मुख्यमंत्री का पद ठुकराने वाले एक भारतीय आत्मा—पद्मभूषण डाॅ. माखनलाल चतुर्वेदी
आत्माराम यादव ‘पीव’
(30 जनवरी पुण्यतिथि पर विशेष)
आज़ादी के बाद सन् 1956 में मध्यप्रदेश राज्य गठन के पश्चात राज्य के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर किसे बैठाया जाए, इसे लेकर पंडित माखनलाल चतुर्वेदी, पंडित रविशंकर शुल्क एवं पंडित द्वारका प्रसाद मिश्रा में से किसी एक नाम को लेकर सहमति हेतु विचार विमर्श हुआ, सर्वसम्मति से तीन काग़ज़ों की पर्चियाँ बनाकर लॉटरी से इन तीन नामों में से जिसका नाम निकले उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाये जाने की सहमति बनी। जो लॉटरी निकाली गई तब पंडित माखनलाल चतुर्वेदी को स्वतंत्र भारत के प्रथम मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम निकला। उन्हें ही प्रदेश के मुख्यमंत्री की ज़िम्मेदारी सौंपे जाने का निर्णय लिया जाकर काँग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता श्री चतुर्वेदी के खंडवा स्थित निवास पर पहुँचे। जब उन्हें बधाइयाँ देकर मुख्यमंत्री के पद को सँभालने का आग्रह किया, जिसे सुनकर श्री चतुर्वेदी ने कांग्रेस नेताओं को जवाब दिया कि “मैं एक शिक्षक और साहित्यकार होने के नाते ‘देवगुरु’ के आसन पर विराजमान हूँ मेरा ओहदा घटाकर तुम ‘देवराज’ के पद पर बैठाना चाहते हो, यह मुझे स्वीकार नहीं है।” माखनलाल दादा के इस तरह का उत्तर देकर मुख्यमंत्री का पद स्वीकार न किए जाने के बाद ही पंडित रविशंकर शुक्ल को मुख्यमंत्री के रूप में कुर्सी पर बैठाया गया। चूँकि यह ज़िक्र श्रीकांत जोशी की पुस्तक यात्रा पुरुष में भी किया गया है, इन्हीं महान कवि को आगे देश ने एक भारतीय आत्मा व साहित्य का देवता के रूप में सम्मान दिया।
राजस्थान की जयपुर रियासत का राणीला ग्राम चतुर्वेदी जी का आदि स्थान माना है जिसमें उनके प्रपितामह डूगरसिंह शास्त्री नर्मदापुरम (तत्कालीन होशंगाबाद) के बाबई नामक ग्राम में आकर बस गये थे। ‘आईने अकबरी’ के अनुसार यह ज़िला मालवा सूबा का अंग था और बाबई को औरंगज़ेब के बाद हवेली बागड नाम से विख्यात था जिसमें गढ़ का राजा राज करता था। यही बाबई प्रख्यात कवि, पद्मभूषण डॉक्टर माखनलाल चतुर्वेदी की जन्मभूमि है। उनका जन्म चैत्र शुक्ल कामदा एकादशी, विक्रमी संवत 1946 दिनांक 4 अप्रैल 1889 को पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में दिन के ग्यारह बजे बाबई ग्राम में पंडित नंदलाल चतुर्वेदी के यहाँ माता सुंदरी बाई के यहाँ हुआ। जन्म के समय नामकरण संस्कार में इनका नाम मोहनलाल अभिज्ञेय प्राप्त हुआ किन्तु परिवारजनों ने मोहनलाल के स्थान पर माखनलाल नाम रखा जो आज एक भारतीय आत्मा के नाम से अपनी एक पृथक पहचान बनाए हुए है।
चतुर्वेदी जी के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वे आदिगौड़ ब्राह्मण और घूसावट चौबे थे। कालान्तर में यह ‘चोैबे’ शब्द हिन्दी कारणों से ‘चतुर्वेदी’ में परिवर्तित हो गया जिसे अधिकांश परिवारों ने अपना लिया। इनका गोत्र वशिष्ठ है तथा इनका परिवार बाबई में पुरोहित का व्यवसाय करते थे। उनकी बुआ चाहती थी कि माखनलाल भी पुरोहिती करें किन्तु पूत के पाँव पालने में दिख जाते हैं और इनके द्वारा 1912 में सुबोध सिंधु के हिंदी संस्करण में ‘शक्ति पूजा’ पर प्रकाशित लेख पर पुलिस ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर कार्यवाही शुरू की किन्तु माणिकचंद जैन अधिवक्ता की बुद्धिमानी और कवि की कार्यकुशलता एवं सावधानी के कारण यह आरोप उन्होंने ग़लत साबित किये और वे इस उलझन से बच गये तथा घर पर ही संस्कृत, अंग्रेज़ी, बँगला, गुजराती, उर्दू और फ़ारसी भाषा का ज्ञान प्राप्त किया।
भारतीय साहित्य की यह शंख ध्वनि बाल्यावस्था से ही प्रदीप्त हो उठी। बालक माखनलाल ने नर्मदा नदी के उस पार बसे ग्राम नांदनेर में अपने चाचा पण्डित वंशीधर के पास रहते हुए संस्कृत सीखी। वह भगवान कृष्ण के जीवन पर आधारित गोरखपुर प्रेस का ग्रंथ प्रेम सागर पहली बार पढ़कर हिन्दी साहित्य से परिचित हुए। वह इसे बार-बार पढ़कर आँखों में अशुधारा बहाते थे। माखनलाल जी को बचपन में जितना प्रिय नांदनेर था उतना ही हिरनखेडा था, सिवनीमालवा था, जहाँ उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया और क्रांतिकारियों के साथ राष्ट्रप्रेम की ज्वाला मन में जागृत कर कांग्रेस में शामिल हुए। सुभाष चन्द्र बोस के जबलपुर आगमन पर माखनलाल चतुर्वेदी ने सन् 1920 में अपने अख़बार कर्मवीर की शुरूआत की। पहली ही बार सागर के पास रतौना नामक गाँव में 2500 गायों के रोज़ क़त्ल करने वाले कारख़ाने की नींव, भारतीय पूँजीपतियों के पैसों से, अँग्रेज़ों की मदद से डाले जाने से पूर्व, उसे बंद कराकर, अँग्रेज़ों को घुटने टेकने को मजबूर किया। ऐसे बहुआयामी प्रतिभा के धनी दादा माखनलाल चतुर्वेदी के जीवन पर लिखने का अवसर प्राप्त हुआ है। उन्होंने कर्मवीर के अलावा प्रभा पत्रिका का संपादन किया तथा युगचरण, हिमकिरीटनी, हिमतरंगिनी, वेणु लो गूँजे धरा काव्य संग्रह, साहित्य देवता, काजल, बीजुरी, समय के पाँव, माँ, ग़रीब इरादे, अमीर इरादे की रचना की। वह1943 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष बने, वहीं हिन्दी साहित्य का सबसे बड़ा ‘देव पुरस्कार’, ‘हिमकिरीटनी’ के लिये दिया गया। 1954 में साहित्य अकादमी का प्रथम पुरस्कार उनकी कृति ‘हिमतरंगिनी’ को प्राप्त हुआ। उनकी अमर कृति ‘अमर राष्ट्र उद्दण्ड राष्ट्र यह मेरी बोली, यह सुधार समझौते वाली भाँति नहीं मुझे ठिठोली’ के लिये सागर विश्वविद्यालय ने सन् 1959 में डीलिट की मानद उपाधि से विभूषित किया। भारत सरकार ने 1963 में उन्हें पद्म भूषण से अलंकृत किया। किन्तु 10 सितम्बर 1967 को राजभाषा हिन्दी पर आघात करने वाले राजभाषा संविधान संशोधन विधेयक के विरोध में उनके द्वारा यह पद्म भूषण अलंकार सरकार को लौटा दिया।
30 जनवरी 1968 को नर्मदा माटी का यह सपूत, हिन्दी के राष्ट्रवादी कवियों का अंतिम मुकुट भी भारत माता के चरणों में समर्पित हो गया, जिस दिन इन्होंने अपने प्राण त्यागे। वे हिन्दी के निराले और प्राणवान कवि ही नहीं कुलगुरु के रूप में अपने त्याग, समर्पण की एक नयी इबारत लिख गये। हिन्दी साहित्यकारों, कवियों, लेखकों, और पत्रकारों को परोक्ष में ही नहीं प्रकट में इनसे प्रेरणा मिलती रहेगी। वह एक ‘भारतीय आत्मा’ की उपाधि की मात्र कल्पना नहीं अपितु भारत की आत्मा के रूप में, राष्ट्र की तरुणाई को शताब्दियों तक आह्वान करेंगे। डॉक्टर, पद्मभूषण, दादा, कवि, साहित्यकार, क्रांतिकारी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जैसी अनेक विभूतियों से अलंकृत हो, आज़ादी के बाद उनकी तिल-तिल होने वाली शहादत, हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक पावन अभिलेख बनकर रह गयी है।
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