कविताओं से बाहर जीने के दौर में 

15-07-2022

कविताओं से बाहर जीने के दौर में 

डॉ. मनोज मोक्षेंद्र (अंक: 209, जुलाई द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

अब कविताओं में
नहीं जी रहे हैं लोग, 
बदलाव चाहते हैं वे
कोठियों को छोड़
फ़्लैटों में बस रहे हैं लोग, 
अरे, कैसा है यह दुर्योग? 
 
क्या हश्र होगा
हवादार और प्रदूषणमुक्त
कविताओं से बाहर
शहरी आबोहवा की
घुटन और उबन में जीने का? 
 
इसका मतलब यह है कि
परित्यक्त कवितायें
भुतहे खँडहर में तब्दील हो जाएँगी, 
विकास के नाम पर 
खंडहरों पर कल-कारखाने उगेंगे, 
कविताएँ ज़मींदोज़ हो जाएँगी
दैत्याकार विकास की भेंट चढ़ जाएँगी
 
अहम् सवाल यह है कि 
कविताओं में वापस आने वाले लोग
कहाँ ज़मीन तलाशेंगे? 
चप्पे-चप्पे पर हत्यारे विकास की
इमारत खड़ी होगी, 
पुरातत्ववेत्ता क़ब्र में समाई
कविताओं के लिए 
उत्खनन अभियान 
कुछ सदियों तक 
चलाएँगे या नहीं? 

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