मुर्दों की बस्ती में यहाँ ज़िंदा कोई नहीं

15-01-2025

मुर्दों की बस्ती में यहाँ ज़िंदा कोई नहीं

निज़ाम-फतेहपुरी (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

वज़्न: 221    2121    1221    212
अरकान: मफ़ऊल फ़ाइलात मुफ़ाईल फ़ाइलुन
 
मुर्दों की बस्ती में यहाँ ज़िंदा कोई नहीं। 
आवाज़ हक़ की डर से उठाता कोई नहीं॥
 
हद पार हो गई है ज़ुल्मों सितम की अब। 
किस पर करें भरोसा की अपना कोई नहीं॥
 
अपने भी अपने अब यहाँ अपने रहे कहाँ। 
नफ़रत की आँधी चल रही अच्छा कोई नहीं॥
 
मरना है सबको पैदा यहाँ पर हुआ है जो। 
ज़िंदा रहा जहाँ में हमेशा कोई नहीं॥
 
आँखों में पट्टी बाँध के बे-अक़्ल जीते हैं। 
ये चार दिन की ज़िंदगी समझा कोई नहीं॥
 
किसका शिकार हो रहा किसका विकास है। 
सब दिख रहा है मुल्क में अंधा कोई नहीं॥
 
बेख़ौफ़ है दरिंदे ये कैसा निज़ाम है। 
इस बे-लगाम भीड़ में इंसाँ कोई नहीं॥

—निज़ाम फतेहपुरी

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