मैं बेचारा दर्द का मारा

15-03-2024

मैं बेचारा दर्द का मारा

आत्‍माराम यादव ‘पीव’  (अंक: 249, मार्च द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

आदमी का दिमाग़ एक विशाल पुस्तकालय है। आजकल के आदमी ने इस पुस्तकालय की पुस्तकों को देखना बन्द कर दिया है। आदमी की इसी भूल के कारण इस पुस्तकालय अर्थात्‌ दिमाग़ में धूल जमनी शुरू हो गयी, किन्तु मुझ जैसे कुछ लोग इस दिमाग़ के अन्दर झाँक कर किताबों में धूल नहीं लगने देते और किताबों को पढ़ते रहते हैं। मैं जहाँ अपने दिमाग़ को तो पढ़ता ही हूँ वहीं आसपास के लोगों के मस्तिष्क को भी पढ़ने का प्रयास करता हूँ। दिमाग़ों में ताका-झाँकी करने से कई तरह के रहस्यों से परदा उठता है। मैं उन्हें अपने शब्दों में पिरोकर पाठकों तक पहुँचाने एक डाकिया बन जाता हूँ ताकि आप सभी मेरे मस्तिष्कं से निकली हर चिट्ठी पढ़ सको।

मेरे अपनों की समझ है कि मेरी ज़िन्दगी झण्डूबाम की तरह है और मैं सिर्फ़ रोना जानता हूँ; पर सच यह है कि मैं रोता नहीं रुलाना सीख गया हूँ। मेरी ज़िन्दगी में दर्द इतना है कि झण्डूबाम कि वे सारी डिबियाँ जो कम्पनी एक लॉट में उत्पाद करती है, वे सब इस्तेमाल भी कर लूँ तो दर्द को कोई असर नहीं होने वाला। या यूँ समझें मेरी ज़िन्दगी में दर्द ऐसे बिंधा है जैसे दर्द न हुआ, दर्द की नदी थपेड़े मारकर बह रही हो। मैं बेचारा दर्द का मारा, उस दर्दभरी विशाल नदी में तैरना सीख रहा हूँ और कभी-कभी लगता है कि दर्द की उफान मारती लहरें कई मगरमच्छों के रूप में अपने जबड़ों को फाडे़ मुझे निगलना चाहती हैं। मैंने भी दर्द के कई दरवाज़े खोल रखे हैं इसलिये दर्दभरी नदी की ख़ूनी लहरों में भी मैं मुस्कुराता बच निकलता हूँ। जो ज़िन्दगी को नहीं जानते, जिनकी उम्र कट चुकी है, वे ज़िन्दगी कैसे जीते हैं, इसका ज्ञान बघारते हैं। ज़िन्दगी के दर्द का जिन्हें पता नहीं है, वे दर्द से भरी ख़ुमारी में जीने के आदी बन चुके लोग, जिनकी ज़िन्दगी में दर्द उनके पोर-पोर में बसा हुआ है, वे अपनी छोटी सी ज़िन्दगानी में दर्दनिवारक दवा की फेक्ट्रियाँ तक चट कर चुके होते हैं। उनकी ज़िन्दगी का तेल चुकता होने को होता है। वे जानलेवा बीमारी को अपने शरीर में स्थान दे देते हैं और बीमारियाँ उनके शरीर के हर कोने में अपना तम्बू गाड़कर, उनके श्मशान का रास्ता तैयार कर देती हैं। उनकी चूक इतनी भर रहती है कि वे ज़िन्दगी के दर्द को दर्दनाशक से हटाने की होशियारी में शरीर विनाशक प्रयोग कर चुके होते हैं, अर्थात्‌ दर्द के मूल में जाकर उसे मिटाने की बजाय ज़िन्दगी को मिटा बैठते है।

मैं अक़्सर अपने मस्तिष्क की किताबों को पढ़ता हूँ इसलिये ज़िन्दगी के हर दर्द को, मैं जानता हूँ। अपने दर्द को, दर्द के मर्मस्थल को, मर्मस्थल के हर संकेत को, जो शरीर के किस भाग में दर्द है, दर्दनाशक झण्डूबाम, कैप्सू्ल, गोलीयाँ आदि दवाइयाँ, दर्दनाशक नहीं बल्कि दर्दपोषक होती हैं। उन्हें ग्रहण कर दर्द को शरीर की नसों में छिपाकर, आराम का एहसास करते हैं। उनके दुष्पररिणाम से शरीर को रोगी बनाकर कई उपयोगी अंगों में बीमारियों को पैर रखने की जगह दे, उस अंग पर बीमारी का कब्ज़ा हम स्वयं कराते हैं। मैं ज़िन्दगी और दर्द को समझने, पढ़ने में लगा रहा हूँ इसलिये ज़िन्दगी और उसके दर्द के अंतर को जान चुका हूँ। दर्द जो पैदा होने के बाद से शुरू होता है, दर्द जो ज़िन्दगी की उम्र के साथ पलता-बढ़ता है और घर-परिवार, नाते-रिश्तों, मित्रों-मिलनेवालों व समाज के बीच होने वाले प्रिय-अप्रिय संवादों, मीठे-कड़वे विवादों से जो दर्द पैदा होता है।

दर्द को भी दर्द होता है, जब सातरंगों से लिपटी क्वारी उम्र देह से आसरा चाहे और मन भरमाये तब दर्द असीम होता है। निष्फल उम्मीदें दर्द से भर जाती हैं और यह तन दर्द से ऊब जाता है। जब कोई ढेर सारे दर्द देता है तो मन पहले खीजता है, छीजता है फिर दर्द को दबाता है, दर्द से कराहता है, दर्द में सब सहता है। दर्द देने-लेने में तीसरे क़िस्म के लोग दर्शक होते हैं। दर्द देने वाला विजेता सा अभिनय कर ख़ुश होता है कि चलो अब ये रोयेगा-धोयेगा, मरेगा-मिटेगा पर दर्द लेने वाले के चेहरे पर शिकन न पड़े और वह मस्ती में ख़ुश दिखे तो दर्शक बने लोगों को दर्द होने लगेगा कि इतने दर्द-तनाव के बाद यह दर्द से भरा होने पर भी रोता क्यों नहीं है। ज़रूर बेशरम क़िस्म का गँवार होगा जो दर्द को भाव ही नहीं दे रहा है। अधिकांश लोगों की ज़िन्दगी में चारों ओर दर्द के सैलाब उमड़ रहे हैं। दर्द की बेरहम बाढ़ उन्हें बहाकर ले जाना चाहती है। दर्द के ग्लेदशियर पिघल कर पहाड़ों को दरकाने की ताक़त रखते हैं पर वे भी दर्द हटाने-बढ़ाने में बेबफ़ाई कर बैठते हैं। दर्द से बेरुख़ी रखने वाले इन लोगों की ज़िन्दगी, अंगद के पैर की तरह शान्तिप्रिय रूप से जमी हुई है। दुनियावालों को यह शान्ति भी एक दर्द लगती है और वे ज़िन्दगी के रास्ते में इतना दर्द बिखेर देते हैं कि ज़िन्दगी की राहें दर्द का राजमार्ग बन जाती हैं।

दर्द असल में बहुरूपिया है और इसका असर मस्तिष्क-दिमाग़ पर होता है, पर कुछ लोग दिमाग़ का बोझ कम करके दर्द को दिल पर ले लेते हैं। दर्द सिंगल पर्सन हो सकता है अथवा डबल या बहुसंख्यक, पर उसका सबसे ज़्यादा बोझ मस्तिष्क पर हावी होता है। दर्द कई टुकड़ों में बँटा होने से, जब असहनीय हो जाये तो आदमी पागल भी हो सकता है और जो सह ले वह ज़िन्दगी की परीक्षा में उत्तीर्ण माना जाता है। मेरे जैसे कुछ-कुछ मनचले दीवाने दुनिया में पागल ही होते हैं जो ज़िन्दगी की राह में अंगारों की तरह दर्द के लावों की रेलिंग तोड़कर दर्द को अूंगूठा दिखाते, उसका मज़ाक़ करते मिल जायेंगे।

मेरी ज़िन्दगी भी दर्दभरी दास्तान रही है। ज़िन्दगी में जो भी करना चाहा, लोगों ने करने नहीं दिया। हर जगह कोई न कोई किसी न किसी बहाने आता और मुझे दर्द की आँधियों के हवाले छोड़ जाता। मैं हर दर्द की बाधायें पार करता गया। जिन्होंने दर्द दिया वे लोग मेरी कुशलक्षेम पूछने आते। असल में वे यह देखने आते कि मेरे दर्द सहने की क्षमता क्या है? अगर मैं पूर्णरूपेण कुशल हूँ तो उनको दर्द होने लगता। वे ‘खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे’ की तर्ज़ पर मेरे दर्द भरे घावों में ज़ख़्म देकर अपने दर्द को कम कर, मेरे दर्द को बढ़ाने की सोचते। मैंने, मेरे अपनों के दिये दर्द को ज़िन्दगी के पिंजरे में पाल रखा है और मैं किसी के भी द्वारा दिये गये दर्द को, किसी को भी बाँटना नहीं चाहता हूँ। दर्द भी मुझसे मिलकर ख़ुश है। उसकी ऐसी आवभगत ख़ातिरदारी किसी ने नहीं की। जितनी एक मेहमान के घर आने पर की जाती है उतना मान-सम्मान देकर मैंने दर्द को सँभाल रखा है। कुछेक की ज़िन्दगी सूखे पतझड़ के पत्तों जैसी होती है, मन होता था कि दर्द को अपनी ज़िन्दगी की खिड़की से बाहर फेंक दूँ पर जब भी यह सोचता तो कोई न कोई खिड़की के आसपास आते-जाते दिखाई देता, और मैं किसी की भी ज़िन्दगी में दर्द देना नहीं चाहता था इसलिये दर्द को मैंने अपना मित्र बना लिया। जबसे दर्द मेरा मित्र बना है तब से दर्द की आँखों में मैं एक सितारे की तरह बस गया हूँ। दर्द भरी ज़िन्दगी मेरी सहचरी बन गयी और दर्द मेरा सबसे अच्छा, भरोसेमंद, प्यारा साथी बन गया, दर्द ही मेरा जीवन बन गया।

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