बर्दाश्त हो जाएगा…
डॉ. मनोज मोक्षेंद्रबर्दाश्त हो जाएगा
किराए के घर में रहना जिसमें
न छज्जा है, न बैठका, न बारजा
बस! अंधी-अंधी दो ठिगनी कोठरियाँ हैं
बिना खिड़कियों और रोशनदानों वाली
जहाँ ततैये भी बचते हैं
अपने घरौंदे बनाने से;
बर्दाश्त हो जाएगा
कर्ज़ में आकंठ डूबे हुए अपने घर में रहना
जहाँ एक अदद कोठरी में ही
अघा जाता है मन
आसन्न बौने शौचालय, रसोई और मंदिर से,
पढ़ लेते हैं चालीसा वहीं कोमोड पर बैठकर
और जीम लेते हैं कलेवा आराम से वहीं
सो लेते हैं पइयाँ एक अदद चौकी के नीचे
उसी शौचालय से सटकर;
बर्दाश्त हो जाएगा
भीड़ द्वारा हड़पी गई सीटों वाले वाहनों में
पायदान पर दो इंच वाली मिली जगह पर
खड़े-खड़े मीलों यात्रा करना और
आख़िरकार महफ़ूज़ घर पहुँच ही जाना;
बर्दाश्त हो जाएगा
संकरी-सर्पीली गलियों में
हत्यारी मोटरगाड़ियों से बचते-बचाते
गंतव्य तक पहुँच जाना
और डिवाइडरों पर कलाबाज़ियाँ करते हुए
मशक़्क़त से लौटना अपने बसियाए नीड़ में;
पर, बर्दाश्त नहीं होते
सँकरे-छिछले, फिसलौवें-चिकने दिलवाले
जो किसी भी तरह नहीं दे पाते
रत्ती-भर जगह रहने के लिए हमें
हाँ, थोड़े समय के लिए ही अपने दिलों में;
जहाँ उनकी इम्पोर्टिड गाड़ियाँ फर्राटे भर लेती हैं
वे वाक़ई बना लेते हैं सर्वसुविधासंपन्न इमारतें वहाँ
और रहते हैं बड़े ठाट-बाट से
अपने लिए हथेलियों पर जान से खेलते ख़िदमतदारों संग;
बेशक, बड़े-बड़े दालानदार दिलों वाले होते
अगर इस जहान में
यह दुनिया कभी न होती इतनी सँकरी-उथली-बौनी
हम उन्हीं बड़े दिलों में उगा लेते
सभी के लिए अकूत खाद्यान्न
लगा देते फ़ैक्ट्रियाँ जीने के लिए ज़रूरी सामानों की
बसा देते वहाँ भिखारियों और अकिंचनों को
सौंप देते सत्ता अपने दिलों की उनके हाथों
और दे देते उन्हें आमरण अभयदान।