तब और अब

01-11-2021

तब और अब

डॉ. मनोज मोक्षेंद्र (अंक: 192, नवम्बर प्रथम, 2021 में प्रकाशित)

तब, भोर से निपटने के बाद
धूप के नरम हाथों में
पूजा की थाली होती थी,
हवा के ललियाए होंठ
कुँआरी-लजीली कलियों का माथा चूमकर
उन्हें फूलमती बनाते थे
पत्तियाँ सतत करवट बदल
ओस की मोतियों की हार पहन
शोख़ हवाओं की बाँहों में
झूला झूलती थीं,
दूब संग रोमांसरत समीर
धरा को पुंसवती बनाते थे
तब जन्मोत्सव पर बधाइयाँ बाँटने
तितलियाँ सोहर गाने आती थीं
और ढोल-मृदंग बजाकर
धूप और हवा संग
आँख-मिचौली खेलते थे
उस दौर में
अख़बारों से पहले
भोर के तन पर लिखे
शुभ समाचारों को पढ़कर ही
आठों पहर के शुभ होने की
आश्वस्ति मिल जाती थी
 
अब की बात विध्वंसक है
धूप की ट्रे में कड़वी चाय होती है
भोर की रुग्ण किरणें
आतंकी हमलों में
हलाकों की सूचना देती हैं
हवाएँ किसी पैगंबर के आदेश पर
वहशी हुक्मरान होने के उन्माद में
एटमी विस्फोट की घुड़कियाँ सुनाती हैं
अरे देखो, अब भौंरे तितलियों का
सरेबाज़ार बलात्कार करने लगे हैं।

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