नदी का दुःख
डॉ. मनोज मोक्षेंद्रगहराई के खोने का दुःख
नदी ही जान सकती है,
गहराई ही उसकी तिजोरी थी
जहाँ वह सहेजती थी—पुराण और इतिहास
रहती थी अपने जाये जलचरों संग
नदी बार-बार टटोलती है
अपने भीतर की बस्तियाँ
जो ज़मींदोज़ तो न हुई
पर, ख़ुराक बन गई
आपत्तिजनक सभ्यताओं की
नदी अपने भीतर बार-बार झाँककर
और मासूम गुमशुदाओं को न पाकर
सिसकती है, सुबगती है—
आख़िर, कहाँ गए उसक रंग-बिरंगे बाशिंदे
और उनके सजीले घरौंदे
बेशक, उसकी उनींदी आँखें बेचैन हैं,
आइंदा, उसे नहीं नसीब होने वाला
सीप-घोंघे, शैवाल-कुंभी और प्रवाल का बिस्तरा,
तो क्या वह आख़िरी साँस तक
ताकती रहेगी टुकुर-टुकुर,
देखती रहेगी दिवास्वप्न
गए-बीते अपनों के वापस आने का
हाँ, ज़िंदा है उसकी उम्मीद अभी भी
तभी तो लगा रही है डुबकियाँ
गहराई नापने की प्रत्याशा में
और बार-बार होता जा रहा है उसका सिर
चुटहिल और लहूलुहान
उफ़्फ़! चिंता-चिता में भस्मीभूत होना ही
उसकी नियति है,
अपने दोनों ओर बाँहें फैलाए
सतत प्रयासरत है
कि कहीं उसकी शेष गहराई भी
तब्दील न हो जाए मानव बस्तियों में