँ।”

“हाँ चाचा! सही है! जैसा कल मैंने देखा था आप आज भी वैसे के वैसे ही हैं। मैं काम के लिए भटक रहा हूँ, मुझे पिताजी के साथ जाने में संकोच होता था। लोग क्या कहेंगे कि पढ़-लिखकर भी ठेले पर सामान बेचता है। पर आपको अपने काम से इतना प्यार करते देख मुझे भी शिक्षा मिल गई। वक़्त कितना भी बदल जाए पर इंसान को वही होना चाहिए। अपने काम से शर्मिदा तो कभी नहीं होना चाहिए। मेहनत का कोई रंग नहीं होता, है न चाचा।”

“बिल्कुल बेटा! सबसे बड़ी बात आश्रित होना या रहना बहुत ग़लत है। ख़ुद पर विश्वास रखो और चलते रहो। मंज़िल एक दिन ज़रूर मिल जाएगी। सुना है न कहावत—‘अपना हाथ जगन्नाथ’! 

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