ज़रा रुख से अपने हटाओ नक़ाब
सुशीला श्रीवास्तव
बहर: मुतकारिब मुसम्मन महज़ूफ़
अरकान: फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल
तक़्तीअ: 122 122 122 12
ज़रा रुख से अपने हटाओ नक़ाब
बढ़ाओ ज़रा हाथ, लो ये गुलाब
तुम्हारी अदा मुझ को भाने लगी है
तुम्हीं से मुहब्बत मुझे है जनाब
इशारा करो प्यार का तुम मुझे
यही इल्तिजा है करो इंतिख़ाब
तुम्हारे लिए मैं जगत से लड़ूँ कि
तुम्हारे ही हर पल मैं ने देखे ख़्वाब
अगर ऐब मुझ में, सुधारूँ मैं ख़ूब
तुम्हारे लिए छोड़ दूँगा शराब
मुहब्बत की नगरी बने बे-मिसाल
तुम्हारी ही आमद से घर ला-जवाब
गुज़ारूँ मैं जीवन तुम्हारे ही साथ
है तुम से मुहब्बत मुझे बे-हिसाब
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