एक टीस अंतरमन में
आत्माराम यादव ‘पीव’
जब भी मेरे प्राणों में
अवतरित होता है सत्यगीत
देह वीणा बन जाती है,
सत्य बन जाता है परमसंगीत।
एक टीस सी उठती है हृदय में,
किसी को मैं दिखला न सका
जीवन साँसों के बंधन पर,
हृदय के क्रंदन को मैं जान न सका।
रिसता प्राणों से जो हरपल,
जैसे टूट रहा साँसों का बंधन
झूठी हँसी है छलिया जीवन,
भटक रहा जीवन का स्पंदन।
नयनों में सपने बिसरे-धुँधले,
अनछुई यादें हैं दिल में उलझी
सच से लगते हैं ये सारे सपने
बीते यौवन की बातें
न अब तक सुलझीं।
ढूँढ़ रहा भवसागर में,
मिलते नहीं रुलाते हो
बिखरी कड़ियाँ जीवन की,
जोड़ते नहीं भटकाते हो।
‘पीव’ अंधकार भरे सूने पथ पर,
मैं एक दीप जलाना चाहूँ,
जीवन में मादकता का ज्वर पसरा,
बेबस हूँ मैं कुछ कर ना पाऊँ।
एक गीत उठा है प्राणों में मेरे
गाना चाहूँ पर मैं गा न पाऊँ
जो टीस उठी है अंतरमन में,
दिखलाना चाहूँ, पर मैं दिखला न पाऊँ॥
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