खेत

डॉ. मनोज मोक्षेंद्र (अंक: 208, जुलाई प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

-एक-

चहलक़दमी करते हुए कुछ नवकुबेर
आए थे जायज़ा लेने
दड़बे में बंद चूज़े ख़रीदने के अंदाज़ में; 
सारे खेत बतकहिया रहे थे आपस में–
‘आ गई है हमारी बारी अब
कसाई के हाथो बिकने की’
तब, कुछ समय तक थम गया था उनका लहलहाना
अपने बाप चौधरियों के तेवर देख
जो गिना रहे थे नवकुबेरों को
इस ज़मीन के लाख गुण, 
बता रहे थे उनके बरकत वाले शुभ प्रभाव; 
एक ने टटोला था उनका बदन भी, 
उनकी देह के कुछ अंश उठाकर
भुरभुराकर गिरा दिए थे वहीं; 
आसन्न सभी खेत घूर-घूर देख रहे थे
सोच रहे थे कि
आइंदा हरा-भरा होने से पहले ही
उन्हें उजाड़ दिया जाएगा
उन पर चला दिए जाएँगे बुल्डोज़र
बिछा दिए जाएँगे उन पर
बज़री, ईंट, सीमेंट और सरिए
मिटा दी जाएगी उनकी अस्मिता ही
जिस पर उन्हें ही नहीं
चौधरियों के पुरखों को भी नाज़ था
अनैतिहासिक काल से

-दो-

कई रातें काटी थी उन्होंने
परस्पर पंचायत करते हुए; 
आख़िर बड़ी ज़िम्मेदारी थी उनकी
अन्न-सब्ज़ी-फल-फूल उगाकर
इंसानों की भुभुक्षा मिटाने की
आबो-हवा को सेहतमंद बनाने की; 
वे बतियाते हुए लगातार सुबगते जा रहे थे
स्मृतियों के खोह में खोए हुए दिनों को याद कर
हाँ, यहीं ऋषि-कण्व की सजी थी कुटिया
और दुष्यंत ने भटककर पाई थी शरण
उसी कुटिया और शकुंतला में; 
हाँ-हाँ, प्रणय-निवेदन के बाद
यहीं लिए थे दोनों ने अग्नि के फेरे
और फिर, पैदा हुआ था भरत; 
अरे, कितने पुराण समेटे हुए हैं हम
अपने भीतर
हममें बसी है तितलियों की चंचलता
विहगों की चहचहाहट
महाकाव्यों का गुंजन
और इतिहास की साँसें

-तीन-

खेत उन्हें जीभरकर कोस रहे हैं
जिन्होंने उन्हें बिल्डरों के हाथों बेच दिया है ऐसे
जैसे कि बाप ने अपनी बेटियों को
महज़ चंद रंगीन नोटों के बदले
कोठों की बाइयों के हाथ नीलाम कर दिया हो, 
खेत बेआबरू होने से ठीक पहले
घों-घों कर ख़ूब रोए थे
निर्वस्त्र किए जाने से पहले
मदद के लिए ‘बचाओ, बचाओ’ की
मर्मभेदी गुहार भी लगाई थी; 
उफ़! ज़ब्‍ह होने के बाद
उनकी रुदन सन्नाटे की ख़ुराक बन गई है
अब उन्हें रौंद-रौंद कर कितना भी चीरो या फाड़ो
कोई फ़र्क़ पड़ने वाला नहीं है, 
उनके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं
और उनकी लाशें
बहुमंज़िले इमारतों के क़ब्रगाह के नीचे
दफ़्न हो चुकी हैं

-चार-

खेतों को मौत के घाट उतारने से पहले
नापी गई थी उनकी देह ज़रीब-फीते से
फिर, घेर दिए गए थे उन्हें चारों ओर से
काँटेदार तारों से, 
बकरा-बलि चढ़ाने जैसे धार्मिक आडंबरों की तरह
किए गए थे बहुतेरे कर्मकांड; 
भूमिपूजन के बाद लोगों में बाँटे गए थे लड्डू
दावतें और पार्टियाँ भी उड़ाईं गई थीं, 
उस दिन चौधरियों ने मयखानों में छककर पी थी शराब
और कोठों पर गुज़ारी थी गरमा-गरम रात
क्योंकि बतौर पेशगी
ग्राहकों ने गरम की थीं उनकी मुट्ठियाँ

-पाँच-

उनकी असंतुष्ट आत्माएँ
बिलख रही हैं उद्धार की अभिलाषा में, 
मॉलों, इमारतों और अपार्टमेंटों के नीचे दबी-दबी
धिक्कार रहीं है इस दौर को
जिसमें लोग-बाग ईमान भुनाकर
बैंक-बैलेंस में तल्लीन है
जुगाड़बाज़ी के हाथों नुचवा रहे हैं
अपनी बहू-बेटियाँ
ऑक्सीज़न को अपने बेडरूम में क़ैदकर
उसे ग़ुमशुदा क़रार दे रहे हैं
और कॉर्बनडाईऑक्साइड के ख़िलाफ़
लिखवा रहे हैं थाने में रपट; 
आख़िर मजबूर आत्माएँ करें तो क्या करें
उनके प्रतिकार हेतु जो
ब्लू फ़िल्मों की तिज़ारत के लिए
नियुक्त कर रहे हैं क्वालीफ़ाइड सेल्स गर्ल्स
और उनकी ग्लोबल मार्केटिंग के लिए
देश-विदेश से मँगवा रहे हैं महँगे टेंडर
बिलबिलाती आत्माएँ चाहती हैं
दमघोटूँ बदलावों के माहौल से मुक्त होना
और अपने साथ ले जाना
हरी-भरी फ़सलें, वाटिकाएं
तथा तितलियों एवं पक्षियों की निःशेष प्रजातियाँ। 

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