ख़ामोश सपने

01-11-2025

ख़ामोश सपने

आशीष कुमार (अंक: 287, नवम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

गिने चुने थे मेरे सपने
जो आकार लेना चाह रहे थे
बिल्कुल उन नव-अंकुरों की तरह
जो बड़े होकर पौधे बन जाते
नित्य नए-नए फूल खिलाते
स्वच्छंद वातावरण में रहकर
उन्मुक्तता से खिलखिलाते
अपने फूलों की ख़ुश्बू फ़िज़ा में फैलाते
धीरे-धीरे एक बाग़ लग जाता
आने वाली पीढ़ियों को अपना फल खिलाता
 
लेकिन जैसे ही इन्होंने आँखें खोलीं
ये दुनिया आँखें दिखा कर बोली
चलना तुमको है पर रास्ता मेरा है
यह ज़मीं मेरी है सारा जहाँ मेरा है
पंख मिल भी जाएँ तो उड़ोगे कैसे
हवा भी मेरी है आसमाँ भी मेरा है
 
मैंने कहा ये तुझसे अलग नहीं
बढ़ने दे इनको तू सुलग नहीं
अगर रोका इनको तो ये जल जाएँगे
फिर नव-अंकुर कैसे निकल पाएँगे
साथ देगी तो साथ नज़र आएँगे
तुझे सँवार कर ये भी सँवर जाएँगे

जब तक रास आए दुनिया को
इन सपनों से बेहद अपनापन था
पतझड़ की तो बात ही मत पूछिए
हर घड़ी हर महीना सावन था
लेकिन नियति ने करवट बदली
शेर दिल होकर भी ये जोश खो गए हैं
मुरझा कर मन के कोने में ऐसे गिरे
जैसे हमेशा के लिए बेहोश हो गए हैं
ज़िम्मेदारियाँ आ गईं राह में
हमारे सपने पैर बढ़ा न सके
अपनों के सपने सजाने थे इसलिए
ख़ुद ख़ामोश होने में देर लगा न सके

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