अबला: तूफ़ान के दिन

01-05-2022

अबला: तूफ़ान के दिन

डॉ. मनोज मोक्षेंद्र (अंक: 204, मई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

उसके उनींदे अलसाए अकेलेपन में
मर्द-हथियारों के अन्यत्र होने पर, 
वह कुख्यात छापामार दल-बल समेत
चौतरफ़ा आ-दबोचता है उसे
चोरी-छुपे, चुपके से नहीं
बल्कि दहाड़ता-फुफकारता हुआ
औचक सैकड़ों दिशाओं से
 
वह भीतर-बाहर निस्सहाय
सहमी-सहमी निरुपाय
आख़िर, करे तो क्या करे
जाए तो कहाँ जाए
 
उसने पूर्वनियोजित ढंग से
आ-धमकने से पहले
काट दी थी
टेलीफोन और बिजली की लाइनें, 
भींचकर सूरज को मुट्ठी में
कर दिया था घुप्प अन्धेरा, 
मन-बहलाते उसके खग-मित्रों को
ज़हरीली फुफकारों से
अचेत धराशायी कर दिया था, 
रक्षक जटायुओं के काट डाले थे पंख—
बजाकर विध्वंसक ताण्डवी शंख, 
उनके थरथराते घोसलों को बाजुओं में जकड़
धुआँधार घात-प्रतिघात से
कर दिया था बेदम-बेज़ार, 
नीचे धूल चाटने लगे थे
चौखटों से टूटे दरवाज़े-पल्ले
और रोशनदानों के चूर हुए शीशे
 
घुसपैठ करने से पहले
लपलपाते हाथों से उसने
ताबड़तोड़ थप्पड़-झापड़ रसीद कर
उसकी खरगोशी आँखों में
विषबुझी रेतें उड़ेलकर
उसे लुँज-पुँज बुत बना दिया था
 
उफ्फ़! वह उफ्फ़ तक न कर पाई थी
ख़ुद को सुरक्षित
अपने-आप में समेट भी न पाई थी
अपने किसी कृष्ण को रक्षार्थ बुला भी न पाई थी
जबकि पलक झपकतें
 
उसने उसकी देह दबोच
हर लिया था उसका चीर
बिगाड़ दिया था उसका साज-सिंगार
 
वह निर्वस्त्र-निष्पात कँपकँपाती टहनी
जाती तो किन झुरमुटों की साया में
सिवाय रसोई के कोने से
जिसकी बेबस खिड़कियों से
अपना ख़ौफ़नाक सिर डालकर
वह उसे बदतमीज़ी से घूर रहा था
कुटिल आँखों से लूट-खसोट रहा था
 
बिचारी निर्जीव, नि:शब्द, नि:शक्त
सहती रही ज़्यादतियाँ
जो वह करता रहा निर्विघ्न बेरोकटोक
 
जी-भर मनमाना करने
हवसी जोश के पस्त होने
और अपने विजयोन्मत्त सैन्यबल द्वारा
हथियारों को राहत बख़्शने के बाद
जब वह बोझिल क़दमों से
मुर्दे रौंदते वापस गया
तो उसके चेहरे पर
पछतावे की लकीरें नहीं थीं
बल्कि, ज़ल्दी ही
वापस लौटने की बेताबी थी। 

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