कस्तूरी मृग
आशीष कुमारवन सुशोभित हो रहा
कस्तूरी की सुगंध से
स्वयं बावला हो रहा
कस्तूरी मृग भी इस गंध से
सब माया का फेर है
अनजान अपने ही अंग से
नाभि बीच कस्तूरी बसे
वह ढूँढ़ता वन में उमंग से
भूख प्यास सब भूल गया
मृगतृष्णा सी इस जंग से
वन वन मारा फिर रहा
जो बहती उसके अंग से
थक हार कर गिर पड़ा
पर दूर नहीं था सुगंध से
हवा ने साँसों में ताज़गी भरी
फ़ुर्ती दिखी फिर अंग अंग से
जगत बैरी बना बैठा था
नादान दुनियावी रंग से
घात लगा मारा गया
बेचारा कस्तूरी के प्रसंग से
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