हिंगलिश का प्रयोजन और व्यवहार: एक मनोवैज्ञानिक निरूपण

15-01-2023

हिंगलिश का प्रयोजन और व्यवहार: एक मनोवैज्ञानिक निरूपण

डॉ. मनोज मोक्षेंद्र (अंक: 221, जनवरी द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

नई संस्कृति और अँग्रेज़ी के हमले के कारण हिंदी से जो नई भाषा उभरकर सामने आ रही है और जिसके भविष्य में लोकप्रिय होने की सम्भावना प्रबल होती जा रही है, उसे आमतौर से ‘हिंगलिश’ की संज्ञा दी जाती है। हिंगलिश की शाब्दिक व्युत्पत्ति पर विचार करें तो यह सहज विदित हो जाता है कि यह ‘हिंदी’ और ‘इंगलिश’ के सम्मिलन से बना है; अर्थात्‌, हिंदी की ‘हि’ और ‘इंगलिश’ का संधि-रूप है। अर्थात्‌, ख़ासतौर से बोलचाल में प्रयुक्त इस भाषा से हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों की बू आती है। 

भले ही हिंगलिश हिंदी और अँग्रेज़ी के संसर्ग से उद्भूत एक मिश्रित बोली (इसे भाषा कहना अभी उचित नहीं होगा) के रूप में अपनी पहचान बना रही है, लेकिन इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह अँग्रेज़ी पर हिंदी के बढ़ते प्रभाव का एक ज्वलंत प्रमाण है। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि हिंगलिश में हिंदी का प्रधान स्थान है जबकि अँग्रेज़ी का गौण; किन्तु, इस माध्यम में दोनों के बीच जो तालमेल दिखाई देता है, वह वास्तव में सराहनीय है। लिहाज़ा, हिंदी के भविष्य के सम्बन्ध में हिंगलिश के स्वरूप पर विचार-विमर्श करना मुनासिब होगा क्योंकि हमें जहाँ-जहाँ हिंदी की उपस्थिति नज़र आती है, हमें वहाँ-वहाँ ताक-झाँक अवश्य करनी चाहिए। 

इस सम्बन्ध में विचार-विमर्श का पहली बिंदु यह है कि हिंगलिश-भाषियों का मनोविज्ञान किस प्रकार का होता है। उल्लेख्य है कि हिंगलिश का विस्तार उन्हीं कार्यक्षेत्रों में हो रहा है जहाँ लोग-बाग हिंदी और अँग्रेज़ी दोनों में ही संवाद स्थापित करने की क्षमता रखते हैं। मुझे तो लगता है कि इसका प्रयोग तब किया जाता है जबकि दो व्यक्तियों में एक व्यक्ति का अँग्रेज़ी ज्ञान औसत दर्जे का होता है और अँग्रेज़ी माध्यम से बातचीत करने में पहल करनेवाले को समझाने की ग़रज़ से मजबूरन आधी बात हिंदी में करनी पड़ती है। बेशक! जो व्यक्ति अँग्रेज़ी-मिश्रित हिंदी का प्रयोग करता है, उसका अंदाज़ निराला ही नहीं, वरन्‌ जनसाधारण की लीक से हटकर भी होता है क्योंकि वह हिंदी के वाक्यांशों का उच्चारण अँग्रेज़ी शैली में करना चाहता है। उसे लगता है कि इससे उनके व्यक्तित्व में निखार भी आता है। कुछ लोग तो इस तरह की खिचड़ी भाषा और वार्तालाप के निराले अंदाज़ से नाक-भौंह सिकोड़ते हैं जबकि कुछों को इनमें ही खूबियाँ नज़र आती हैं। जिन्हें इस खिचड़ी भाषा में ख़ूबियाँ नज़र आईं, उन्होंने इसे अपनी बोलचाल में अपना लिया है। उनका यह भी सोचना है कि ऐसी खिचड़ी भाषा का प्रयोग करके उन्हें समाज में प्रतिष्ठा की नज़र से देखा जाता है। भारतीयों के मनोविज्ञान का एक विशेष पक्ष यह है कि वे अनुकरण करने में अव्वल होते हैं। चूँकि भारत जैसे विकासशील देश में किसी भी संस्कृति और अजीबोग़रीब तहज़ीब का अनुकरण करने की होड़-सी लगी हुई है, इसलिए वे हिंगलिश को स्वेच्छा और शिद्दत से अपना रहे हैं। 

हिंगलिश-भाषियों के अंदाज़ में एक अज़ीब-सी कृत्रिमता होती है। वे न केवल अँग्रेज़ी के शब्दों को बड़ी अँग्रेज़ियत से बोलते हैं अपितु हिंदी के शब्दों का प्रयोग भी अँग्रेज़ी के लहजे में ही करते हैं। हिंदी के हितैषी हिंदी के साथ इस तरह के प्रयोग से बड़ा बुरा मानते हैं। कतिपय हिंदी साहित्यकारों ने ऐसी हिंगलिश का बेहद मख़ौल उड़ाया है। हिंदी के भविष्य की चिंता करते हुए मंचों पर भी उन्हें हिंगलिश पर घड़ों आँसू बहाते हुए देखा-सुना गया है। 

अब सवाल यह उठता है कि इस खिचड़ी भाषा का राजभाषा के भविष्य के संदर्भ में क्या महत्त्व है। मीडियाविद मानते हैं कि इससे हिंदी की संप्रेषणीयता में सुधार आएगा। मेरा मानना है कि भले ही हिंगलिश अटपटा-सा लगता है, इससे हिंदी शब्दकोश में अच्छी-ख़ासी बढ़ोतरी होगी। बेशक! अँग्रेज़ी अभिव्यक्तियाँ हिंदी-जगत में लोकप्रिय होंगी और लोगों की अँग्रेज़ी समझ भी बढ़ेगी। किसी भी भाषा और विशेषतया अँग्रेज़ी जैसी भाषा का ज्ञान होना हमारे लिए एक फ़ख़्र की बात है। दरअसल, अँग्रेज़ी भाषा का हमारे समाज में साधारणीकरण हो जाना चाहिए। साथ ही साथ, हिंदी को एक मुख्य भाषा के रूप में इस तरह मुखर होना चाहिए कि उसमें अँग्रेज़ी के शब्दों और उक्तियों के ऐसे प्रयोग किए जाएँ कि उनसे पांडित्य-प्रदर्शन की बू न आए। बल्कि, उसे सुनने पर यह अनुभव हो कि अँग्रेज़ी, हिंदी की भावाभिव्यक्ति को सहज बनाने में सफल सिद्ध हो रही है। 

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