मैं हूँ मज़दूर

15-05-2024

मैं हूँ मज़दूर

सुशीला श्रीवास्तव  (अंक: 253, मई द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

मेहनत कर मैं पेट पालता
करता मैं आराम नहीं
रुखा-सूखा खाकर भी
है मुझको कोई मलाल नहीं
 
आसमान है छत मेरी
धरती मेरा बिछौना है
ढोता सर पर ईंट हूँ
पर घर से महरूम हूँ। 
 
मंदिर मस्जिद, महल अटारी
बनते मेरे हाथों से
पर छोटी सी कुटिया भी
क़िस्मत को मंज़ूर नहीं, 
 
माना कठोर है तन मेरा
पर मन में अभिमान नहीं
हो कितना भी काम बड़ा
पर करता मैं इन्कार नहीं। 
 
हो धूप या छाँव गगन में
होता मुझे अहसास नहीं
मेहनत-कश इन्सान हूँ
मंज़िल की परवाह नहीं। 
 
निर्धन हूँ लाचार नहीं
लम्बी दूरी तय कर जाऊँ
चप्पल की दरकार नहीं
दो जून की रोटी मिल जाय
 
अधिक की मुझ को चाह नहीं, 
पर इस दुनिया के मेले में
मिलता मुझे सम्मान नहीं
दुनिया मुझ को इंसा समझे
दिल में बस अरमान यही

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