हिन्दीतर प्रांतों में हिंदी की स्थिति और हिन्दीतर क्षेत्रों के हिंदी समर्थक
डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
हिन्दीतर प्रांतों में हिंदी की स्थिति और हिन्दीतर क्षेत्रों के हिंदी समर्थक
(शोध-पत्र)
प्रस्तोता:डॉ. मनोज मोक्षेंद्र
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विषय प्रवेश:
हिंदी भाषा के उन्नायकों ने हिंदी को उसकी लोकप्रियता, प्रयोग और प्रचलन के आधार पर पूरे देश को तीन हिस्सों में विभाजित किया है–‘क‘, “ख’ और ‘ग‘। यद्यपि ये विभाजन सरकारी काम-काज को हिंदी माध्यम से कार्यात्मक भाषा को प्रोत्साहित करने के लिए किया गया है तथापि इनसे देशभर में राष्ट्रभाषा हिंदी की स्थिति की सही तस्वीर का पता चलता है। हमें हिंदी की स्थिति को जानने के लिए इसी तस्वीर का सूक्ष्म अवलोकन करना होता है। राज्यानुसार इन तीनों क्षेत्रों के सम्बन्ध में विवरण निम्नानुसार है:
‘क’ क्षेत्र से बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड राजस्थान और उत्तर प्रदेश राज्य तथा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र अभिप्रेत है।
‘ख’ क्षेत्र से गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब राज्य तथा चंडीगढ़, दमण और दीव तथा दादरा और नगर हवेली संघ राज्य क्षेत्र अभिप्रेत हैं।
‘ग’ क्षेत्र से खंड (च) और (छ) में निर्दिष्ट राज्यों और संघ राज्य क्षेत्रों से भिन्न राज्य तथा संघ राज्य क्षेत्र अभिप्रेत है।
अर्थात्:
‘क’ क्षेत्र से वे राज्य अभिप्रेत हैं जहाँ शत-प्रतिशत हिंदी जनभाषा है तथा लोगबाग अपने समस्त सामाजिक, व्यापारिक तथा कार्यालयी कार्यों में हिंदी का प्रयोग करते हैं।
‘ख’ क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले राज्यों में प्रांतीय भाषाओं के साथ हिंदी प्रचलित भाषा है जहाँ की जनता अपनी प्रांतीय भाषा के साथ हिंदी का प्रयोग करती है।
‘ग’ क्षेत्र में वे राज्य सम्मिलित हैं जहाँ सिर्फ़ प्रांतीय भाषाओं का प्रचलन है तथा हिंदी का प्रयोग अत्यल्प है।
किन्तु, हम हिंदी के प्रचलन, उसकी उपयोगिता और लोकप्रियता के आधार पर पूरे विश्व को हिंदी-भाषी और हिंदीतर क्षेत्रों में विभाजित करेंगे। इस अध्ययन में, जब हम अपने देश भारत के सम्बन्ध में हिंदी के ‘क‘, “ख’ और ‘ग’ क्षेत्रों के सम्बन्ध में विश्लेषण करेंगे तो ये क्षेत्र वही होंगे जिन्हें राजभाषा अधिनियम, 1963 में उल्लिखित किया गया है। लेकिन, जब हम वैश्विक आधार पर हिंदी के प्रयोग और प्रचलन की चर्चा करेंगे तो हम अपने देश के हिंदीतर और हिंदीभाषी राज्यों को केवल दो हिस्सों में विभाजित करेंगे; अर्थात्, हिंदीभाषी और हिंदीतर में। हिंदीभाषी क्षेत्रों में ‘क’ और ‘ख’ समूह के राज्यों को शामिल करेंगे अर्थात् बिहार, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उत्तराखंड, राजस्थान, उत्तर प्रदेश राज्य तथा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दिल्ली संघ राज्य क्षेत्र, गुजरात, महाराष्ट्र और पंजाब राज्य तथा चंडीगढ़, दमण और दीव एवं दादरा और नगर हवेली संघ राज्य क्षेत्र को पहले समूह में रखेंगे। शेष राज्य दूसरे वर्ग में रखे जाएँगे।
वास्तव में, अब हमें हिंदी के विस्तार को वैश्विक आधार पर मापित करना है; इसलिए, हम भारत के ‘क’ और ‘ख’ क्षेत्रों को हिंदीभाषी राज्य मानेंगे और विश्व के निम्नलिखित देशों को भी हिंदीभाषी क्षेत्र के अंतर्गत रखेंगे जबकि वहाँ देवनागरी लिपि का उपयोग नहीं होता है:
पाकिस्तान, भूटान, नेपाल, फिजी, बांग्लोदश, श्रीलंका, मालदीव, म्यांमार, इंडोनेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, मॉरिशस, त्रिनाड एवं टोबैगो देश जहाँ हिंदी कमोवेश बोली जाती है तथा समझी जाती है।
इन देशों के अतिरिक्त, विश्व के अन्य सभी देशों को भारत के हिंदीतर राज्यों अर्थात् केरल, कर्णाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, पांडिचेरी, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मिज़ोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, लक्षदीप और गोवा के साथ रखेंगे। इस प्रकार, हमारा मुख्य बल विश्व के हिंदीतर देशों और भारत के हिंदीतर राज्यों में हिंदी के प्रयोग, हिंदी की पृष्ठभूमि एवं प्रचार-प्रसार पर ही होगा। हम अपने हिंदीतर प्रांतों तथा विश्व के ऐसे देशों के सम्बन्ध में छानबीन करेंगे, जहाँ हिंदी के प्रयोग और प्रचलन पर फ़िल्म, साहित्य, वहाँ के प्रवासी भारतवंशियों के प्रभाव आदि के ज़रिए सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। इन देशों में थाईलैंड, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, म्यांमार, इंडोनेशिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ़्रीका, मॉरिशस, यमन, युगांडॉ, कनाडा आदि जैसे देश सम्मिलित हैं।
भारत की हिंदी पृष्ठभूमि:
भारत विश्व का ऐसा इकलौता देश है जहाँ सर्वाधिक भौगोलिक विविधताएँ हैं तथा सर्वाधिक भाषाएँ और बोलियाँ अनंत काल से प्रसवित-पल्लवित होकर आज भी हमारे राष्ट्रीय मानस-पटल पर विराजमान हैं। ऐसा यहाँ प्रायः बाह्य प्रभावों में अथवा आतंरिक संक्रमण से उद्भूत सांस्कृतिक विविधताओं के कारण हुआ है क्योंकि प्रत्येक संस्कृति की अपनी ही ज़बान होती है जिससे भिन्न भाषाओं और बोलियों का प्रादुर्भाव हुआ है एवं जिसे बहुधा विभिन्न आक्षरिक प्रतीकों, अलग शैलियों, भिन्न लिखावटों आदि में लिपिबद्ध करने की कोशिश भी की जाती रही है। अस्तु, भले ही यहाँ इतनी ढेर सारी सांस्कृतिक और भौगोलिक विविधताएँ रही हों, भाषाओं और बोलियों के विभिन्न रूप रहे हों; इस विराट प्रायद्वीपीय भू-क्षेत्र का कण-कण देवभाषा संस्कृत से गुंजायमान् रहा है। इस देवभाषा का व्यापीकरण भी असीम है-इसने भौगोलिक उच्चावचों को लाँघते हुए सभी क्षेत्रीय और लोक भाषाओं और बोलियों की बुनियाद भी ड़ाली है। चुनांचे, संरचनात्मक आधार पर ये विविधधर्मी भाषाएँ परस्पर पूर्णरूपेण अलग-थलग रहते हुए भी किस एक भाषा से जुड़ती चली जा रही हैं और किन अपरिचित-अनजान क्षत्रों में विस्तारित होती जा रही है, इस महत्त्वपूर्ण पक्ष पर हम शोधाधारित विश्लेषण करेंगे तथा इसी परिप्रेक्ष्य में हिंदी भाषा की वर्तमान स्थिति का आकलन भी करेंगे।
यहाँ, हम भाषा के व्याकरणिक और संरचनात्मक स्वरूप की आरण्यक बहसबाज़ी और अनावश्यक तर्क-कुतर्क में न जाते हुए वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में हिंदी की लोकप्रियता, संभावित सर्वजनीनता और सुदूर हिंदीतर क्षेत्रों में स्वीकार्यता के सम्बन्ध में बातें करेंगे, शोध-संधान करेंगे। यह जानने-समझने की कोशिश करेंगे कि संविधान में उल्लिखित आठवीं अनुसूची की २२ भाषाओं से अभिसिंचित तथा २०११ की जनगणना के अनुसार, लगभग १३६९ भाषाओं और १२१ मातृभाषाओं से अनुप्राणित इस संक्रमणशील दौर के भारत में अपनी हिंदी, हिंदीतर प्रदेशों में तथा देश के और किन-किन क्षेत्रों के जन-जिह्वा पर विराजमान है? विशेष उल्लेख्य यह है कि यह हिंदी पर्वत-पठार, सागर-महासागर, मरुस्थल-रेगिस्तान और सभी दुर्भेद्य कंटिकाकीर्ण मार्गों को लाँघते हुए, विश्व की एक ऐसी भाषा बनने को तत्पर है, जिसे हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा की आधिकारिक भाषा के तौर पर मान्यता मिल चुकी है। अब यह उन भाषाओं के सान्निध्य में बैठी हुई है जिन्होंने अज्ञानतावश इसे सदियों से हिक़ारत और नफ़रत से देखा है। इसके अलावा, आज की हिंदी इस भरत-भू की उन भाषाओं के साथ भी सामंजस्य स्थापित कर रही है जिनके, इसके विरुद्ध बेहद उपेक्षात्मक तेवर रहे हैं। चुनांचे, हिंदी तो सबको अपना ‘मीत’ बनाने वाली हमारी भारतीय संस्कृति की तरह उदार और समानतावादी भाषा है और इसी के आंचल-तले आज इस आर्य भूमि की कितनी भाषाएँ और बोलियाँ इसकी सेहतमंद धुपहली छाँव में निडरतापूर्वक पल-बढ़ रही हैं; अपनी अस्मिता को न केवल सँजो पा रही हैं, अपितु ख़ूब सज-संवर भी रही हैं। हिंदी में अंतर्भूत इस लक्षण के सम्बन्ध में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का कहना कितना सार्थक लगता है:
“हिंदी की परंपरा सांप्रदायिक परंपरा नहीं; एकता, उदारता, सामाजिक समानता और वैयक्तिक स्वतंत्रता की परंपरा है।”1
स्पष्टतया इस देश में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध के साथ-साथ सभी जनजातीय-अल्पसंख्यक जन, हिंदी को समझने तथा अपने विचार संप्रेषित करने में सक्षम हैं। ऐसा आज़ादी के 76 वर्षों पश्चात सम्भव हो सका है। आज हिंदी किसी भी प्रकार के क्षेत्रवाद, पंथवाद, संप्रदायवाद और जातिवाद जैसे भेदभावों को दर-किनार करते हुए हमारी नकारात्मक अटकलों के विपरीत निर्झर प्रवाहमान गंगधारा की तरह विस्तारित होती जा रही है। यह उन सभी के कंठ, जिह्वा और मन को अभिसिंचित कर शीतलता प्रदान करती जा रही है जो कुछ ही दशकों पहले तक इसके साथ छत्तीस का आँकड़ा का रखा करते थे; बेहद छुआछूत का भाव रखते थे।
हिंदी के असीम विस्तार का सपना:
“न चाहूँ मान दुनिया में, न चाहूँ स्वर्ग को जाना
मुझे वर दे यही माता, रहूँ भारत में दीवाना,
मुझे हो प्रेम हिंदी से, पढू हिंदी, लिखूँ हिंदी
चलन हिंदी चलूँ, हिंदी पहनना, ओढ़ना खाना
रहे मेरे भवन में रोशनी हिंदी चिराग़ों की।”2
(राम प्रसाद बिस्मिल्ल)
हिंदी को व्यापक आधार प्रदान करने के लिए जो सपना पाला गया है, वह इस दौर के हम जैसे मुट्ठीभर हिंदी-प्रेमियों का ही सपना नहीं रहा है। वह सदियों से सँजोया गया हमारे राष्ट्रभक्तों, संस्कृति के उन्नायकों और आज़ादी के दीवानों का भी सपना रहा है जिन्होंने दासता के उस दौर में भी अपनी दूरदर्शिता और अपने राष्ट्र से सांस्कृतिक लगाव के कारण यह पूर्वानुमान लगा लिया था कि हिंदी न केवल इस देश की सर्वप्रिय ज़बान होगी, बल्कि इसका दायरा भौगोलिक उच्चावचों और सांस्कृतिक जटिलताओं को लाँघते हुए विस्तीर्ण ही होता जाएगा। यद्यपि ग़ुलाम भारत के स्वतंत्रता-सेनानियों ने आज़ादी की लड़ाई के लिए जिस संप्रेषण माध्यम को अपनाया था, वह तो हिंदी ही थी तथापि उनके मन में यह इच्छा अंतर्भूत थी कि एक-न-एक दिन हिंदी सर्वप्रिय और सर्व-स्वीकार्य भाषा होगी—न केवल देश में, अपितु विश्व में भी। स्वयं महात्मा गाँधी भी इस तथ्य से आश्वस्त थे:
“वह दिन दूर नहीं, जब हिंदी हमारी आत्मा का हिस्सा बन जाएगी।”3
महान स्वतंत्रता-सेनानी सुभाष चंद्र बोस तो आश्वस्त होकर यहाँ तक मान बैठे थे कि हिंदी ही भारत की सर्व-प्रचलित भाषा होगी: “अगर आज हिंदी (राष्ट्रभाषा) मान ली गई है तो वह अपनी सरलता, व्यापकता और क्षमता के कारण। वह किसी प्रांत विशेष की भाषा नहीं, बल्कि सारे देश की भाषा हो सकती है।”4
समन्वयवादी हिंदी की ऐतिहासिकता: भारत के विशेषतया हिंदीतर क्षेत्रों के संदर्भ में
राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की ऐतिहासिकता भी बड़ी रोचक और प्राचीन है। यदि ईमानदारी से तौला-परखा जाए तो यह बात खुलकर सामने आएगी कि विशेषतया दक्षिण भारत के हिंदीतर राज्यों में हिंदी को अपनाने के लिए अपेक्षाकृत अधिक हाथ-पाँव मारे गए हैं। ऐसा प्रायः तीन सौ वर्षों के बीते दौर में किया गया है।
बहरहाल, हिंदी का प्राचीन रूप “देहलवी” भाषा बहमनी राजवंश के संस्थापक अल्लाउद्दीन हसन बहमन शाह की राजभाषा थी। गोलकुण्डा के मुस्लिम शासक बड़े हिंदी-प्रेमी थे और इसमें संदेह नहीं कि उनकी राजभाषा भी हिंदी ही रही होगी। यह भी उल्लेखनीय है कि मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने फ़ौज़ी पदाधिकारियों के लिए “हिंदुस्तानी हिंदी” का ज्ञान रखना ज़रूरी ऐलान किया था। इसी तरह टीपू सुल्तान ने केरल में राजकीय प्रयोजनों हेतु जिस हिंदी के प्रयोग की वकालत की थी, उसे “टीपू सुल्तानी हिंदी” के नाम से पुकारा गया था। किन्तु, मूल रूप से वह हिंदी ही थी। यह भी उल्लेखनीय है कि देश के ज़्यादातर मुस्लिम और सूफ़ी कवियों की मूल भाषा हिंदी थी। इनमें अमीर खुसरो का नाम सर्वोपरि है। चूँकि वे कविगण राजदरबारों के राजकवि हुआ करते थे, इसलिए राजकर्मियों और उच्च पदाधिकारियों में हिंदी एक बहुप्रचलित भाषा रही होगी जिसे वे अरबी, फ़ारसी, उर्दू, संस्कृत आदि जैसी भाषाओं से बेहतर बोलते-समझते रहे होंगे। वे हिंदी में न केवल वार्तालाप किया करते थे अपितु राजकाज भी करते थे। ख़ुद अँग्रेज़ों ने इसे व्यावहारिक तौर पर राजकीय प्रयोजनों की भाषा मान ली थी। क्योंकि अंग्रेज़ी माध्यम से अधिसंख्य निरक्षर भारतीयों पर शासन करने में उन्हें बड़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा था। अंग्रेज़ी तो उनकी फ़ाइलों तक ही सिमटी हुई थी। राजस्व, कर और विभिन्न प्रकार के शुल्क वसूलने के लिए उन्हें जन-सामान्य के संपर्क में आना पड़ता था और इसके लिए टूटी-फूटी हिंदी का सहारा लेना उनकी मजबूरी थी।
भारत की सांस्कृतिक समन्वयन-क्षमता की भाँति हिंदी का लचीलापन और समावेशी स्वभाव:
सामंजस्य और समानता स्थापित करने की अपनी विलक्षण गुणधर्मिता के कारण, हिंदी सारे भेद मिटाकर अपनी मोहक सुगंध चतुर्दिक विस्तारित कर रही है और लोगों के मन में अपनी पूर्ण क्षमता से ज्ञान-विज्ञान का उजास भरती जा रही है। इसकी इसी गुणधर्मिता के कारण विद्वानों ने इसे देश के प्रत्येक भू-भाग के लिए उपयुक्त बताया है। डॉ. श्याम सिंह शशि ने इसके इसी गुण के कारण उल्लेख किया है कि:
“हिंदी हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक व्यवहार में आने वाली भाषा है।”5
डॉ. श्याम सिंह शशि के इस वक्तव्य से स्वतः स्पष्ट है कि हिंदी अपने लचीलेपन के कारण ही देश के सभी भागों में स्वीकृति प्राप्त कर रही है। चूँकि यह हमारी समावेशी और सामासिक संस्कृति को व्याख्यायित करने वाली भाषा है, इसलिए इसका किसी संस्कृति और भाषा के प्रति कोई भेदभाव नहीं है। इतना ही नहीं, अपनी प्रति-भाषा अंग्रेज़ी के विरुद्ध भी इसका कोई दुराव नहीं है। इसने तो अंग्रेज़ी के हज़ारों शब्दों को अपने स्वभाव के अनुरूप ढाला है। अनेकानेक हिंदीभाषियों ने अपनी बोलचाल में अंग्रेज़ियत अर्थात् अंग्रेज़ी के लोच और शैली को अपनाते हुए एक नई हिंदी शैली अर्थात् ‘हिंग्लिश’ का ईजाद किया है। नई पीढ़ी के युवा बहुतायत में हिंग्लिश का प्रयोग कर रहे हैं। रेडियो और दूरदर्शन पर हिंग्लिश का प्रयोग बेझिझक किया जा रहा है। मेरा मानना है कि हिंग्लिश के कारण हिंदी भाषा का भविष्य उज्ज्वल होगा। कोई भी भाषा हमेशा परिवर्तनशील रहती है और इस सम्बन्ध में जहाँ तक हिंदी का सम्बन्ध है, वह अपनी मूल प्रवृत्ति से विलग नहीं होगी क्योंकि इसकी विरासत अत्यंत प्राचीन और सुदृढ़ है।
हिंदी के प्रति आरंभ से ही अपनाया जाने वाला नकारात्मक दृष्टिकोण
एक बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि सभी वर्ग के हिंदुस्तानियों की हिंदी के प्रति नकारात्मक धारणा रही है। एक समय था जबकि यह सर्वजन चिंतनीय और चिंताजनक मुद्दा था कि क्या हिंदी उत्तर भारत के चुनिंदा प्रांतों की सरहदें लाँघकर सुदूर दक्षिण, पूर्व, मध्य और अति दूरस्थ उत्तर के हिन्दीतर प्रदेशों में अपनी स्वीकार्यता स्थापित कर पाएगी। विगत में, कुछ विद्वानों का भी यही मत रहा है कि हिंदी आशाजनक रूप से कभी फल-फूल नहीं पाएगी। इसी सम्बन्ध में, सुषम बेदी का दृष्टिकोण विशेष उल्लेखनीय है:
“ . . . यह एक मिथक है कि हिंदी विश्वभाषा है। यह नहीं कह रही कि उसमें विश्वभाषा बनने की सम्भावना या सामर्थ्य नहीं है पर जिस भाषा को राष्ट्रभाषा कहकर भी अपने राष्ट्र में पूरी जगह नहीं मिली वह विश्व में क्या जगह बनाएगी?”6
बिलाशक, वर्तमान के प्रत्यक्ष प्रमाण के परिप्रेक्ष्य में, सुषम बेदी का ऐसा आकलन समर्थनीय नहीं हो सकता क्योंकि जिस द्रुत गति से तथा अकल्पनीय रूप से विश्व–आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रौद्योगिक, वैज्ञानिक आदि क्षेत्रों में सरपट दौड़ रहा है, कोई ८० करोड़ की विश्वव्यापी हिंदीप्रेमी जनता इन सभी क्षेत्रों में सबके साथ क़दम से क़दम मिलकर आगे बढ़ती जाएगी और उसके जज़्बे के बलबूते पर, हिंदी भारत के ही हिन्दीतर भूभागों में ही नहीं, अपितु विश्व के समस्त ग़ैर-हिंदीभाषी देशों में भी दबदबा क़ायम करेगी। ऐसा होने के विशेष कारण पर श्रुति का दृष्टिकोण ध्यातव्य है:
“वर्तमान में राजनीति, संस्कृति, अर्थव्यवस्था, साहित्य, स्वास्थ्य, रक्षा, शिक्षा, प्रौद्योगिकी और सामाजिक प्रगति अपने पारस्परिक सूचना-सम्बन्धों के कारण एक-दूसरे पर इतने अधिक निर्भर हो गए हैं, जितने पहले कभी नहीं थे और इसके कारण बने ‘जन-संचार माध्यम‘।”7
बहरहाल, बीते कुछ दशकों के हिंदी के दुरावस्था-काल में डॉ. राजमणि शर्मा ने केवल अपनी आश्वस्ति और आत्मसंतोष के लिए एक धुँधलकी आशा से यह क़यास लगाया था कि “हिन्दी किसी प्रान्त-विशेष की भाषा नहीं, बल्कि सारे देश की भाषा हो सकती है,”8 तो उस “हो सकती है” के संशय को आज हिंदी पूर्ण रूप से मिटाने को तत्पर है। बेशक, कुछ दशकों पहले तक विशेषकर हिन्दीतर क्षेत्रों में हिंदी की अल्प-व्यवहार्यता पर हम घड़ों आँसू बहाते थे। यदि हम ग़लती से किसी ज़रूरी काम-काज से दक्षिण भारत में चले जाते थे तो वहाँ अपनी मामूली आवश्यकताओं के लिए भी अंग्रेज़ी ज़बान का प्रयोग करना पड़ता था। यदि किसी पिछड़े क्षेत्र में, किसी गाँव में चले जाते थे तो फिर तो समझ लीजिए कि हमें भूखा-प्यासा ही रहना पड़ता था क्योंकि वहाँ विचारों के आदान-प्रदान के लिए अथवा अपनी किसी भी इच्छा की आपूर्ति के लिए हिंदी के माध्यम से संपर्क स्थापित नहीं किया जा सकता था; वहाँ तो हिंदी का दूर-दूर तक नामो-निशान तक नहीं होता था; न कोई अंग्रेज़ी समझने वाला होता था न हमारी इशारों वाली सांकेतिक भाषा पर ही अनुकूल प्रतिक्रिया करने वाला। कोई दो दशकों पहले की स्थिति पर प्रवासी लेखिका दिव्या माथुर की टिप्पणी भी ग़ौरतलब है:
“वैम्बली में आप . . . किसी दुकानदार से किसी भाषा में प्रश्न कीजिए, उत्तर आपको गुजराती में ही मिलेगा। यहाँ तक कि अब अन्य भाषा-भाषी और तो और अँग्रेज़ भी, गुजराती में रोज़मर्रा की बातचीत कर सकते हैं, मिसाल के तौर पर, केम छो, सारूं छूँ, केटला माटे इत्यादि। वैसे ही आप साऊथ हाल चले जाएँ, सब लोग पंजाबी में बोलते नज़र आएँगे – ससरियाकल, किद्दां, किन्ने दी, कित्थे। यहाँ तो स्टेशनों के नाम तक गुरुमुखी में लिखे हैं और अन्य सामान्य जानकारी भी गुरुमुखी में उपलब्ध हैं।”9
हिंदी के अनेक लब्ध-प्रतिष्ठ साहित्यकार भी हिंदी के बारे में नकारात्मक दृष्टिकोण ही रखते थे। उल्लेखनीय है कि ऐसे अधिकतर विद्वान हिंदीभाषी प्रदेशों के रहे हैं। कथाकार निर्मल वर्मा भी हिंदी के प्रति निराशाजनक नज़रिया रखते थे; उनके ही शब्दों में उनके विचार यहाँ दृष्टव्य हैं:
“जो भाषा एक समय में भारत की स्वाधीन चेतना का प्रतिनिधित्व करती थी, स्वतंत्रता के पचास वर्षों बाद, वह अपने को गहरी हीन भावना से ग्रस्त उपेक्षित स्थिति में पाती है।”10
अर्थात्, उस दौर में हिंदी की स्थिति प्रांतीय भाषाओं से भी ज़्यादा बदतर और निराशाजनक थी। दरअसल, क्षेत्रवाद के चलते तो भाषा के आधार पर प्रांतों का भी सृजन-गठन हुआ था, जिस कारण प्रदेशवासी अपनी प्रांतीय भाषा से लगाव तो रखते थे परन्तु हिंदी के प्रति गहरा विद्वेष रखते थे। हिंदी की इस दुरावस्था के सम्बन्ध में न केवल भारत में चर्चा होती थी, वरन् विदेशों में भी हिंदी का जी-भर कर मख़ौल उड़ाया जाता था।
पं. राम विलास शर्मा समेत कई सहित्यकारों का हिंदी को अपनाए जाने के बारे में स्पष्ट विचारधारा नहीं थी। स्वयं राम विलास शर्मा देश में हिंदी जैसी एक ही भाषा को लोगों की दिन-प्रतिदिन की व्यवहार्य भाषा बनाए जाने के पक्षधर नहीं थे। वे मानते थे कि हिंदी के अतिरिक्त तमिल, मराठी और बांग्ला को भी जन-व्यवहार्य की भाषा बनाया जाए। बहरहाल, इन चार भाषाओं को राजभाषा के रूप में अंगीकार किए जाने के सम्बन्ध में उनका मंतव्य यहाँ उल्लेख्य है:
“चार भाषाएँ समान रूप से . . . इस्तेमाल की जाएँ तो किसी को यह शिक़ायत न हो कि हिंदी की राजभाषा बनने से हिंदी वालों को विशेष लाभ होगा और दूसरे पीछे रह जाएँगे।”11
किन्तु, चुनिंदा राष्ट्रवादी साहित्यकार ऐसी बातों से इत्तिफ़ाक़ नहीं रखना चाहते। रामधारी सिंह दिनकर उन्हीं में से एक हैं; उनका विचार सराहनीय है:
“ . . . सांस्कृतिक ग़ुलामी का . . . सबसे भयानक रूप वह होता है जब कोई जाति अपनी भाषा को छोड़कर दूसरों की भाषा अपना लेती है और उसी में तुतलाने को अपना गौरव मानती है। यह ग़ुलामी की पराकाष्ठा है क्योंकि जो जाति अपनी भाषा में नहीं सोचती, अपनी भाषा में अपना साहित्य नहीं लिखती, अपनी भाषा में अपना दैनिक कार्य संपादित नहीं करती, वह परंपरा से छूट जाती है, अपने व्यक्तित्त्व को खो बैठती है और उसके स्वाभिमान का प्रचंड विनाश हो जाता है।”12
चुनांचे, हिंदी का वह दुर्भाग्यकाल तिरोहित हो रहा है। इस महा-उपभोक्तावादी दौर में हम अपनी आवश्यकताओं तथा उनकी आपूर्ति के लिए अपने संप्रेषण माध्यम को और अधिक विस्तार दे रहे हैं, सुदृढ़ बना रहे हैं, जिसका आधार अवश्यंभावी रूप से हमारी ज़बान हिंदी ही है। आज इस देश में यह बात सर्वविदित है कि अंग्रेज़ी के फैले कँटीले संजाल-तंत्र से बड़ी संख्या में लोग ऊबते नज़र आ रहे हैं। विदेशी विद्वानों का तो यहाँ तक मानना सही लगता है कि संस्कृत की बेटी हिंदी को विज्ञान की भाषा बनाने में क्या दिक़्क़त है, जबकि अंग्रेज़ी अपवादों की ही भाषा है।
हिंदीतर क्षेत्रों के लिए हिंदी संपर्क भाषा के रूप में:
जब हम किसी देश के सम्बन्ध में संपर्क भाषा की बात करते हैं तो हमें यह भी पता है कि संपर्क भाषा का प्रयोग उस देश के किसी ऐसे क्षेत्र में किया जाता है जहाँ (देश की) प्रचलित भाषा के बजाए किसी भिन्न भाषा अथवा बोली का प्रयोग किया जाता है।
यह आश्चर्यजनक बात है कि प्राकृतिक और भौगोलिक कारकों के बजाए भाषाओं के आधार पर ही यहाँ अधिकतर राज्यों का सीमांकन हुआ है। यहाँ तक कि राज्यों के नाम भी भाषाओं के अनुसार रखे गए हैं। इस तरह यह प्रमाणित होता है कि इस देश की क्षेत्रीय भाषाएँ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इन भाषाई सीमांकनों को चुनौती भी नहीं दी जा सकती है। लिहाज़ा, भाषाई बाधाएँ कभी-कभी इतनी असमाधेय सी रही हैं कि हम हिंदी के लिए कुछ सार्थक करने के लिए किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो जाते रहे हैं। प्रायः दूसरे प्रांतों में जाकर हमें अपनी आवश्यकताएँ इशारों में बतानी पड़ती हैं। यदि यह कहा जाए कि हम वहाँ अंग्रेज़ी के माध्यम से काम चला सकते हैं तो यह भी असंभव है और ऐसा कभी-कभी हास्यास्पद-सा लगता है क्योंकि गाँवों और दूर-दराज़ की अधिकांश जनता तो अभी भी अंगूठा-छाप है। ऐसे में, उनसे अंग्रेज़ी में संपर्क स्थापित करना तो बिल्कुल उनसे पहेली बुझाने जैसा है। इसलिए भारत में एक सहज और सुग्राह्य संपर्क भाषा का होना अति आवश्यक है जिसके माध्यम से हिंदीतर क्षेत्रों के निवासियों से संपर्क साधा जा सके और इस भूमिका में तो हिंदी बेहतर अगुवाई कर सकती है और कर रही है। हिंदी के ज़रिए हिंदीतर जनों से संपर्क स्थापित करने के लिए वैचारिक मंथन बहुत पहले से ही किया जाता रहा है। इस दिशा में, अग्रणी भूमिका निभाने वाले महाराष्ट्र के काका कालेलकर ने हिंदी में संपर्क भाषा के सभी गुण देखे थे। उन्होंने तर्क देते हुए कहा था:
“हम हिंदी का ही माध्यम पसंद करते हैं। इसके कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि यह माध्यम स्वदेशी है। करोड़ों भारतवासियों की जनभाषा हिंदी ही है। दूसरा कारण यह है कि सब प्रांतों के संत कवियों ने सदियों से हिंदी को अपनाया है। यात्रा के लिए जब लोग जाते हैं तो हिंदी का ही सहारा लेते हैं। परदेशी लोग जब भारत भ्रमण करते हैं तब उन्होंने देख लिया कि हिंदी के ही सहारे वे इस देश को पहचान सकते हैं। असल में तो हिंदी भाषा है ही लचीली, तन्दुरुस्त बच्चे की तरह बढ़ने वाली और इसकी सर्व संग्राहक शक्ति तथा समन्वय शक्ति भी असीम है . . .”13
सामान्यतया, किसी भाषा का मूल प्रयोजन किसी अभिकरण अथवा व्यक्ति के साथ सहजता से संपर्क स्थापित करना है—चाहे वह सोशल मीडिया और पत्राचार के माध्यम से हो या प्रत्यक्ष वार्तालाप के माध्यम से। इस प्रयोजन को पूरा करने वाली भाषा ही संपर्क भाषा बन सकती है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संपर्क भाषा को मनुष्य के स्वभाव के अनुसार उसकी आवश्यकताओं की आपूर्ति में सहायक होना चाहिए। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से संपर्क भाषा में निम्नलिखित गुण होने ही चाहिएँ:
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उसका व्याकरण और वाक्य-संरचना जटिल न हो;
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उसकी शब्दावलियाँ इतनी आसान और उच्चारण में सहज हों कि उन्हें केवल सुनकर कंठस्थ किया जा सके;
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उसे विभिन्न सांस्कृतिक, व्यावसायिक, राजनीतिक आदि परिवेश में क्रिया-व्यापार के अनुकूल ढाला जा सके;
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उसमें अन्य भाषाओं के सहज शब्दों को अपनाने की स्वाभाविक क्षमता हो;
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वह अपने-आप लोगों के बीच लोकप्रिय हो सके;
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भारत जैसे बहु-भाषी देश में वह विभिन्न तबक़ों के लोगों द्वारा निःसंकोच रूप से स्वीकार्यता प्राप्त कर सके;
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संपर्क भाषा बोलने और सुनने में आत्मीय और प्रिय हो; तथा
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इसके माध्यम से संक्षेप में संप्रेषण किया जा सके।
अंग्रेज़ी को विश्वभर में संपर्क भाषा के तौर पर अपनाया जाता रहा है। एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि संपर्क भाषा आम आदमी के बीच पहुँच कर अपना विस्तार स्वयं करती है। फ़्राँस की कबीलाई भाषा इंग्लिश (अंग्रेज़ी) इंग्लैंड में अपने-आप फैलती गई क्योंकि उसमें अल्पाधिक रूप से संपर्क भाषा के रूप में सफल होने के लिए उपर्युक्त गुण अंतर्भूत हैं। आज अंग्रेज़ी को महिमामंडित करने वाले अफ़वाहों की स्थिति चाहे जो भी हो, यह विश्व की संपर्क भाषा के रूप में अपनी पहचान बना चुकी है, भले ही भारत जैसे देश में उसकी सर्वग्राह्यता स्पष्ट न हो। किन्तु, जहाँ तक भारत में हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने का प्रश्न है, इसका कमोवेश विस्तार स्वाभाविक रूप से पूरे देश में होने के बावजूद जब इसे संपर्क भाषा के रूप में लाने की बात कही जाती है तो इस कार्रवाई को भाषा लादने की संज्ञा दी जाती है। यह स्थिति अत्यंत हास्यास्पद और विरोधाभासपूर्ण है।
यह बात सही नहीं है कि हिंदी में सार्वभौमिकता के गुण नहीं हैं या इसमें सहज संप्रेषणीयता नहीं है। बल्कि यह तो पहले से ही जनमानस में अपनी पैठ बनाए हुए है। या, यों कहा जाना चाहिए कि इसमें यह गुण अंग्रेज़ी से कहीं ज़्यादा है। जहाँ तक हिंदी के स्वरूप का सम्बन्ध है, यह अत्यंत लचीली है–व्याकरण और सरल शब्दावलियों की दृष्टि से भी बहुत जटिल नहीं है। यह सुनने में कर्णप्रिय है क्योंकि इसमें सरल लोक जीवन का संपुट है; यह एक महान संस्कृति की संवाहक है। ऐसा प्रतिपदित करना समर्थनीय होगा कि यह देश की अन्य भाषाओं तथा बोलियों की शब्दावलियाँ अपनाकर सभी राज्यों में अपने-आप लोकप्रिय होती जा रही है। यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह केवल साहित्य की ही बहु-प्रयुक्त भाषा न होकर धर्म, दर्शन, राजनीति, व्यवसाय, विज्ञान, कंप्यूटर, प्रौद्योगिकी आदि में भी लोकप्रिय होती जा रही है। विज्ञापनों आदि में इसे प्राथमिकता दिए जाने से यह स्वत:सिद्ध हो चुका है कि बड़ी संख्या में देशवासी इन विज्ञापनों को पढ़कर उपभोक्ता, क्रेता और विक्रेता बन रहे हैं। इस बात से उपभोज्य वस्तुओं की विनिर्माण कंपनियाँ भली-भाँति अवगत है कि हिंदी विज्ञापनों के ज़रिये अधिकाधिक लोगों को लुभाया जा सकता है क्योंकि देश के सभी भागों में लोग इसे समझते हैं, इसका प्रयोग करते हैं। सूचना माध्यमों में इसका प्रयोग धड़ल्ले से हो रहा है। ध्यातव्य है कि दूरदर्शन के जिन बेशुमार चैनलों पर अंग्रेज़ी के स्थान पर हिंदी के सीरियल, विज्ञापन, विदेशी फ़िल्मों की हिंदी में रूपांतरित फ़िल्में आदि प्रसारित की जा रही हैं, उनकी चतुर्दिक लोकप्रियता बढ़ती ही जा रही है। पाकिस्तान, रूस, ईरान, ईराक़, नेपाल, थाईलैंड, म्यांमार, बांग्लादेश और यहाँ तक कि सुदूर चीन, जापान और कोरिया में न केवल हिंदी फ़िल्में देखने का चाव बढ़ता जा रहा है बल्कि उन फ़िल्मों में पात्रों द्वारा प्रयुक्त जुमलों और चुटीले संवाद-अंशों को बात-बात में सुनाने का रिवाज़ भी ज़ोर पकड़ता जा रहा है। यूरोपीय और अमरीकी देश भी इसके अपवाद नहीं हैं। बंबई के दलाल स्ट्रीट पर तथा देश के शेयर बाज़ारों में हिंदी का प्रयोग तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। जहाँ इन स्थानों पर पहले केवल अंग्रेज़ी में ही वार्तालाप हुआ करता था, आज अंग्रेज़ी-मिश्रित हिंदी के प्रयोग का फ़ैशन भी बढ़़ता जा रहा है और इस तरह प्रयोग की जा रही भाषा को हिंगलिश की संज्ञा दी जा रही है। हिंदुस्तान के सभी हिंदीतर क्षेत्र भी हिंदी की ऐसी बरसात में भींगते हुए हिंदीमय होते जा रहे हैं।
प्रकारांतर से, हिंदी का मनोविज्ञान कुछ ऐसा है कि इसमें स्पंज जैसी गुणधर्मिता है। स्पंज स्वयं में किसी भी प्रकार के तरल को अवशोषित कर लेता है। ऐसा तब होता है जबकि स्पंज को दबाकर तरल में डुबोया जाता है। स्पंज को दबाते समय इसका आकार-प्रकार बदल जाता है; लेकिन, जब स्पंज को तरल में छोड़ा जाता है तो यह अपने मूल स्वाभाविक रूप में आ जाता है। स्वाभाविक रूप में आने के बाद, इसका आयतन भले ही न बदले यह पहले की अपेक्षा भारी हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यह स्वयं में काफ़ी मात्रा में तरल पदार्थ अवशोषित किए रहता है। हिंदी में भी यही विलक्षणता दृष्टिगोचर होती है। इसके चलते यह वज़नी और भावप्रवण भाषा बनती जा रही है। जहाँ तक विदेशी भाषाओं को अवशोषित करने का सम्बन्ध है, इसके सान्निध्य में अंग्रेज़ी की उपस्थिति के कारण यह स्वयं में अंग्रेज़ी की शब्दावलियों को अपने स्वभावानुसार समेट और ढाल रही है। परन्तु, इससे इसका मौलिक स्वरूप बिल्कुल प्रभावित नहीं हो रहा है। अंग्रेज़ी के असंख्य शब्द आज की आम बोलचाल में शामिल हो चुकी हैं। ट्रेन, कप, रेल, रोड, बस, कार, मोटर साइकिल, बोतल (बॅाटल), पैकेट, पॅाकेट, पेन, कॅापी, इंटरव्यू, स्कूल, कॅालेज, रिहर्सल, लैंप, हार्टअटैक, बल्ब, शर्ट, पैंट, टाई, कोट, गेट, लेटर, पेपर, आल्मारी (अलमिरा), दराज़ (ड्राअर) जैसे अंग्रेज़ी से आयातित शब्द तथा सोशल मीडिया पर प्रयोग किए जा रहे हज़ारों अंग्रेज़ी के शब्द हिंदी की बोलचाल में भारतीयों की ज़बान पर इस तरह चढ़ चुके हैं कि इन्हें किसी भी कोण से हिंदीतर नहीं कहा जा सकता। बल्कि, यह कहना अधिक उचित होगा कि इन शब्दों के बग़ैर बहुसंख्यक हिंदीभाषियों का काम नहीं चल सकता। वे अपना विचार-विनिमय ही नहीं कर सकते। हिंदी में ढ़ले हुए ये अंग्रेज़ी शब्द हिंदीभाषी और हिंदीतर क्षेत्रों में अधिक लोकप्रिय और ग्राह्य हैं। इस तरह, गढे गए हिंदी के शब्दों से हिंदी का कोई नुक़्सान नहीं है; बजाय इसके हिंदी के शब्दों का भंड़ार बढ़ता जाएगा। लिहाज़ा, यदि इन शब्दों का प्रयोग करने वाले भारतीयों से पूछा जाए कि ये शब्द किस भाषा के हैं तो पढ़ा-लिखा आदमी भले ही यह कहे कि ये अंग्रेज़ी के शब्द हैं जिन्हें हिंदी में अपना लिया गया है, कोई देहाती व्यक्ति तो यही कहेगा कि ये शब्द वाक़ई हिंदी के हैं। इस पर, यदि आप उस देहाती आदमी को यह बताएँ कि वह अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग कर रहा है तो वह आपको अचरज से देखते हुए मूढ़ समझेगा।
संपर्क भाषा के वांछित गुण धारण करने वाली हिंदी के मद्देनज़र, आज यह मुद्दा चर्चा का केंद्र नहीं रहा कि हिंदी पतनोन्मुख है या यह आने वाले समय में और पिछड़ती जाएगी। अब यदि यह कहा जाए कि हिंदी, अपनी प्रतिद्वंद्वी भाषा अंग्रेज़ी के वर्चस्व को धूल-धूसरित करते हुए देश के हिंदीतर क्षेत्रों की संपर्क भाषा बनने की ओर तेज़ी से अग्रसर हो रही है तो यह बात भी अतिरंजित न होगी। अब देश के किसी भी हिन्दीतर या आदिवासी अथवा अगम्य क्षेत्र में चले जाइए; आप अपनी इच्छाओं, भावनाओं और विचारों का आदान-प्रदान हिंदी ज़बान में भली-भाँति कर पाएँगे। आज के इस परिवेश में अब यह बात विचारणीय नहीं रही कि हिंदी सिर्फ़ ‘क’ क्षेत्र की या हद से हद ‘ख’ क्षेत्र की भाषा बनकर, बेहद संकुचित रह गई है। ऐसा तो अब बिल्कुल नहीं है। अब हिंदी उस पंछी की भाँति उड़न-क्षमता से अति समर्थ बन चुकी है जो अपने पंख फैलाकर किसी भी दिशा में कितनी भी दूर, किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में उड़ते हुए कलाबाज़ियाँ मार सकती है, अपनी जलवे बिखेर सकती है।
दक्षिण में हिंदीद्रोह के पिछले दृष्टांत का उल्लेख समीचीन होगा
यद्यपि दक्षिण भारत में कोई डेढ़ दशक पहले तक जो हिंदी-द्रोह देखने में आ रहा था, उसका कारण सिर्फ़ सियासी और क्षेत्रवाद था। हिंदी प्रेमियों को अच्छी तरह पता होगा कि वर्ष २००८ के सितंबर माह में दक्षिण और मध्य भारत में हिंदी के ख़िलाफ़ जो सियासी तूफ़ान चलाया गया था, उससे समूचा हिंदुस्तान शर्मसार हो गया था। यह घटना महाराष्ट्र राज्य की है। जिस हिंदी के बदौलत पूरे महाराष्ट्र राज्य को रोज़ी-रोटी मिली हुई है, जिस हिंदी के खाद-पानी से महाराष्ट्र का फ़िल्म उद्योग फल-फूल रहा है, जो हिंदी महाराष्ट्रियों की ज़बान पर बैठी रहती है, उस हिंदी का वहाँ बारंबार अपमान किया गया है और वह भी सियासी दांव-पेंच और द्वंद्व के तहत–हाँ, सिर्फ़ जम्हूरियाई समर्थन प्राप्त करने के लिए, अपने राज्य महाराष्ट्र की जनता को भाषा के नाम पर बहकाने-फुसलाने के लिए, जबकि इस भाषाई संघर्ष में ऐसा बार-बार सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि वास्तव में महाराष्ट्र हिंदुस्तान का ही कोई प्रदेश है या कोई अलग सार्वभौमिक, संप्रभुता-संपन्न राष्ट्र। बेशक, म्लेच्छ सियासतदार किसी भी निरीह भाषा को अपमानित करने का एक मुद्दा बनाकर राष्ट्र तोड़ने का कुत्सित खेल खेलते रहे हैं। उन्हें तो भोगने के लिए बस! सत्ता-सुख चाहिए जिसके आगे भाषा-प्रेम और संस्कृति-प्रेम कोई मायने नहीं रखता। यह कितना बड़ा मज़ाक़ है कि उत्तर प्रदेश के शुद्ध हिंदी-भाषी को महाराष्ट्र में ‘यू पी के भइया’ और बंगाल में ‘हिंदुस्तानी’ कहकर अपमानित किया जाता है! यह अपमान उन उत्तरप्रदेशियों का नहीं है जो उक्त राज्यों का भ्रमण करने जाते हैं, अपितु हिंदी का है जिसे बोलकर वे उपेक्षा के शिकार बनते हैं।
14-18 सितंबर, 1999 में लंदन में आयोजित छठे विश्व हिंदी सम्मेलन में हुए विचार-विमर्श का लब्बो-लुबाब यह था कि हिंदी भारत के हिंदीभाषी माने जाने वाले ‘क’ क्षेत्रों में अर्थात् अपनी जन्म-भूमि में ही मात खा रही है। सम्मलेन में अमरीका, जर्मनी, नार्वे, फ़्राँस, रूस, सूरीनाम, त्रिनिदाद, इटली, फिजी, मॉरीशस, हंगरी, नेपाल आदि के सत्तर हिंदी प्रेमियों ने इस सत्य को बार-बार रेखांकित किया था कि भारत में अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है और हिंदी दलित एवं उपेक्षित होती जा रही है। वहाँ उपस्थित मॉरीशस के प्रतिष्ठित लेखक श्री सत्यदेव टेंगर ने बड़े ही व्यंग्यात्मक लहजे में तंज़ कसा था: “आपलोग भारत में राष्ट्रभाषा की चिंता कीजिए, विश्वभाषा बनाने की ज़िम्मेदारी हम पर छोड़ दीजिए।”14 अर्थात् हिन्दी भले ही विश्व की भाषा बन जाए, भारत की भाषा नहीं बन पाएगी और टेंगर महोदय की यह टिप्पणी कि ‘विश्वभाषा बनाने की ज़िम्मेदारी हम पर छोड़ दीजिए‘, अक्षरशः सही साबित हो रही है जबकि ‘भारत में राष्ट्रभाषा की चिंता कीजिए’ वाली टिप्पणी ग़लत साबित हो रही है। निःसंदेह, कोई ढाई दशक पहले तक विशेषतया हिन्दीतर प्रांतों में हिंदी की ऐसी ही दुरावस्था थी जबकि देश की ८० फ़ीसदी जनसंख्या क्षेत्रीय/प्रांतीय भाषाओं से ही प्रेम करती थी और हिंदी के प्रति कटु द्वेष रखती थी। यह द्वेष कभी भी हिंसात्मक प्रतिरोध में तब्दील भी हो जाता था। पर, आज स्थिति में चमत्कारिक बदलाव आया है।
लिहाजा, ऐसी प्रकीर्ण घटनाएँ, जो अधिकांशतः राजनीति-प्रेरित हैं, आए-दिन घटित होती रहती हैं जबकि उत्तर-पूर्व एवं दक्षिण-पश्चिम के कतिपय राज्यों में उत्तर भारतीय हिंदीभाषियों की उपेक्षा राजनीतिक रणनीति और साज़िश के तहत की जाती है। इस उपेक्षात्मक कार्रवाई का हिंसात्मक रूप लेना इस बात का पक्का सबूत है - इसमें राजनीति का सीधा दख़ल। पश्चिम बंगाल और महाराष्ट्र तथा उसके बाद दक्षिण में हिंदी के ख़िलाफ़ बग़ावत का माहौल देखा गया है। किंतु, इन छिटपुट घटनाओं से हिंदी के प्रति बढ़ते राष्ट्रीय प्रेम में लेशमात्र भी कमी नहीं आई है। दरअसल, यहाँ भाषागत विरोध तो राजनीतिक दिखावा है जो क्षेत्रवाद के मुखौटे की भाँति कार्य करता है। सच्चाई यह है कि जिन राज्यों में ऐसे विद्रोह उभरते दिखाई देते हैं, वे दीर्घकाल से राजनीति-पोषित क्षेत्रवाद से उद्भूत है। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के राष्ट्रपतित्त्व काल में भी जो हिंदी-विरोधी दक्षिणी हवा बही थी, उस पर राजनीति-प्रेरित क्षेत्रवाद के तूफ़ान का ही बलाघात लगा था।
दक्षिण भारत के विश्वविद्यालयों में हिंदी सीखने वाले छात्र-छात्राओं की भीड़ में बेतहाशा बरकत हो रही है। इतना ही नहीं, उनकी भीड़ हिंदी प्रदेशों में स्थित शिक्षण संस्थाओं में भी उमड़ रही है। उनसे बातचीत करने पर पता चलता है कि वे हिंदी को आत्मा से ग्रहण करने के लिए आतुर हैं। महज नौकरियों के लिए ही वे हिंदी सीखना नहीं चाहते; बल्कि, हिंदी भाषा और इसके विश्वजनीन साहित्य के प्रति उनकी जिज्ञासा बढ़ती जा रही है। यहाँ यह उल्लेख करते हुए बड़ा अफ़सोस हो रहा है कि जबकि दक्षिण भारतीय हिंदी की ओर अपना रुझान दिखा रहे हैं, दक्षिण की भाषाओं का अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा है। ऐसा क्यों है कि वे सिमटती-सी लग रही हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदी प्रदेश के लोग दक्षिण की भाषाओं को सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते जबकि दक्षिण भारतीयों को विपुल संख्या में रोजगार के अवसर उत्तर भारत में ही उपलब्ध होते हैं। जब वे रोजी-रोटी के लिए उत्तर भारत में कदम रखते हैं तो उन्हें संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को अपनाना आवश्यक-सा लगने लगता है। यदि उनके इस रुझान को अनुकूल हवा दी जाए तो निश्चय ही उनमें हिंदी-स्वीकार्यता दर बढ़ेगी। इस परिप्रेक्ष्य में यदि यह कहा जाए कि राजभाषा के विकास में दक्षिण भारतीयों का हिंदी-विरोध ज़िम्मेदार है तो यह कतई लाज़मी नहीं लगता। डॉ. गार्गी का कहना है :
“. . . हिंदी को वास्तविक रूप में राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए दक्षिण भारतीयों के विरोध को बहाना न बनाया जाए क्योंकि दक्षिण भारत के आम लोगों में हिंदी के प्रति कोई विरोध नहीं है . . .”15
अर्थात् संपर्कभाषा के रूप में अंग्रेज़ी को ही प्राथमिकता देने वाले ज़्यादातर हिंदीभाषी क्षेत्रों के नौकरशाह हैं। उनका मनोविज्ञान अत्यंत आपत्तिजनक है। चूँकि वे अंग्रेज़ी का वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं, इसलिए वे ख़ुद को दक्षिण भारतीयों का हितैषी बताकर अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा बनाए रखने की हिमायत करने में कई कसर बाक़ी नहीं छोड़ते। वे अनुचित ढंग से दक्षिण भारतीयों का हमदर्द बनना चाहते हैं जबकि हालात बिल्कुल बदल चुके हैं। दक्षिण भारत में हिंदी को अपनाया जाने लगा है।
इस प्रकार वे परोक्षतः दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध में बयार बहाने की कुचेष्टा करते हैं। उनके इस घटिया मनोविज्ञान को गंभीरता से लेना चाहिए। कहना न होगा कि वे उन जनसेवकों को भी हिंदी के ख़िलाफ़ बरगलाते होंगे जो उच्च मंचों से अंग्रेज़ी को संपर्क भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए आवाज़ बुलंद करने में अपनी सारी हिक़मत लगाते हैं। मैंने व्यक्तिगत रूप से एक सर्वेक्षण किया है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षाओं में शामिल होने वाले लगभग अस्सी प्रतिशत अभ्यर्थी यह चाहते हैं कि इन परीक्षाओं का माध्यम हिंदी हो जबकि लगभग बीस प्रतिशत अभ्यर्थी ही अंग्रेज़ी को इनका माध्यम बने रहने का समर्थन करते हैं। जो परीक्षार्थी हिंदी माध्यम से ये परीक्षाएँ देना चाहते हैं, वे यह भी चाहते हैं कि उन्हें संविधान की आठवीं सूची में दर्ज़ प्रादेशिक भाषाओं में भी इन परीक्षाओं को शामिल होने का अधिकार प्राप्त हो। उनकी यह माँग बेशक ग़ैर-लाज़मी नहीं है। अगर इस देश में हिंदी को पहली प्राथमिकता दी जानी चाहिए तो प्रादेशिक भाषाओं को दूसरी तथा अंग्रेज़ी को आख़िरी प्राथमिकता दी जानी चाहिए। यदि अंग्रेज़ी को शिकस्त देने के लिए हिंदी के बजाए प्रादेशिक भाषाओं को प्रमुखता देनी पड़े तो भी यह बेजा नहीं होगा। मैं यहाँ बारबार बलपूर्वक कह देना चाहता हूँ कि मैं अंग्रेज़ी के विरुद्ध कोई जिहाद छेड़ना नहीं चाहता। भाषा-विरोध की मेरी कोई मंशा नहीं है। अंग्रेज़ी सम्मानजनक भाषा है और हमारे विश्वविद्यालयों में इसके अध्ययन को भरपूर बढ़ावा दिया जाना चाहिए। हमारे देश में इसके अकादमिक अध्ययन और शोध को इतना विस्तार दिया जाना चाहिए कि मूल रूप से अंग्रेज़ीभाषी देश भी हमसे ईर्ष्या करने लगें। दरअसल, यहाँ राष्ट्रीय अस्मिता और महत्त्व का सवाल है और इसके नाम पर मैं हिंदी को दाँव पर नहीं लगाना चाहता। यदि हमारे सरकारी कार्यालयों में अंग्रेज़ी को गौण स्थान दिया जाए अथवा बहुत अपरिहार्य होने पर किसी हिंदी पाठ का अंग्रेज़ी अनुवाद कराना ही पड़े तो मैं इसकी इजाज़त बड़े बेमन से दूँगा। मुझे तो इस बात से बड़ा क्लेश होता है कि जब हमारे कार्यालयों में अनुवादकों की भर्ती के लिए कोई विज्ञापन जारी किया जाता है तो उन्हें हिंदी अनुवादक क्यों कहा जाता है। उन्हें अंग्रेज़ी अनुवादक क्यों नहीं कहा जाता। उन्हें अंग्रेज़ी अनुवादक कहने के काफ़ी वजह हैं और इससे हिंदी का महत्त्व और बढ़ेगा। बहरहाल, मैं दावे के साथ कहता हूँ कि हमें ऐसा प्रयास सतत करना चाहिए कि हमें एक दिन अंग्रेज़ी अनुवादकों की भर्ती के लिए विज्ञापन जारी करना पड़े। वह दिन हमारी राजभाषा के भाग्योदय का स्वर्णिम दिन होगा जबकि हमारे अख़बारों के रोज़गार स्तंभों में हमारे हिंदी अनुभागों के लिए अंग्रेज़ी अनुवादकों की भर्ती हेतु विज्ञापन दिया जाएगा। ऐसा तब होगा जबकि सरकारी कार्यालयों में हिंदी का प्रयोग मूल रूप से करने की परंपरा जड़ पकड़ लेगी और किसी ख़ास वजह से अंग्रेज़ी रूपांतरण आवश्यक हो जाएगा। हमारी अविच्छिन्न रूप से निःस्वार्थ सेवा के बल-बूते पर ऐसा हो सकेगा। राष्ट्रभक्ति के नाम पर हमारी सांस्कृतिक संलग्नता के बदौलत ऐसा हो सकेगा।
हिंदीतर क्षेत्रों के हिंदी समर्थक
क. बंगाल का बुद्धिजीवी समाज और हिंदी:
सर्वप्रथम, ब्रह्मसमाज के सदस्यों और विशेषतया नवीनचंद्र राय, केशवचंद्र सेन, भूदेव मुखर्जी तथा राजनारायण बोस ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप स्थापित किए जाने पर बल दिया था। इन सभी बंगबंधुओं ने अपनी पुस्तकें हिंदी में प्रकाशित करनी शुरू कीं। यह कार्य उनके लिए अत्यंत चुनौतीपूर्ण था क्योंकि अँग्रेज़ मिशनरी यह सोचते थे कि वे उनके ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार में बाधा पहुँचा रहे हैं।
बंगाल के हिंदीप्रेमी मुंशी नवीन बाबू ने तो हिंदी के प्रसार के लिए भारत-भ्रमण का ही बीड़ा उठा लिया था। वे हिंदी का प्रचार करते हुए पहले पंजाब गए, फिर लाहौर। उन्होंने लाहौर से कुछ हिंदी-पत्रिकाएँ भी निकालीं। उनके अलावा, भूदेव मुखर्जी हिंदी के प्रबल प्रचारक बने तथा उन्होंने बिहार के शिक्षा आन्दोलन में हिंदी का पताका फहराते हुए इसकी वक़ालत राष्ट्र की संपर्क भाषा के रूप में की। गुजरात के महर्षि दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिंदी में ही की। उन्होंने अधिकतर अपने धर्मोपदेश हिंदी में ही दिए। उनके द्वारा प्रवर्तित ‘आर्यसमाज’ (1877) की संपर्क भाषा और इसकी सभाओं तथा अधिवेशनों की क्रियात्मक भाषा हिंदी ही थी। उनके योगदान के सम्बन्ध में रामगोपाल का कथन बेहद सटीक है:
“ . . . स्वामी दयानन्द ने . . . अपने हिंदीभाषी अनुयायियों को हिंदी का प्रयोग करने की प्रेरणा दी। उन्होंने हिंदी सीखी और केवल उसे ही अपने व्याख्यानों तथा लेखनी का माध्यम बनाया। . . .उनके धर्म-प्रचार से जो अधिक उत्तम चीज़ राष्ट्रीय जीवन को प्राप्त हुई, वह थी राष्ट्रभाषा का प्रचार।”16
वह दौर भारत का पुनर्जागरण काल था जबकि हिंदी को राष्ट्रीय विस्तार प्रदान करने के लिए बड़े उत्साह और उदारता के साथ राष्ट्रीय प्रतिबद्धता दर्शाई गई थी। इसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठापित करने के लिए निःस्वार्थ प्रयास किए गए थे। भाषण दिए गए थे। नारे बुलंद किए गए थे। यहाँ तक कि गैर-हिंदीभाषियों ने भी हिंदी को राष्ट्रीय मंच पर मुखर करने के लिए जनसामान्य को प्रोत्साहित किया। डॉ. विनोद कुमार सिन्हा ने गैर-हिंदीभाषियों की हिंदी के प्रति मोहग्रस्तता को बेशक़ीमती बताया है। वह कहते हैं:
“हिंदी की गरिमा को अहिंदी भाषियों ने बराबर स्वीकार किया, गुणगान किया, परन्तु आश्चर्य और दुःख तो यह जानकर होता है कि स्वयं हिंदी भाषियों ने ही उसकी अवमानना की, उसे शापित और अपमानित किया।”17
ऐसे महापुरुषों की एक लंबी फ़ेहरिस्त है। बल्कि, यूँ कहना होगा कि अहिंदीभाषी व्यक्तियों ने ही हिंदी के पक्ष में, हिंदी के लिए ज़्यादा वक़ालत की थी। इनमें राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, बंकिमचंद्र चटर्जी, रवीन्द्रनाथ टैगोर, रमेशचन्द्र दत्त, सुभाषचंद्र बोस, गुरुदास बनर्जी जैसी बंगलाभाषी शख़्सियतों ने हिंदी के माध्यम से समूचे राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधे जाने का आह्वान किया था। निःसंदेह, उनमें से कुछों के मन्तव्यों को सामने रखना भी समीचीन होगा। बंकिमचन्द्र चटर्जी ने तो यहाँ तक कहा था कि ‘भारतबंधु’ कहलाने का अधिकारी वही भारतीय होगा जो हिंदी के माध्यम से पूरे राष्ट्र को एकसूत्र में बाँधने का प्रयास करेगा। यह विशेष रूप से उल्लेख्य है कि पुनर्जागरण आन्दोलन के सूत्रधार, राजा राममोहन राय ने ‘बंगदूत’ (1826) नामक एक हिंदी साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन भी शुरू किया था। वह ज़्यादातर हिंदी में ही बोला और लिखा करते थे। उन्होंने ब्रह्मसमाज के सदस्यों के लिए हिंदी बोलना आवश्यक बताया था। फलस्वरूप, ब्रह्मसमाज का सारा कार्यकलाप हिंदी में ही होता था। इससे शिक्षा के क्षेत्र में अंग्रेज़ी माध्यम को बड़ा धक्का लगा क्योंकि पाठ्यक्रमों में हिंदी माध्यमों को प्राथमिकता मिलने लगी। बंगाल के नेता राजनारायण बोस ने हिंदू महासमिति के घोषणापत्र में यह उल्लेख किया था कि:
“भारतवर्ष के सभी स्थानों के सदस्यगण आपस में बोलचाल और पत्राचार में हिंदी का व्यवहार करें। समिति के सदस्य सब प्रकार से इसकी चेष्टा करेंगे। बंगाल या मद्रास आदि स्थानों को भी जहाँ कि भाषा हिंदी नहीं है, हिंदी सीख लेनी चाहिए . . . ”19
यह भी ध्यातव्य है कि रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, सुभाषचन्द्र बोस जैसे बंगाल के हिंदी-प्रेमियों को हिंदी में इतनी महारत हासिल थी कि वे अपने व्याख्यान बँगला के अतिरिक्त हिंदी में भी बड़ी दक्षतापूर्वक दे सकते थे। इतना ही नहीं, जब वे हिंदी कटिबंध में प्रवेश करते थे तो बांग्ला तो बहुत दूर, वे अंग्रेज़ी तक को दरकिनार कर हिंदी का प्रयोग बेझिझक करते थे। स्वामी विवेकानन्द ने तो काशी के मूर्धन्य शास्त्रकारों से कई शास्त्रार्थ साधारण हिंदी में करके उन्हें कई बार निरुत्तर और मूक बना दिया था। इसी प्रकार लोगों को पागल बना देने वाले ‘तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा’ जैसे नारे के प्रणेता नेताजी सुभाष हिंदी में अत्यंत भावुकतापूर्ण भाषण दिया करते थे। कहना नहीं होगा कि उन्हें हिंदी वक्तृत्त्व में कितनी दक्षता हासिल रही होगी! बेशक, बंगाली महापुरुषों ने हिंदी को ही प्रचारित-प्रसारित करने पर ज़ोर केवल इस तर्काधार पर दिया था कि इससे अँग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आज़ादी की लड़ाई को सफ़लतापूर्वक अंजाम दिया जा सकता है, क्योंकि देश की बहुसंख्य जनता हिंदी समझती-बोलती है। किन्तु, इसके पीछे उनके उदार दृष्टिकोण को नहीं नकारा जा सकता। वे निश्चित रूप से हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में महिमामंडित करना चाहते थे। वे हिंदी में विद्यमान विश्वजनीन तत्त्वों के क़ायल थे। इसमें संपृक्त लोकप्रिय भावनाओं के प्रशंसक थे।
ख. गुजरात और दक्षिण भारत के हिंदी समर्थक:
लगभग उसी दौर के गुजरात के विद्वानों ने भी हिंदी के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की थी। कन्हैयालाल देसाई, मगनभाई देसाई, काका कालेलकर, बाल गंगाधर तिलक, विनायक वैद्य, भांड़ारकर, अनन्तशयनम आयंगर, रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर, प्रो. नागप्पा, के0बी0 मानप्पा, महात्मा गाँधी आदि जैसे हिंदीतर विद्वानों ने मुक्तकंठ से हिंदी की राष्ट्रीय महत्ता को स्वीकार किया था। महात्मा गाँधी हिंदी को हर तरह से अंगीकृत करने की तरफ़दारी मुक्त कंठ से किया करते थे। उन्होंने 20 अप्रैल, 1935 को मध्य प्रदेश (इंदौर) में एक जनसभा में हिंदी की अहमियत को पूरी तबज़्ज़ो दी थी:
“हिंदुस्तान को अगर सचमुच एक राष्ट्र बनना है तो चाहे कोई माने या न माने–राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी दूसरी भाषा को कभी मिल नहीं सकता। हिंदू-मुसलमान दोनों को मिलाकर क़रीब 22 करोड़ मनुष्यों की भाषा, थोड़े-बहुत हेर-फेर से, हिंदी-हिंदुस्तानी है।”20
उन्होंने हिंदी में उन सभी गुणों के विद्यमान होने की चर्चा कई बार की थी जिनके बल-बूते पर हिंदी राष्ट्र का शिरमौर बन सकती थी। उनके अनुसार, हिंदी में वे सभी अनुकूल तत्त्व मौज़ूद हैं ताकि:
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उसे सरकारी कर्मचारी/अधिकारी आसानी से सीख सकें;
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वह समस्त भारत में सांस्कृतिक, आर्थिक (व्यापारिक) तथा राजनीतिक संपर्क के माध्यम के रूप में प्रयोग के लिए सक्षम हो;
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वह अधिकांश हिंदुस्तानियों द्वारा बोली जा सके;
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वह भाषा भारतीय परम्परा से घनिष्ठता से जुड़ी हो; और
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कभी ऐसी भाषा को चुनते समय आरज़ी या क्षणिक हितों पर ध्यान न दिया जाए।21
इतना ही नहीं, विदेशियों ने भी हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकृति दी थी। इनमें श्रीमती एनी बेसेंट सर्वप्रमुख हैं जो महात्मा गाँधी की प्रार्थना सभाओं में बढ़-चढ़कर शिरकत किया करती थीं और महात्मा के हिंदी उपदेशों को सुनकर मंत्रमुग्ध हो जाया करती थीं। डॉ. ज्ञानवती दरबार उनके योगदान पर प्रकाश ड़ालती हैं:
“सन 1918 से 1921 तक उन्होंने गाँधीजी के साथ दक्षिण में भ्रमण करके हिन्दी का प्रचार किया। वे इसे राष्ट्रनिर्माण का एक अंग मानती थीं। उन्होंने हिन्दी को सबसे प्रचलित एक भारतीय भाषा स्वीकार करते हुए उसे राष्ट्र की एकता का मुख्य साधन माना है।”22
हिंदीतर प्रदेशों में बीते हिंदी-विरोध के कारण:
यों तो आज़ादी के कोई तीन दशकों के बाद तक दक्षिण भारतीयों में हिंदी के प्रति अरुचि रही है और इसके कई मूलभूत कारण रहे हैं। इस सम्बन्ध में, मनोवैज्ञानिक तह तक जाते हुए कुछ वजहों पर नज़र ड़ालना उचित लगता है। ग़ौरतलब है कि दक्षिण भारतवासी लंबे समय से भारत के मुख्य हिंदीभाषी क्षेत्रों से कटे-कटे रहे हैं। इसका एक कारण यह रहा है कि उन्हें उनके हिंदीतर प्रांतीय भाषाओं के माध्यम से उत्तर भारत में अपने लिए रोज़ग़ार के कोई अवसर उपलब्ध नहीं थे। ऐसे में, जब उन्हें उत्तर भारत में रोज़ग़ार के लिए हिंदी की आवश्यकता महसूस हुई तो उनमें हिंदी सीखने ललक पैदा हुई। बस, यहीं से उन्हें रोज़ग़ार के लिए हिंदी सीखते-सीखते, हिंदी की आदत पड़ने लगी। आज की तारीख़ में आप दक्षिण भारत में जाएँ तो लोग आपकी भाषाई, सांस्कृतिक और बौद्धिक विरासत को बड़ा सम्मान देते हैं। मैसूर जैसे शहर में हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार में स्तुत्य कार्य किया जा रहा है। हैदराबाद में भी यही आलम है। हिंदी की गंध तो केरल तक में सर्वत्र मिलती है। दक्षिण मूल के कई हिंदी विद्वान उल्लेखनीय हिंदी सेवा कर रहे हैं। हाँ, वे हमारे अन्य पक्षों की नुक्ताचीनी करते अवश्य सुने जाते हैं। यह सब चमत्कार कोई आधी सदी की संक्षिप्त अवधि में ही हुआ है। अर्थात् आज़ादी के बाद। अब तो वहाँ हमारे उत्तर भारत के इंजीनियर, ड़ाक्टर, वैज्ञानिक, प्रोफ़ेसर आदि बहुतायत में जाकर बसने लगे हैं और वहाँ से भी ऐसी प्रतिभाओं का उत्तर भारत में आगमन हो रहा है—न केवल रोज़ी-रोटी और बेहतर जीवन की तलाश में अपितु राष्ट्रीयता की भावना से, राष्ट्र-निर्माण में अपना अमूल्य योगदान करने के लिए। इन हिंदीतर देशवासियों के परस्पर भौतिक सामीप्य और सामंजस्य ने इन क्षेत्रों में राष्ट्रीयता का संचार किया है। हमारी सांस्कृतिक विरासत पर शुद्ध भारतीयता का मुलम्मा चढ़ाया है। हम एक-दूसरे की ज़बान में शौक़ से बोलना चाहते हैं ताकि आपसी समझ में अभिवृद्धि हो, भ्रातृत्व एवं प्रेम बढ़े। किसी संस्थागत शिक्षण-प्रशिक्षण के बिना हम तमिल, कन्नड़ और उड़िया सीख रहे हैं और वे हिंदी। दिल्ली के दक्षिण भारतीयों को हिंदी माध्यम से वाकपटुता में जो महारत हासिल है, उसे सुनकर तो बेहद ताज़्ज़ुब होने लगता है। यह सब साबित करता है कि वहाँ बेशक! किसी भाषाई वजह से पारस्परिक वैमनष्यता नहीं है।
संपूर्ण देश की सांस्कृतिक विरासत एक है; बस! क्षेत्रीय भाषाएँ भिन्न-भिन्न हैं
अर्थात् सांस्कृतिक विरासत को अक्षुण्ण बनाने के लिए हिंदी की डोर को कश्मीर से कन्याकुमारी तक और पूर्वोत्तर से पश्चिमोत्तर तक को जोड़ना होगा। इस सम्बन्ध में डॉ. सुधा बी. का विचार ध्यातव्य है:
“. . . भारत की अपनी एक सांस्कृतिक विरासत है। इस विरासत को समृद्ध-संपन्न करने के लिए अब भाषाओं के साथ हिंदी ने भी अहम भूमिका निभाई है।”23
यह तो तय है कि यदि हिंदी को निरापद रूप से देश के चारों कोनों में राष्ट्रभाषा के सिंहासन पर स्थायी रूप से आरूढ़ देखे जाने की राष्ट्रीय इच्छा है तो जो अब तक सम्भव नहीं हो सका है, उसे सम्भव करना होगा अर्थात् इसे देश के हर भाग में एक सर्वप्रिय भाषा बनाया जाना होगा। विभिन्न प्रांतों में एकाधिक प्रांतीय भाषाएँ जनमानस में अति प्राचीन काल से गहरी पैठ बनाए हुए हैं और उनसे उनका आत्मिक रिश्ता बना हुआ है। उनसे सम्बन्धित प्रांतों की सांस्कृतिक विरासत मुखर होती है। ऐसे में एक सवाल उठना लाज़िमी है कि क्या वहाँ की सांस्कृतिक विरासत हिंदी से मुखर हो सकती है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि इससे उनकी भावनाएँ आहत हो रही हैं! वैसे ज़्यादातर विद्वानों का मत है कि हिंदी की स्वीकार्यता-दर विशेषतया हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदीभाषी क्षेत्रों की तुलना में किसी भी मायने में कम नहीं है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पूरे देश की विरासत एक है, अर्थात् सनातनी व्यवस्थाएँ एक जैसी हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि जिस तरह भारतीयों की परम्पराएँ और रीति-रिवाज़ एक जैसी हैं, उसी तरह भाषाई एकता भी स्थापित हो सकती है। आप अगर दक्षिण के कुछ हिस्सों अर्थात् हैदराबाद, सिंकदराबाद, पांडिचेरी, कन्याकुमारी आदि में जाएँ तो आप यह पाएँगे कि वहाँ हिंदी को पर्याप्त सम्मान दिया जा रहा है और ऐसा हमारी एक-समान विरासत के कारण है। ऊपर के उल्लेखों में यह प्रतिपादित किया जा चुका है कि दक्षिण की भाषाओं को लेकर हिंदी के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। वास्तव में, ज़्यादातर प्रांतीय भाषाओं में हिंदी एक कड़ी की तरह काम कर रही है। संपर्क भाषा के रूप में हिंदी सफल है।
यह बताया जा चुका है कि हिंदीभाषी और हिंदीतर क्षेत्रों के बीच जो कटुता रही है, उसका कारण मुख्य रूप से राजनीतिक है। या तो राज्यीय सीमाओं का विवाद है या नदी-जल के बँटवारे का ज्वलंत प्रश्न या कोई अन्य मुद्दा जिनका समाधान राजनीतिक लाभ पाने के लिए नहीं किया जाता। ये समस्याएँ कालजन्य हैं, दीर्घकालिक नहीं हो सकतीं क्योंकि हमें एकता का मंत्र विरासत में मिला है। अस्तु, जो समस्याएँ वहाँ हैं, उन्हें आश्वासनों का ऑक्सीजन देकर जिलाए रखने की कोशिश की जाती है ताकि समय आने पर जनता को राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ बरगलाया जा सके और वोट बैंक को पुख़्ता बनाया जा सके।
ध्यातव्य है कि आज़ादी के बाद आए संक्रमणशील दौर के कारण जब दक्षिण भारतीयों ने आसानी से हिंदी सीख ली तो उन्हें स्वयं पर थोपी गई या स्वेच्छा से अंगिकृत की गई अंग्रेज़ी को छोड़ने में कोई शिकायत नहीं रही। चुनांचे, अगर वे अंग्रेज़ी छोड़ नहीं सके तो उन्होंने हिंदी को हृदय से स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं की। आज पाते हैं कि वहाँ भाषाई विरोध के दौर का धीरे-धीरे पटाक्षेप हो चुका है। आज लोग वहाँ भाषाई सौहार्द के मैत्रीपूर्ण वातावरण में जी रहे हैं। सो, अब हमें करना क्या है: विरासत में मिली सहिष्णुता से स्वयं को अभिमंत्रित करते हुए उनकी क्षेत्रीय भाषाओं का हिंदी के साथ तालमेल बैठाने पर बल देना है। वास्तव में, लोक संस्कृति को लोक भाषा में, क्षेत्रीय संस्कृति को क्षेत्रीय भाषा में और प्रांतीय संस्कृति को प्रांतीय भाषा में मुखर किया जा सकता है। इस महत्त्वपूर्ण कार्य में हिंदी को एक कड़ी के रूप में तैनात किया जाना चाहिए। ऐसे में, राज्यों की बहुभाषिता के कारण बनी भाषाई खाइयों को पाटने के लिए हिंदी विद्वानों ने सदैव उदार दृष्टिकोण अपनाया है। आज के दौर में, विरासती सहिष्णुता के आधार पर तथा सह-अस्तित्त्व के हमारे काल-परीक्षित प्राचीन आदर्श के अनुसरण में हिंदी प्रांतीय भाषाओं के साथ रहना सीख चुकी है। बल्कि, इस कार्य में वह अपनी प्रांतीय भाषाओं के साथ पूरे ममत्व के साथ पेश आ रही है। ज़रूरत इस बात की है कि राज्यों के बहुभाषी नागरिकों की सभी आमचर्या में उनकी अभिव्यक्तियों को हिंदी की अभिव्यक्तियों के साथ आमेलित करते हुए जनप्रिय बनाना होगा। हिंदी को उनकी ज़बान पर स्वाभाविक रूप से कुछ इस तरह विराजमान होना होगा कि उनकी भाषाओं को कोई क्षति पहुँचाए बिना उनमें सुरक्षा की भावना का विकास हो।
निष्कर्ष: हिदीतर क्षेत्रों के अंतर्गत न केवल भारत अपितु संपूर्ण विश्व
हिंदी के चहेतों के लिए यह दृष्टिकोण बिल्कुल नया-सा होगा कि पूरे वैश्विक समाज में हिंदी के व्यापीकरण के लिए कुछ ऐसे प्रभावी मंत्र उच्चरित किए जाएँ जिससे कि हिंदी पलक झपकते ही विश्वजन की भाषा बन जाए। हाँ, हमें इस बात पर मंथन करना है कि कैसे हिंदी को विश्व-भाषा के रूप में स्थापित किया जाए। यों तो हिंदी के हमारे ही अनेक विद्वानों ने हिंदी के प्रति नकारात्मक विचार दिए हैं कि हिंदी तो भारत की ही पूर्ण रूप से व्यवहृत भाषा नहीं बन पाई है; फिर, इसे विश्व-भाषा के रूप में देखने की कल्पना करना ही बेजा होगा, या यूँ कहें कि हास्यास्पद होगा। किन्तु, इस अध्ययन का उद्देश्य हिंदी को वैश्विक भाषा बनाने की संभावनाओं की तलाश करना है। ‘विषय-प्रवेश’ के अंतर्गत, इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि विश्व के कुछेक देशों को छोड़कर जहाँ हिंदी की देवनागरी लिपि नहीं है, हिंदी उसी मिज़ाज से बोली जाती है, जिस मिज़ाज से हम भारतीय बोलते हैं। ऐसे देश हमारे पड़ोसी हैं अथवा पडोसियों के पड़ोसी हैं। लिहाज़ा, इन देशों को छोड़कर, विश्व के अन्य सभी देश हिंदीतर क्षेत्रों में रखे गए हैं। हमारा चाहना यह है कि अब हिंदी को भारतीय प्रायद्वीप की भौगोलिक सीमाओं को लाँघने की कोशिश को अमली जामा पहनाना होगा। इस सम्बन्ध में, हम अमरीकी लेखिका अनीता कपूर के साथ अग्रेतर जाएँगे जिनका मानना सही है कि “भाषा की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती और न ही किसी क्षेत्र का बंधन।”24
यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन प्रतीत होता है कि हिंदी अपने विस्तार के लिए कभी हिंसक नहीं हुई। इतिहास ऐसे दृष्टांतों से भरा पड़ा है जहाँ धर्म प्रचार और साम्राज्य विस्तार के लिए भीषण रक्तपात और नरसंहार किए गए हैं तथा अनेकानेक जातियों का उन्मूलन किया गया है। किन्तु, यह सहिष्णु भारत ही है जिसने किसी भी प्रकार के अपने सांस्कृतिक, धार्मिक अथवा भाषाई प्रचार-प्रसार के लिए कभी भी तलवार का सहारा नहीं लिया। यहाँ की संस्कृति या भाषा जैसी कोई चीज़ अपने-आप ही फैलती रही है या प्रायः संकुचित होती रही है, सिमटती रही है जिसके लिए इसका समावेशी स्वभाव ज़िम्मेदार है। आप संस्कृत भाषा का ही उदाहरण ले सकते हैं। हिंदी के विस्तार के लिए कुछ ऐसे उपाय नहीं किए गए हैं जिससे कि इसका दायरा फैलता जाए। पर, आज के द्रुतगामी दौर में हिंदी विश्व-भाषा की रेल-पटरी पर भागती नज़र आ रही है तथा उन सभी चिंतकों और आलोचकों को अँगूठा दिखाती जा रही है जिनके इसके प्रति विचार निराशाजनक थे।
अस्तु, अनेकानेक कारणों से हिंदी विश्व-पटल पर मुखर हो रही है। डॉ. सुधा बी. की इस बाबत टिप्पणी सराहनीय है:
“आज विश्व मंच पर सभी भाषा के बीच हिंदी का क़द और दिल बढ़ता जा रहा है . . . हिंदी अब केवल नौ हिंदी प्रदेशों की भाषा ही नहीं है वरन् इस समय यह विश्व की भाषा बन गई है।”25
न्यूयार्क में आयोजित आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि और पूर्व विदेश राज्य मंत्री श्री आनंद शर्मा ने भी कुछ ऐसे ही उद्गार व्यक्त किए थे:
“हिंदी प्रेमियों के साथ आज हिंदी एक अंतरराष्ट्रीय भाषा बनने के मार्ग पर है।”26
वैश्विक संदर्भ में हिंदी के विस्तार में अनेकानेक ठोस कारकों का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। डेनमार्क की सुप्रसिद्ध लेखिका अर्चना पेन्यूली का विचार समर्थनीय है:
“हिंदी के वैश्विक प्रचार-प्रसार में में देश-विदेश में होने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक क्रियाकलापों एवं गतिविधियों की अहम भूमिका है।”27
इस शोधाध्ययन के संदर्भ में उपर्युक्त टिप्पणियाँ अत्यंत उत्साहवर्धक हैं। उनके परिप्रेक्ष्य में इस बिंदु पर विश्लेषणात्मक सर्वेक्षण करना समीचीन होगा कि वे कौन-कौन से सकारात्मक कारक उल्लेखनीय हो सकते हैं जिनसे भारत के ‘ग’ क्षेत्रों तथा विश्व के हिंदीतर देशों में हिंदी को जनप्रिय बनाते हुए इसे वहाँ के सामाजिक जीवन में व्यवहार्य बनाया जा सके।
हमारे साथ-साथ अर्चना पेन्यूली का भी मानना है कि “विदेशों में हिंदी का प्रचार करने का श्रेय हिंदी फ़िल्मों को काफ़ी कुछ जाता है।”28 पाकिस्तान, खाड़ी प्रदेश, बांग्ला देश, रूस, लैटिन अमरीका, अफग़ानिस्तान, इज़राएल, सिंगापुर, मलेशिया, थाईलैंड जैसे देशों में बॉलीवुड की फ़िल्मों को बेहद पसंद किया जाता है तथा इन फ़िल्मों ने विदेशियों के दिल में हिंदी के प्रति अभिरुचि में उल्लेखनीय वृद्धि की है। अब तो हिंदी फ़िल्मों की विदेशों में शूटिंग के दौरान बेतहाशा बढ़ती भीड़ भी इस तथ्य को रेखांकित कर रही है कि भारतेतर क्षेत्रों में हिंदी को कितना महत्त्व दिया जा रहा है। किन्तु, खेद की बात यह है कि विदेशियों के इस रुझान का दोहन आलसी भारतीय नहीं कर पा रहे हैं। विदेशों की हिंदी साहित्य और संस्कृति से सम्बन्धित समितियाँ और संस्थाएँ वहाँ हिंदी के प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। भारत के लुभावने नृत्य-संगीत का आकर्षण भी विदेशियों को अपनी ओर चुम्बक की तरह खींचने का काम करता है। विदेशों में स्थापित धार्मिक और दार्शनिक संस्थाएँ जहाँ हमारे देश के संतों और धर्मोपदेशकों द्वारा दिए गए धर्मोपदेश, हितोपदेश और जीवनोपयोगी प्रवचन हिंदी के प्रचार के लिए अनुकूल कारक साबित हुए हैं, हिंदी के विस्तार में अगुवाई कर रही हैं। इतिहास के ऐसे साक्ष्य बहुतायत में उपलब्ध हैं कि 1993 में स्वामी विवेकानंद के प्रवचन सुनकर बड़ी संख्या में ईसाई जनों ने संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन करना आरंभ कर दिया था और वे व्यावहारिक तौर पर हिंदू धर्म में दीक्षित हुए थे। सर अरबिंदो घोष द्वारा अमरीका में स्थापित योगोदा सत्संग ने बेशुमार अँग्रेज़ों को हिंदू में धर्मांतरित करते हुए उन्हें भारतीय भाषाओं और ग्रंथों का अनुशीलक बना दिया था। एकाध सदी या कुछ दशकों पहले अमरीका के साहित्यकार एमर्सन, व्हिट्मैन, हाथार्न, टी। एस। इलियट, यूजीन ओ’ नील आदि भारतीय धर्म-दर्शन का अध्ययन करते हुए न केवल संस्कृत के प्रशंसक बन गए थे बल्कि उन्होंने हिंदी भाषा को भी गंभीरता से जाना-पहचाना था। ब्रिटेन के अंग्रेज़ी अनेक साहित्यकार भी संस्कृत और हिंदी की इसी परंपरा से संबद्ध हैं। इससे यह साबित होता है कि अमरीका और यूरोपीय देशों में हिंदी की पृष्ठभूमि पहले ही उर्वर हो चुकी थी तथा इसका फ़ायदा हिंदुस्तान के हिंदुस्तानी उठाते हुए वहाँ हिंदी का विगुलनाद कर सकते हैं। जिन डायस्पोरा जगत के साहित्यकारों को आज इस सत्य का ज्ञान रहा है, वे वहाँ विदेशी धरती पर हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के उन्नायकों में शीर्षस्थ हैं।
भारत के हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदी को जनप्रिय बनाने के लिए एक आवश्यक सुझाव देश के बुद्धिजीवियों की तरफ़ से लगातार दिया जाता रहा है कि प्रांतीय भाषाओं को हिंदी की देवनागरी लिपि में लिखा जाए। इस बाबत यह सुझाव भी उपयुक्त होगा कि इसी देवनागरी लिपि में उनके साहित्य का रुपांतरण कराया जाए तथा उनके शिक्षण संस्थाओं में भी उनके प्रांतीय पाठ्यक्रमों को देवनागरी लिपि में रूपांतरित करके पढ़ाया जाए। हिंदी की लिपि को अपनाए जाने के सम्बन्ध में डॉ. अंजना संधीर के विचार का यहाँ साझा किया जाना उपयुक्त होगा:
“. . . अगर सारे देश में हिंदी लिपि को अपना लिया जाए तो देश की एकता और अखंडता बरक़रार रहेगी।”29
इसी लिपि पद्धति का प्रयोग, यदि सम्भव हो तो, विदेशी भाषाओं के साथ किए जाने के उपक्रम को भी प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इस सम्बन्ध में, विदेशी विद्वान मोनियर विलियम के विचार अनुकरणीय हो सकते हैं:
“संसार की समस्त वर्णमालाओं में हिंदी सर्वाधिक संपूर्ण और व्यवस्थित है।”30
जब किसी विदेशी विद्वान द्वारा ऐसा अनुमोदित किया गया है तो हिंदी-हिताय, अंग्रेज़ी सहित अन्य सभी भाषाओं को देवनागरी लिपि में लिखे और पढ़े जाने की दिशा में सरकारी स्तर पर योजनाएँ चलाई जानी चाहिए। इस बारे में डॉ. रामचंदर रमेश आर्य के विचार श्लाघ्य होंगे:
“दक्षिण और उत्तर पूर्व की बोली व भाषाओं के लिए समानांतर लिपि के रूप में देवनागरी लिपि भी उपयुक्त हो सकती है . . . इससे भारत की राष्ट्रीय एकता की कड़ी हिंदी के साथ-साथ देवनागाई लिपि भी रहेगी।”31
भारत में ही आज कोई चार लिपियाँ नामत: ब्राह्मी, खरोष्ठी, गुप्त तथा कुटिल प्रचलित हैं जिनमें देवनागरी लिपि अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक, परिष्कृत और सरल है, लोकप्रिय भी है। यह लिपि हिंदीतर क्षेत्रों की लिपियों अर्थात् बांग्ला, तेलुगु, कन्नड़, तमिल, मलयालम, गुरुमुखी, कलिंग, उर्दू आदि से सहज तथा सीखने वालों के लिए सुग्राह्य हैं जिसके प्रयोग में उन क्षेत्रों के निवासियों को कमोवेश महारत भी हासिल है। ऐसे में, बस! ज़रूरत है तो उन्हें उनकी भाषा को देवनागरी लिपि में रूपांतरित करने की।
इसी संदर्भ में हम कह सकते हैं कि हिंदीतर देशों में हिंदी के प्रति विश्वजन की अभिरुचियों को देखते हुए इसके प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी और इसकी देवनागरी लिपि को कंप्यूटर की भाषा बनाने के लिए भी रणनीति बनाई जानी चाहिए। इस प्रयोजनार्थ, सर्वप्रथम देवनागरी लिपि को हिंदीतर देशों के लोगों से परिचित कराना होगा। इसके लिए कम्प्यूटर के सर्च इंजिनों के साथ तालमेल बैठाना होगा। सोशल मीडिया के इस दौर में यह कार्य दुष्कर नहीं है। इंटरनेट के इस दौर में हिंदी ब्लागिंग, फ़ेसबुक, इंस्ट्राग्राम, लिंक्ड-इन, व्हाट्सअप, कू आदि माध्यमों ने हिंदी के परास को विस्तारित करने में धूम मचा रखी है। बहरहाल, इन माध्यमों के ज़रिए अनेक लोग हिंदी में अभिव्यक्ति के लिए अंग्रेज़ी में ट्रांसलिटरेशन का सहारा लेते हैं; बेशक, यह प्रवृत्ति हिंदी की सेहत के लिए अच्छी नहीं है। यदि कुछ बातें लिखकर अन्यों तक संदेशित करना है तो देवनागरी लिपि के प्रयोग में झिझक कैसी?
यह बात अत्युक्ति नहीं होगी कि विदेशों में बसे भारतवंशियों ने हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के विस्तारीकरण में क्रांतिकारी पहल की है। आज से कोई ढाई-तीन शताब्दियों पहले अमरीका, कैनेडा, ब्रिटेन, डेनमार्क, आस्ट्रेलिया, फ़्राँस, जर्मनी, चीन, सिंगापुर, सउदी अरब, फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम, न्यूजीलैंड, दक्षिण अफ्रिका आदि जैसे देशों में आजीविका की तलाश में गए और सदा के लिए वहीं बस गए भारतवंशियों ने हिदी साहित्य लेखन के ज़रिए अपनी भावनाओं का जो प्रखर संप्रेषण-अभिलेखन शुरू किया है, उससे हिंदी भाषा ने विदेशों में अपनी ख्याति और ठोस पहचान का डंका बजाया है। जो गिरमिटिया समाज उन देशों में सदियों पहले मज़दूर, किसान, कामगार, लिपिक, ऑफ़िस असिस्टेंट आदि के रूप में अथवा किसी और हैसियत से जा-बसे थे, उनकी ही संतानें हिंदी के उच्च साहित्य का सृजन कर रही हैं। आज की तारीख़ में ऐसे प्रवासी साहित्यकारों32 की फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है। वे ऐसा विदेशों में अपनी और अपनी सांस्कृतिक विरासत को ठोस पहचान देने के लिए के लिए बड़ी मेहनत से साहित्य सृजन के कार्य में दत्तचित्त हैं। प्रवासी साहित्यकारों को इस बात का पूरा ख़्याल है कि वे हिंदी के वैश्विक प्रचार-प्रसार में महत्त्वपूर्ण पहलक़दमी कर रहे हैं। उन्हें इस बात का भी पूरा इल्म है कि वे विदेशी ज़मीन पर हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के लिए कार्य करके भारतीय साहित्यकारों को यह सबक़ दे रहे हैं कि उन्हें भी हिंदी के वैश्वीकरण अभियान में उन्हीं की तरह अगुवाई करनी होगी। उनका मानना है कि “हिंदी इस्तेमाल करने से हिंदी बचेगी।”33 प्रवासी लेखिका कादंबरी मेहरा कहती हैं:
“हम विदेशों में रहकर हिंदी के लिए ज़्यादा चिंतित हैं।”34
प्रवासी साहित्यकारों और हिंदी प्रेमियों के इस जज़्बे को सलाम करना चाहिए। हमें पूरा विश्वास है कि कादम्बरी मेहरा की भाँति सभी प्रवासी साहित्यकारों का यह हिंदी उन्नयन अभियान एक संकल्प की तरह चलता रहेगा तथा उनकी यह विरासत उनकी भावी पीढ़ियाँ भी लेकर असीम भविष्य में प्रक्षेपित करती रहेंगी।
जहाँ तक विदेशों में साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को हिंदी के वैश्विक उन्नयन और विस्तार में उल्लेखनीय श्रेय देने का सम्बन्ध है, उनकी संख्या में बेतहाशा वृद्धि हो रही है और वे आवधिक रूप से साहित्यिक संगोष्ठियां तथा अन्य प्रकार के कार्यक्रम आयोजित करके हिंदी के प्रयोग और इसके प्रयोजन को उल्लेखनीय प्रोत्साहन दे रही हैं। हालिया वर्षों में ऐसी कुछ संस्थाओं ने हिंदी के विस्तारीकरण में अतुलनीय भूमिका का प्रदर्शन किया है। ऐसी कुछ संस्थाओं में ‘वातायन-यूके‘, “अक्षरम‘, “अंतरराष्ट्रीय हिंदी समिति-सेलम, सिंगापुर साहित्य संगम, “विश्व हिंदीजन‘, “हिंदी प्रचारिणी सभा‘-कैनेड़ा, “वैश्विक हिंदी परिवार‘, “विश्व हिंदी संस्थान‘-केनैड़ा, “विश्व हिंदी महासभा‘-नेपाल, विश्व हिन्दी न्यास समिति, “विश्व हिंदी सचिवालय‘-मारीशस आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। इन हिंदीं सेवी संस्थाओं में ‘वातायन-यूके’ अग्रणी है जिसका प्रबंधन और संचालन ब्रिटेन की प्रख्यात लेखिका दिव्या माथुर सन् 2004 से कर रही हैं। इस संस्था के द्वारा कोई ढाई वर्षों से साहित्यिक-सांस्कृतिक संगोष्ठियों का साप्ताहिक आयोजन किया जा रहा है जिसकी भारतीय और भारतेतर साहित्यिक तथा सांस्कृतिक गलियारों में चर्चा का बाज़ार काफ़ी गर्म है। इस मंच ने भारत के साथ-साथ विदेशों के असंख्य साहित्य-संस्कृति प्रेमियों को बड़ी शिद्दत से जोड़ते हुए ग्लोबल साहित्यिक गतिविधियों के निष्पादन में अति महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। इसके अलावा, यहाँ अनेक विदेशी पत्र-पत्रिकाओं तथा आनलाइन मैगेज़ीनों 35ने हिंदीतर देशों में हिंदी साहित्य को उस मुक़ाम तक पहुँचाने का अति श्लाघनीय कार्य किया है, जिस मुक़ाम तक भारत की प्रकाशित होने वाली पत्रिकाएँ हिंदी को अब तक नहीं पहुँचा पाई हैं।
निष्कर्ष:
विश्व के हिंदीतर देशों में हिंदी की तूती बोलवाने का ज़िम्मा सिर्फ़ उन लोगों का ही नहीं है जो वहाँ जाकर उन देशों के नागरिक बन चुके हैं, लेकिन अपनी विरासत और संस्कृति को सँजोने के लिए अपनी भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु कमर कसकर इस कार्य को एक अभियान की तरह आगे बढ़ा रहे हैं। उनमें वैसी हताशा या नकारात्मक बातें नहीं है, जैसी कि हमारे हिंदीभाषी जनों की रही है। अपने हिंदीतर प्रांतों में भी हिंदी की स्वीकार्यता-दर में, हमारी नकारात्मक अटकलों के विपरीत आशाजनक रूप से इज़ाफ़ा हुआ है। भारत के हिंदीतर क्षेत्रों में हिंदी संपर्क भाषा के रूप में व्यवहृत हो रही है तथा वे अंग्रेज़ी के शिकंजे को नकार रहे हैं। अब वे इस सच से रू-ब-रू हो चुके हैं कि न केवल रोज़ग़ार के लिए अपितु अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की सुरक्षा के लिए भी हिंदी को तन-मन से अंगीकार करना है। वे इस बात से भी आश्वस्त हैं कि हिंदी को अपनाकर उनकी अपनी प्रांतीय भाषा का बाल भी बाँका नहीं होने वाला है। बल्कि, हिंदी के साहचर्य में न केवल उनकी भाषा फलेगी-फूलेगी, उसे हिंदी की प्रच्छाया में सुरक्षा भी मिलेगी। लिहाज़ा, हमें अब इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार-विमर्श करना है कि हिंदी को वैश्विक आधार पर लोकप्रिय बनाकर इसे अंग्रेज़ी के सामने एक चुनौतीपूर्ण स्थिति में कैसे खड़ा किया जाए। इसके लिए आवश्यक है कि इसे सतत कठिन प्रयासों के ज़रिए कंप्यूटर और विज्ञान की भाषा के रूप में परिणत किया जाए। यह काम हमारे कम्प्यूटर और विज्ञान के इंजीनियरों को निष्पादित करना है। सिर्फ़ हिंदी प्रेम का स्वाँग रचकर हम हिंदी के विश्वव्यापी होने की सम्भावना को साकार नहीं कर सकते हैं। इसलिए आइए, इस अभियान में हम हिंदीभाषी और हिंदीतर नागरिकों को साथ लेकर इसे विश्व-भाषा बनाने की राह पर चलना शुरू करें। प्रवासियों ने हिन्दीतर देशों में जो हिंदी की उर्वर पृष्ठभूमि तैयार की है, उसमें अपने भगीरथी प्रयासों का खाद-पानी देकर हिंदी को असीम और सार्वभौमिक बनाएँ।
संदर्भ:
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बिस्मिल्ल की एक लोकप्रिय रचना जिसे हमलोग बचपन में गुनगुनाया करते थे।
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‘हिंदी के धुँधले प्रश्न’ आलेख से उद्धृत—‘आधुनिक साहित्य’ पत्रिका, जुलाई-दिसंबर, २०१२, पृ. १०४
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‘यू ऐन के प्रांगण में हिंदी की शान’, “राजभाषा भारती’ पत्रिका, अप्रैल-जून २००८, अंक १२१, पृ. ३३
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‘राजभाषा भारती’ पत्रिका, अप्रैल-जून २००८, अंक १२१, पृ. ३३
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‘डेनमार्क में हिंदी व भारतीय संस्कृति का स्वरूप’, ‘हिंदी चेतना’ पत्रिका, अंक ६७, जुलाई-२०१५, पृ. ३९
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‘हिंदी चेतना’ पत्रिका, अंक ६७, जुलाई-२०१५, पृ. ३९
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‘हिंदी भारतीय भाषाओं को जोड़ने वाली कड़ी है’ आलेख, ‘हिंदुस्तानी ज़बान’ पत्रिका, अंक ०४, अक्तूबर-दिसंबर, २०१६, पृ. ३३
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वही, पृ. ३३
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हिंदी, हिंदीतर भाषाएँ, जनजातीय बोलियाँ और देवनागरी लिपि, राजभाषा भारती, जून २०२३, पृ. २३
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अंजना संधीर, अचला शर्मा, अनिल प्रभा कुमार, अभिमन्यु अनत, अर्चना पैन्यूली, इला प्रसाद, उषा प्रियंवदा, उषा राजे सक्सेना, कादम्बरी मेहरा, कृष्ण बिहारी, गौतम सचदेव, तेजेन्द्र शर्मा, दिव्या माथुर, सुधा ओम ढींगरा, नरेश भारतीय, निखिल कौशिक, पूर्णिमा वर्मन, प्राण शर्मा, महेंद्र दवेसर, ललित मोहन जोशी, मोहन राणा, लक्ष्मीधर मालवीय, वेदप्रकाश ‘वटुक’, सत्येन्द्र श्रीवास्तव, सुमन कुमार घई, शैलजा सक्सेना, सुषम बेदी, सुरेशचंद्र शुक्ल‘शरद आलोक’, सुरेश राय, सुरेन्द्रनाथ तिवारी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, सुदर्शन प्रियदर्शिनी, श्याम नारायण शुक्ल, रामदेव धुरंधर, जकिया जुबेरी, अनीता कपूर, गुलशन मधुर, अनीता वर्मा, राजा हीरामन, अनिल पुरोहित, पुष्पिता अवस्थी, अरुणा सभरवाल, मीरा मिश्रा कौशिक, शन्नो अग्रवाल, आथा देव, तिथि दानी, नीलम मलकानिया, डॉ. कविता वाचक्नवी, डॉ. पद्मेश गुप्त, श्री रमेश पटेल, शैल अग्रवाल, भारतेन्दु विमल, आशीष मिश्र, उषा वर्मा, कादम्बरी मेहरा, पुष्पा भार्गव, विद्या मायर, कीर्ति चौधरी, प्रियम्वदा मिश्रा, श्यामा कुमार, डॉ. इन्दिरा आनंद, वेद मित्र मोहला, नीना पॉल, सौमित्र सक्सेना, नरेश अरोड़ा, चंचल जैन, स्वर्ण तलवाड़, डॉ. कृष्ण कन्हैया, धर्मपाल शर्मा, सुरेन्द्रनाथ लाल, रमेश वैश्य मुरादाबादी, सोहन राही, रमा जोशी, डॉ. श्रीपति उपाध्याय, एस.पी. गुप्ता, जगभूषण खरबन्दा, यश गुप्ता, जे एस नागरा, मंगत भारद्वाज, जगदीश मित्र, रिफत शमीम, इस्माइल चुनारा, तोषी अमृता, राज मोदगिल, उर्मिल भारद्वाज, निर्मल परींजा आदि।
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‘वैश्विक हिंदी साहित्य और हमारा भारत’ आलेख ‘हिंदी चेतना’ (कनाडा), जुलाई-सितम्बर २०१२) में प्रकाशित, पृ. ४२
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वही, पृ. ४२
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पुरवाई, साहित्य कुंज, भारत दर्शन, सरस्वती पत्र, हेल्म, अनन्य, हिंदी नेस्ट, क्षितिज, अभिव्यक्ति-अनुभूति, अन्यथा, हिन्दी परिचय पत्रिका, गर्भनाल, कलायन, कर्मभूमि, हिन्दी जगत, हिन्दी बालजगत, विज्ञान प्रकाश, इ-विश्वा, प्रवासी टुडे, अम्स्टेल गंगा, पुस्तक भारती आदि