ज्वार-भाटा

15-06-2025

ज्वार-भाटा

आशीष कुमार (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

खींच रहे हैं सूर्य चंद्रमा
समंदर भी जाने को उतावला है
उठ रहा है ज्वार देखो
कहता कौन रोकने वाला है
 
अंदर से बेचैन रह रहा
लहरें उफनती ज्वाला हैं
शोर कर रहा ऐसे मानो
यहाँ से बंधन तोड़ने वाला है
 
ग़ुस्सा इसकी नाक पर रहता
जैसे दूध सा किसी ने उबाला है
मिलने की आतुरता तो देखो
ख़ुद को आसमां की तरफ़ उछाला है
 
धरती देख रही उत्सुकता
बड़े प्यार से उसे सँभाला है
बताया उसे कि तू मेरा है
फिर क्यों उनके लिए मतवाला है
 
जाने को बेचैन तो है तू
क्या खुला वहाँ कोई धर्मशाला है
दी है तुझे यहाँ दिल में जगह
वहाँ निकलने वाला तेरा दीवाला है
 
कर याद जब-जब प्यासा है तू
वर्षा ने बुझाई तेरी ज्वाला है
लंबा रास्ता तय कर नदियों ने
तुझे जलधि बना डाला है
 
सुनकर सारी बातें धरती की
विचलित समंदर मन बदल डाला है
उफनते उबलते ज्वार को उसने
सिमटकर भाटा बना डाला है
 
कहा चीख कर अंबर वालों से
अब मेरा मन न बदलने वाला है
चाहे जितना ज़ोर लगा लो
ये समंदर धरती पर रहने वाला है
 
सदियों से कोशिश में है चाँद
सूर्य भी कहाँ मानने वाला है
चलता रहेगा ज्वार-भाटे का दौर
पर समंदर साथ न छोड़ने वाला है
 
कुछ ऐसा ही मानव जीवन
आकर्षण पर मर मिटने वाला है
सीख देते हैं हमें ज्वार-भाटा
साथी वही जो टिकने वाला है

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
किशोर साहित्य कविता
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
नज़्म
कहानी
हास्य-व्यंग्य कविता
गीत-नवगीत
कविता - हाइकु
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में