जुगनू

सुशीला श्रीवास्तव  (अंक: 255, जून द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जब-जब फिसली राहों में
हौसलों ने मुझे उठाया है 
आँखों ने देखा ख़्वाब सुहाना 
नीले अंबर को छू जाना है। 
 
चाहे पथ अवरुद्ध सही
चट्टानों से टकराना है
मंज़िल की परवाह नहीं 
सरिता-सी बह जाना है। 
 
जब-जब घिरी मैं राहों में 
आशा-दीप जलाया है
उजास मिले या अंधकार 
दीपक बन जल जाना है। 
 
जब-जब गिरी मैं राहों में
लम्हों ने मुझे सिखाया है 
वक़्त बुरा हो या भला
जीवन पथ पर चलते जाना है। 
 
जब-जब डूबी शब्द सागर में
जज़्बातों ने मुझे उठाया है
क़लम ने दिया सहारा
काग़ज़ ने मुझे सँवारा है। 
 
चाहे विश्व विरोधी होवे
कथा जग की लिख जाना है
सूरज बनना नामुमकिन, पर
जुगनू बन मिट जाना है। 

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