जहाँ कहीं समर हुआ
सुशीला श्रीवास्तव
जहाँ कहीं समर हुआ, बहार को निगल गया
विनाश ही हुआ वहाँ, समाँ बहुत बदल गया
भला नहीं समर कभी, पतन ही होता देश का
सुकून चैन छीनता कि दर्द दिल में पल गया
कभी ख़ुशी मिले यहाँ, कभी ग़मों की चादरें
समय अज़ीब चीज़ है कि आदमी तो ढल गया
समय कभी न लौटता, निशानियाँ पर छोड़ता
कहे यहाँ पर आदमी कि वक़्त पल में छल गया
न हारता जहान है, दुखों में वो अडिग रहा
नयी उम्मीद वो जगा के, ज़िन्दगी में चल गया
गुज़र ही जाता युद्ध है, मगर बिखेरता बहुत
विरानिया जगह-जगह, यही सभी को खल गया
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