होशंगशाह क़िले की व्यथा

01-07-2024

होशंगशाह क़िले की व्यथा

आत्‍माराम यादव ‘पीव’  (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

होशंगशाह गौरी का क़िला है कुछ ख़ास
खण्डहर हो चुका कभी था वह आवास। 
नर्मदा का तट था सुल्तान को भाया
सन्‌ चौदह सौ दस में क़िला बनवाया॥
 
मंगलवारा घाट से मैं उसे अक्सर निहारूँ
क़िले के अतीत का चिंतन मन में विचारूँ। 
अनगिनत सवालों का सैलाब मन में होता
अपने घर लौट आता ख़्याल जिगर में सँजोता॥
 
एक दिन यकायक क़िले ने मुझे पुकारा
कहा तनिक बैठो, चाहिए मुझे थोड़ा सहारा। 
मैं क़िला हूँ, मेरी तुम विवशता भी सुनो
क्यों क्षुब्ध हूँ, क्यों व्यथित हूँ, इसे भी गुनो॥
 
सदिया बीती बसंत बीते, कई पतझड़ भी गए
स्याह काली रातें, उजास भरे दिन भी गए। 
दर्द सहते कुछ न कहते, मैं अकेला खड़ा हूँ
मैं ऐतिहासिक क़िला, कई कुचक्रों से लड़ा हूँ॥
 
मुझे याद आता है, गुज़रा हुआ ज़माना
प्रेम करने वालों का, ख़ाक में मिल जाना। 
यही नर्मदा तट पर, बैठा करता दीवाना
उसकी बंसी धुन में, रानी का रीझ जाना॥
 
जिस दिन बंसी धुन, न सुन पाती रानी
व्याकुल दिल होता, आँखों से बहता पानी। 
दीवाने की आँखों में भी, बस गई वह रानी
पागल प्रेमी और रानी की, शुरू हुई कहानी॥
 
एक दिन सुल्तान ने देखा, सुल्तान हुआ पागल
रानी का दिल था बंसी वाले, पागल पर घायल। 
बोला सुल्तान पागल को, अगर भूल जाये रानी
माफ़ कर दूँगा में, रानी की सारी नादानी॥
 
सुनकर राजा की बात, रानी खिलखिलायी
प्रेम प्रेम है सुन राजा, रानी के मन सज़ा भायी। 
सुन बातें पागल हुआ सुल्तान, पागल बुलबाया
दोनों को मृत्यु दंड का, राजा ने फ़रमान सुनाया॥
 
पर रानी थी, पागल को नहीं भूली
रानी संग पागल के, फाँसी पर झूली। 
वह फाँसी जिसे भुला सारा ज़माना
इतिहास भी भूला यह क़िस्सा पुराना॥
 
तभी से दोनों की, आत्मायें यहाँ रोती
पीव आँसुओं से मेरे, गुंबज-दीवारें धोती। 
गुमसुम सा सुन रहा, मैं क़िले की ज़ुबानी
भवानी मिश्र के सन्नाटा सी, ये कहानी॥
 
क़िले ने नई नई बातों का, पिटारा दिया खोल
होशंगाबाद में मिले दर्द को बता रहा है तोल-तोल। 
बोला, मेरे बाद बने, अस्थिपंजर से कई क़िले हैं
बदरंग क़िलों के इतिहास में नहीं क़िस्से मिले हैं॥
 
शिल्पकारों की प्रस्तर खंड सी, वे अधूरी रचनाएँ
मरु मरीचिकाये की बनी, उद्वेगभरी कल्पनाएँ। 
सैकड़ों सैलानियों के समूह, उन्हें देखने आते हैं
गाइड उन क़िलों का गौरव, बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं॥
 
मेरा इतिहास मुझमें दफ़न है, बस स्मारक बन रह गया
राजा रानी और सामंतों का, सब आक्रोश-घृणा सह गया। 
एक गुमनाम सा स्मारक बनकर, रह गया हूँ आज
कई सदियों तक, मेरे वैभव पर था सबको नाज़॥
 
रानी और उनकी दासियों का, प्यार था विछोह था
सुल्तान के लिए रानी का प्रेम दग़ा था विद्रोह था। 
मेरे ऐतिहासिक वैभव को, भूली जनता और सरकार
अतीत की स्मृतियों में गुम हूँ, चाहूँ भविष्य का प्यार॥
 
मैंने देखी है, सुल्तानों, सामंतों की करतूतें
अत्याचार कर ख़ज़ाना लूटते, निर्दोषों की मौतें। 
मेरे अंचल में यही कहीं, रख छोड़ा है ख़ज़ाना
जनश्रुति वश खोजने, आता अब भी ज़माना॥
 
नगरपालिका को मेरी दशा पर, दया ख़ूब आई
60 लाख ख़र्च करके, की मरम्मत और सफ़ाई
स्याह काली रातों में, तंत्र मंत्र के आते उच्चाटक
ख़ज़ाना पाने निरीह पशुओं की, बलि दे करते नाटक॥
 
ज़माने के दिये ज़ख्मों की, हर टीस पर मैं कराहता
दर्द असीम लिए, दर्शन, शिल्प और कला को तलाशता। 
अतीत में अमानवीयता ख़ूब सही, अब आत्मा मेरी रोती
भावी पीढ़ी मेरे इतिहास से वंचित, सरकार क्यों है सोती॥
 
मेरी तरंगित संवेदनाओं को, क्यों नहीं दुनिया को बताते 
सुन रहा सन्नाटे की सिसकी, लोग सुनने क्यों नहीं आते? 
अपने स्वर्ण युग के इंतज़ार में, कब तक दर्द सहता रहूँगा
‘पीव’ पर्यटक दल अभिनंदन करे, आगे उपेक्षा मैं न सहूँगा॥

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
सांस्कृतिक आलेख
साहित्यिक आलेख
आत्मकथा
चिन्तन
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य कविता
ऐतिहासिक
सामाजिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में