सफ़र में धूप तो होगी
नीरजा हेमेन्द्र
तब परिवार दो या एक बच्चों तक सीमित नहीं होते थे। बड़े होते थे। अधिकांशतः संयुक्त परिवार होते थे। जिनमें कम से कम बारह, चौदह सदस्य होते ही थे। उस समय जो एकल परिवार होते थे, उनमें भी छह-सात बच्चों का परिवार होता था।
यह बात बहुत पहले की नहीं बल्कि अब से बीस-बाइस वर्ष पूर्व की ही है। मेरा भी परिवार पहले तो संयुक्त परिवार था। मेरे बाबूजी, ताऊजी व मेरी तीन बुआ थीं। हम बच्चे थे किन्तु मन-मस्तिष्क में बुआ लोगों के विवाह की धुँधली स्मृतियाँ बसी हुई हैं। तीनों बुआ विवाह कर ससुराल जा चुकी थीं। अब वो यदाकदा किसी पर्व आदि पर ही मायके आती थीं।
हम सब एक भरे-पूरे संयुक्त परिवार में बड़े होने लगे। फिर न जाने क्या हुआ? किसी घरेलू विवाद में ताऊजी और मेरे बाबूजी अलग हो गये। अर्थात् घर का बँटवारा हो गया। दादा जी का घर बड़ा था। खेत-खलिहान भी ठीक-ठाक थे। अतः दोनों भाइयों के हिस्से में अच्छी-ख़ासी सम्पत्ति आयी।
हम छह भाई-बहन थे। ताऊजी के सात बच्चे थे। हमारे घर अवश्य बँटे थे। रसोई भी अलग हो गयी थी। किन्तु हम सभी भाई-बहनों में बातचीत होती थी। बँटवारे का प्रभाव हम बच्चों को पर नहीं पड़ा था, न ही घर में हमें कोई आपस में बाते करने या खेलने से रोकता था। ताऊजी के बच्चे हमारे घर के आँगन में खेलने आते थे। हम भाई-बहन ताऊजी के घर खेलने जाते थे।
हमारा बचपन खुले वातावरण, बड़े घर, रिश्तों के स्नेह, अपनापन और एक प्रकार से कहें तो हम सब भाई-बहनों के साथ निश्छल व्यवहार के बीच व्यतीत हुआ था। हम सब अपने बड़े से घर में दुनिया के छल-द्वन्द्व से दूर घर से काॅलेज और काॅलेज से घर आते-जाते थे। बस इतनी-सी ही थी हमारी दुनिया। हमें बहुत अच्छा लगता। दुनिया की सारी ख़ुशियाँ हमें हमारे आसपास बिखरी प्रतीत होतीं।
इधर मेरी बड़ी दीदी के विवाह की बात चल रही थी। एक दिन पता चला कि उन्हें लड़के वाले देखने आ रहे हैं। मेरी आकर्षक, स्नातक उत्तीर्ण दीदी को भला कौन न पसन्द करता? मेरी दीदी लड़के वालों को पसन्द आ गयीं और उनके विवाह की तिथि तय हो गयी।
दीदी के विवाह की तैयारियाँ चल रही थीं। हम सभी भाई-बहन विवाह की तैयारियाँ होते देखते तथा घर में लगभग प्रतिदिन ही विवाह हेतु आती नयी-नयी चीज़ों को देखकर ख़ूब ख़ुश होते।
मैं उस समय इण्टरमीडिएट में थी। मेरी बोर्ड की परीक्षा थी। मेरे अन्य किसी भाई-बहन की बोर्ड की परीक्षा नहीं थी। उन्हें कोई कुछ न कहता। माँ मुझसे पढ़ाई पर अधिक ध्यान देने के लिए कहतीं। जब कि मुझे विवाह की तैयारियाँ होते देखना अच्छा लगता। नयी-नयी चीज़ों को देखना, विवाह की तैयारियों से सम्बन्धित बातचीत सुनने में अधिक अच्छा लगता।
माँ के काम में हाथ बँटाने मेरी मौसी आ गयी थीं। विवाह में अभी कुछ माह शेष थे। अतः कुछ दिनों तक मौसी रहेंगी। फिर अपने घर चली जाएँगी। आवश्यकता पड़ने पर माँ बुलाएँगी तो मौसी पुनः आ जाएँगी। मौसी के आने से घर में रौनक़ और बढ़ गयी थी। मैं मौसी के आसपास रहती। उनकी हँसी-मज़ाक भरी बातें सुनती। पढ़ने बैठने की बिलकुल इच्छा नहीं होती।
“बिटिया, अभी पढ़ाई में मन लगाओ। पढ़-लिख लो। एक दिन तुम्हारा भी विवाह होगा। तब सब कुछ ऐसे ही होगा। इसलिए ये सब देखने-सुनने में समय न ख़राब करो। उसी समय सब कुछ देख लेना,” कह कर मौसी हँस पड़ी।
“ये कैसी बातें करती हो बच्चों से?” मौसी की बात सुनकर माँ ने मौसी को मीठी झिड़की देते हुए कहा। मौसी मुस्कुरा पड़ी।
मौसी मुस्कुरा अवश्य पड़ी। किन्तु मुझे लगा कि मौसी सही कह रही हैं। मुझे अपने भविष्य पर ध्यान देना चाहिए।
मैं मन लगा कर पढ़ाई करने लगी। परीक्षा में मैं अच्छे अंकों से उत्तीर्ण हुई। दीदी के विवाह की तिथि आयी और उनका विवाह हुआ। विदा होकर दीदी अपने ससुराल चली गयीं।
विवाह के पश्चात् दीदी प्रमुख पर्वों पर मायके आतीं। वो जब भी आती हमें ऐसा प्रतीत होता जैसे विवाह से पूर्व वाले दिन लौट आये हैं। दीदी के आने से हम सब बहुत ख़ुश होते।
न जाने क्यों मुझे ऐसा महसूस होता कि दीदी हमारे साथ उसी प्रकार रहना-हँसना चाहतीं हैं जैसे विवाह के पूर्व। किन्तु वो उस प्रकार हँस नहीं पातीं। क्यों कि विवाह से पूर्व वाले दिन न जाने कहाँ पंख लगाकर उड़ गये थे। और अब वो दिन वापस नहीं आ सकते थे।
घर में कोई हँसी-मज़ाक वाली बात करता दीदी फीकी हँसी हँस देती। मैं महसूस करती कि दीदी की फीकी हँसी के अन्दर वो उन्मुक्त हँसी कहीं खो गयी है। कहाँ . . .? ये दीदी ने कभी भी हम सबको नहीं बताया, न ही हम समझ पाये। कदाचित् वो स्वयं भी तो नहीं समझ पायी थीं कि विवाह के पश्चात् उनमें ये बदलाव क्यों और कहाँ से आया?
दीदी में बदलाव तो आ ही गया था। तीन वर्षाें के अन्दर दीदी दो प्यारे-से बच्चों की माँ भी बन गयी। उनका मायके आना कम हो गया या कहें तो लगभग बन्द-सा हो गया था।
मैं स्नातकोत्तर की शिक्षा पूरी करने के साथ नौकरी के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियाँ भी कर रही थी। मेरे ऊपर भी मम्मी-पापा द्वारा विवाह के लिए हाँ कहने का दबाव था। किन्तु मैंने मम्मी से कह दिया था कि मैं आत्मनिर्भर बनने का प्रयास करना चाहती हूँ। मुझे थोड़ा समय दीजिए। बैंक की जाॅब करने में मेरी रुचि थी अतः उसी की तैयारियोें में अधिक ध्यान देने लगी थी।
अगस्त माह आ गया था। चार दिन पश्चात् रक्षाबन्धन का पर्व था।
“मम्मी, दीदी की राखी आ गयी?” मैंने मम्मी से पूछा। दो वर्षों से दीदी भाई के लिए डाक से राखी भेज रही थीं। रक्षा बन्धन में मात्र चार दिन रह गये थे। कदाचित् दीदी की राखी आ गयी हो। अतः मैंने मम्मी से पूछा।
“इस बार दीदी राखी में आएगी। उसका फोन आया था,” मम्मी ने कहा।
“ओ . . . ओ . . . ये तो बड़ी अच्छी बात है। इस बार दीदी से मुलाक़ात होगी। मुझे तो उसकी छुटकी प्रिंसेस (मेरी दीदी की बच्ची) से मिलना है। उससे ढेर सारी बातें करनी है,” मैंने अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए मम्मी से कहा।
“हाँ . . . हाँ . . . दीदी और बच्चों के खाने-पीने के लिए ख़ूब अच्छे-अच्छे व्यंजन भी बनाना। एक दिन पहले बता देना क्या-क्या सामान मँगवाना है,” माँ ने मुझसे कहा।
“ठीक है मम्मी। दीदी जो कुछ खाने की इच्छा प्रकट करेगी, मैं बना दूँगी,” मैंने कहा।
रक्षाबन्धन से एक दिन पूर्व अपने दोनों बच्चों के साथ दीदी आ गयी।
“जीजा नहीं आये दीदी?” दीदी के आते ही मैंने दीदी से तुरन्त पूछा।
“उन्हें अवकाश नहीं मिला। राक्षाबन्धन के दूसरे दिन हमें लेने आएँगे,” दीदी ने कहा।
दीदी बारह बजे तक आ गयी थी। भोजन तैयार था। मैंने मम्मी के साथ फटाफट दीदी, उसके बच्चों व अपने पूरे परिवार का भोजन मेज़ पर लगा दिया। सबने भोजन किया। मैं, दीदी और उसके बच्चों के साथ आराम करने बीच वाले कमरे में जिसमें पहले दीदी रहा करती थी, चली गयी।
“मौसी, मम्मी कहती हैं कि अगले वर्ष से हम भी स्कूल जाएँगे,” दीदी की बेटी जो कि अपने भाई से दो वर्ष छोटी है, ने कहा।
“नहीं मौसी, गुड़िया (दीदी की बेटी को घर में सब प्यार से गुड़िया कहते हैं) हमसे दो साल बाद स्कूल जाएगी। पहले मैं जाऊँगा,” दीदी के बेटे ने कहा।
“बड़े होने से क्या होता है, स्कूल तो पहले जाया जा सकता है? क्यों मौसी?” दीदी की बेटी ने कहा।
दीदी के बच्चों की बातें सुनकर मैं खिलखिला कर हँस पड़ी। दीदी हौलेे-से मुस्कुरा पड़ी।
मेरे हँसने की आवाज़ सुनकर मेरे दोनों भाई भी कमरे में आ गये।
“अच्छा मुझे अकेला छोड़कर मेरी दोनों बहनें यहाँ गपशप कर रही हैं,” कहते हुए भाई भी आकर हमारे पास बैठ कर हमारी बात में शामिल हो गये।
हम देर तक बातें करते रहे। नाते-रिश्तेदारों की, उनके बच्चों की, पड़ोसियों की, काॅलेज के मित्रों की, फ़िल्मों की . . . ओह! न जाने कितनी बातें हम करते रहे। इतनी बातें करते हुए दो घंटे न जाने कब बीत गये।
“दीदी, हमारे कोचिंग का समय हो रहा है। अभी आते हैं। शेष बातें हमारे आने पर होगी,” बड़े ही स्टाइल से कहते हुए भाई चले गये। भाइयों के कहने का नटखट-सा ढंग देख कर हम बहने हँस पड़ीं।
दीदी के दोनों बच्चे सो गये थे। दीदी बैठी न जाने क्या सोच रही थी।
“चाय बना लाएँ दीदी?” मैंने दीदी से पूछा। क्यों कि शाम के लगभग पाँच बजने वाले थे।
“नहीं, अभी नहीं। जब पापा आएँगे तभी मम्मी-पापा के साथ हम भी पीएँगे,” दीदी ने कहा।
“तुम्हारी नौकरी का क्या चल रहा है?” सहसा दीदी ने मुझसे पूछ लिया।
“अभी तो फ़ाइनल इयर के एग्ज़ाम होने वाले हैं। उसकी तैयारी के पश्चात् जो समय बचता है उसमें नौकरी की तैयारी करती हूँ,” दीदी द्वारा सहसा नौकरी के लिए गये पूछ लिए गये प्रश्न पर मैं थोड़ी हड़बड़ा गयी थी।
मैं हड़बड़ा इसलिए भी गयी क्यों कि दीदी ने नौकरी की बात अत्यन्त गम्भीरता से की थी। मानों उनकी दृष्टि में महिलाओं के लिए आत्मनिर्भरता अति आवश्यक है। कुछ क्षण के लिए मैं सोचने लगी कि आख़िर दीदी को ये आवश्यक क्यों लगा? क्यों?
“मेरी एक बात मानना . . . जब तक नौकरी न मिल जाये . . . या जब तक आत्मनिर्भर न हो जाना तब तक विवाह न करना,” मुझसे कहते हुए ऐसा लगा जैसे दीदी रो पड़ेंगी।
“नौकरी के लिए पूरा प्रयास करूँगी। मुझे पूरा विश्वास है कि परिश्रम करूँगी तो सफलता भी मिलेगी। किन्तु दीदी आपके नेत्र भीगे क्यों है? क्या कोई परेशानी है दीदी आपको?” मैंने दीदी के चेहरे की ओर देखते हुए पूछा।
“नहीं कोई परेशानी नहीं है। बस, मैं ही वो पहले वाली तेरी दीदी नहीं रही तो अब परेशानी कैसी और किसे?” कह कर दीदी चुप हो गयी।
दीदी की बात सुनकर मैं सकते में थी। कमरे में ऐसा सन्नाटा पसरा जैसे चैत्र की धूप भरी दोपहर को साँय-साँय करता सन्नाटा। ऐसा लग रहा था जैसे मैं रो पड़ूँगी। किसी प्रकार स्वयं को संयत किया।
“वो क्या है न विवाह के पश्चात् जीवन बहुत बदल जाता है। अपनी इच्छा, अपने सपने यहाँ तक कि अपना जीवन भी अपना नहीं रहता। बड़ी दीदी होने के कारण अपने अनुभव से यही बता सकती हूँ कि आत्मनिर्भरता सब कुछ नहीं है तो भी बहुत कुछ है। यह अपने जीवन के लिए कुछ सोचने की क्षमता देता है। अपने लिए भी थोड़ा-सा जीने का समय देता है। अन्यथा तो जीवन . . . बस व्यतीत होता रहता है,” कह कर दीदी चुप हो गयी। मैंने महसूस किया कि उनके चेहरे पर थोड़ी नहीं बल्कि बहुत गहरी उदासी लिपटी है।
“किन्तु दीदी आप तो . . .”
“मैंने पढ़ाई अवश्य की किन्तु आत्मनिर्भर होने का स्वप्न लिए यहाँ से विदा हो गयी। अब मेरा जीवन मेरे बच्चों के लिए है, ये तो मेरा सौभाग्य है। इसके अतिरिक्त मेरे जीवन में अपने लिए कुछ शेष नहीं है,” मेरी बात पूरी होने से पूर्व ही दीदी ने अपनी बात कह दी।
“दीदी, मैं आपकी बात को सदा स्मरण रखूँगी। मैं भी आपको यही बताने वाली थी कि मैं कुछ करने के पश्चात् ही विवाह करूँगी। यद्यपि मम्मी-पापा शीघ्र मेरा विवाह कर अपना उत्तरदायित्व पूरा करना चाहते हैं। वे अपनी जगह सही हैं किन्तु मैं उन्हें थोड़ी प्रतीक्षा करने के लिए कहूँगी,” मैंने दीदी से कहा।
दीदी ने मेरी ओर देखा। उनके चेहरे पर असीम संतोष छलक आया था।
दो दिनों तक घर में ख़ुशियों का वातावरण रहा। तीसरे दिन जीजा आये और दीदी की विदाई हो गयी। दो वर्ष के पश्चात् इस राखी में दीदी आयी थी तो उसके जाने के पश्चात् सूना घर बहुत दिनों तक हमें रुलाता रहा।
दिन व्यतीत होते जा रहे थे। समय रूपी चिकित्सक जीवन के बड़े से बड़े घाव को भर देता है। दीदी के जाने से सूने घर का सूनापन कुछ सीमा तक समय ने भर दिया। सभी अपने-अपने कार्यों में व्यस्त हो गये।
अब ताऊ जी के बच्चों में कुछ का विवाह हो गया था। जो थे उनसे भी समय बढ़ने के साथ रिश्तों में दूरियाँ बढ़ गयी थीं। मात्र औपचारिकता शेष रह गयी थी।
मेरी स्नातकोत्तर की वर्षिक परीक्षाएँ सम्पन्न हो गयीं थीं। मैंने अपने लक्ष्य से विलग नहीं हुई। बैंक की नौकरी के लिए तैयारी तथा रिक्तियाँ निकलने पर फ़ॉर्म भरना तथा परीक्षाएँ भी देती रही।
. . . और एक दिन बैंक में मेरी नियुक्ति का पत्र मेरे हाथ में था। घर में ख़ुशियों का जैसे प्रवाह-सा हो गया। पापा तो ख़ुश थे ही उनसे अधिक ख़ुश मेरी मम्मी थीं। उन्हें अब प्रतीत हो रहा था कि मेरी नौकरी लग जाने के पश्चात् शीघ्र उनका एक बड़ा उत्तरदायित्व पूर्ण हो जाएगा।
मम्मी का वो बड़ा उत्तरदायित्व यही था कि अब मेरा विवाह एक नौकरी करते हुए लड़के से हो जाये। उधर मैं नौकरी ज्वाइन करके व्यस्त हो गयी। मुझे भी मेरा लक्ष्य प्राप्त हो गया था।
दीदी ने सुना तो फोन पर उनकी ख़ुशी छुप नहीं पा रही थी। भावुकता से भरे उनके शब्द तो स्पष्ट हो ही रहे थे . . . नेत्रों में छलक आये उनके अश्रु भी मुझे स्पष्ट दिख रहे थे।
मम्मी मेरे विवाह के लिए कपड़े और कुछ आवश्यक गहने आदि लेने की चर्चा कर पापा के साथ बाज़ार जा कर यदाकदा लेने लगी थीं।
“मम्मी, अभी से ये चीज़ें ख़रीद रही हो। मेरा विवाह तय हो गया है क्या?” मैंने मम्मी से कहा।
“तय नहीं हुआ है तो हो ही जाएगा। तू नौकरी करने लगी है तो अब देर क्यों होगी?” मम्मी ने किसी विजेता की भाँति कहा।
मम्मी-पापा को रोकते-रोकते किसी प्रकार दो वर्ष भी न रोक पायी। मेरे नौकरी करने के दो वर्ष के भीतर पापा ने एक योग्य लड़का ढूँढ़ा और मेरे विवाह की तिथि तय कर दी।
लड़का नौकरी में था। इस बात से मम्मी ख़ुश और संतुष्ट थीं। दीदी को मेरा विवाह तय हो जाने की बात ज्ञात हुई तो उन्होंने भी प्रसन्नता प्रकट की।
बस . . . मेरे विवाह की तैयारियाँ ठीक उसी प्रकार प्रारम्भ हुईं जैसे दीदी की। सब कुछ दीदी के विवाह की तरह हुआ। मुझे भी मेरे माता-पिता ने वो सब कुछ विदाई में दिया, जितना दीदी को दिया था।
मेरे पति के साथ उनके परिवार के लोगों को भी जिन्हें मेरे पति के माता-पिता द्वारा बताया गया सबको उपहार दिया। वो सब कुछ उपहार नहीं था। मेरी दृष्टि में पूर्णतः दहेज़ था।
किन्तु कोई बात नहीं मेरे माता-पिता ने मेरी ख़ुशी के लिए वो सब कुछ दिया था। मेरे लिए भी उन वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं। मैं आत्मनिर्भर हूँ तो वे चीज़ें मेरे लिए कोई मायने नहीं रखती क्यों कि उनमें उपहार वाले स्नेह-नेह का भाव नहीं बल्कि उसमें मेरे माता-पिता द्वारा घर के ख़र्चों में कटौती कर उपहार के नाम पर दहेज़ ख़रीदने की विवशता थी।
जो भी हो, जैसा भी हो, मेरा विवाह कर मेरे माता-पिता की प्रसन्नता देखते ही बनती थी। दीदी की भाँति मैं भी विदा होकर ससुराल आ गयी।
अपने विवाह के लिए मैंने लगभग दस दिनों का अवकाश लिया था। वो अवकाश ससुराल जाने के चौथे दिन समाप्त हो जाना था। पाँचवें दिन मुझे बैंक में अपनी उपस्थिति देनी थी। ये सब कुछ ठीक से सम्पन्न हो गया।
चौथे दिन पति के साथ ससुराल से माँ के घर आयी। पाँचवें दिन सही समय पर बैंक में उपस्थित होकर अपना काम सम्हाल लिया। मेरी बैंक की नौकरी तो मेरे मायके में थी। और मुझे नौकरी करनी थी। मेरे पति की नौकरी उनके अपने शहर में थी। अतः उन्हें भी अपनी नौकरी पर जाना ही था।
“तुम अपनी नौकरी करो, मैं अपनी। अब कब आओगी? कितने दिनों के लिए?” मेरे पति के शब्दों में व्यंग्य का पुट था।
“अपनी-अपनी क्यों? हम दोनों मिल कर मेरे स्थानान्तरण का प्रयास क्यों न करें? मैं झाँसी में (पति झाँसी में रहते हैं) स्थानान्तरण ले लूँगी,” मैंने पहली विदाई में पति के समक्ष अपनी विनम्रता दिखते हुए कहा।
“ठीक है। वो सब बाद की बातें हैं। अभी तो सच्चाई यही है पत्नी जी . . . कि मैं अपनी और तुम अपनी नौकरी करो,” मेरे पति ने कहा।
“नहीं ऐसा नहीं होगा। एक-दो दिनों में मैं स्थानान्तरण का प्रोसिजर पता कर अपना आवेदन पत्र लगा दूँगी,” मैंने पति से कहा।
“ठीक है जैसी तुम्हारी इच्छा,” मेरे पति ने कहा।
अगले दिन उनकी विधिवत् विदाई हो गयी। ससुराल से उनकी पहली विदाई जो थी। अतः उन्हें मम्मी-पापा ने कई उपहार भी दिये।
जब से मैं आत्मनिर्भर हो गयी हूँ तब से मुझे उपहार में क्या दिया? क्या लिया? इन चीज़ों का कोई महत्त्व नहीं रह गया है। अब मुझे ये भी महसूस होता है कि किसी स्त्री की आत्मनिर्भरता और किसी पुरुष की आत्मनिर्भरता में अन्तर होता है।
अधिकांशतः पुरुषों के आत्मनिर्भर होने से उनमें अभिमान, कुछ सीमा तक लोभ आ जाता है किन्तु एक स्त्री के आत्मनिर्भर होने पर उसे चीज़ों का लोभ नहीं रहता। उसके भीतर ऐसा स्वाभिमान उत्पन्न होता है जो असमर्थ लोगों की सहायता करने की भावना उत्पन्न करता है।
जो भी हो . . . हो सकता है ये मेरा अपना विचार हो। सभी का मेरे विचारों से सहमत होना आवश्यक नहीं।
अगले दिन से मैंने झाँसी में अपने स्थानान्तरण के लिए प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया। मेरी अपने पति से फोन बात करती रहती। आपसी कम्यूनिकेशन का अन्य कोई मार्ग भी तो नहीं था।
मैंने पति को बताया कि मैंने अपने स्थानान्तरण के लिए प्रार्थना-पत्र तैयार कर लिया है। मैंने ये भी बताया कि प्रार्थना-पत्र में उनके हस्ताक्षर भी चाहिएँ। मेरे पति ने अवकाश मिलने पर आने की बात कही।
संतुष्ट हो कर मैं पति के अवकाश लेकर आने की प्रतीक्षा करने लगी।
“मुझे अभी अवकाश नहीं मिल पा रहा है। मैंने पता किया है कि तुम्हारे अकेले के प्रार्थना-पत्र से भी स्थानान्तरण की कार्यवाही आगे बढ़ेगी। अतः तुम अकेले प्रार्थना-पत्र लगा दो। अवकाश मिलते ही मैं आ जाऊँगा। तब दूसरा प्रार्थना-पत्र भी लगा देंगे,” कुछ ही दिनों के पश्चात् मेरे पति का फोन आया।
“ठीक है। ऐसा ही करती हूँ,” मैंने पति से कहा।
दो माह व्यतीत हो गये। मेरे पति को कदाचित् अवकाश नहीं मिल पाया। विवाह के पश्चात् पति व ससुराल के प्रति मेरे भी दायित्व थे। मुझे अपने ससुरालीजनों से मेल-मुलाक़ात करनी थी। बहुत दिनों से किसी से मिलना नहीं हो पाया था। अतः मैं चार दिनों का अवकाश लेकर अपने भाई के साथ झाँसी गयी। अपने आने की सूचना मैंने अपनी सासू माँ को फोन कर बता दिया था।
मैं दिन के लगभग एक बजे ससुराल पहुँच गयी। सभी लोग घर में थे। क्यों कि वो अवकाश का दिन था।
“मम्मी ने बताया कि तुम आज आने वाली हो,” मेरे घर में प्रवेश करते ही मेरे पति ने मुझसे कहा।
“हाँ, अपने आने की सूचना मम्मी जी को मैंने फोन पर दे दी थी,” मुस्कुराते हुए मैंने अपने पति से कहा।
“ओह! तो मुझे बताना आवश्क नहीं था या मुझसे बात करना नहीं चहती थी,” मेरे पति के चेहरे पर मुस्कुराहट थी। मैंने महसूस किया कि वो मुस्कुराहट मात्र चेहरे के ऊपरी सतह पर थी।
जो भी हो मेरे पति ने मेरे आने पर प्रसन्नता दिखाई इससे मैं प्रसन्न थी।
“आप कब अवकाश लेंगे? हमारे स्थानान्तरण के प्रार्थना-पत्र पर आपके भी हस्ताक्षर होंगे तब काम शीघ्र होगा। आप मेरे साथ बैंक के मुख्यालय चल कर निदेशक से मिल लेंगे तो और शीघ्र विचार हो सकता है।” अगले दिन मेरे पति कार्यालय जाने के लिए तैयार हो रहे थे तो मैंने कहा।
“हूँ। ठीक है। अवकाश मिलते ही आऊँगा। उसी समय बात कुछ आगे बढ़ेगी। तब तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। प्रतीक्षा करो,” मेरे पति ने इतनी सहजता से कहा मानों उन्हें मेरे स्थानान्तरण की शीघ्रता नहीं है।
तीन दिनों तक मैं ससुराल में रही। मेरे पति तीनों दिन कार्यालय जाते रहे। कार्यालय जाना आवश्यक भी था। चौथे दिन मैं माँ के घर आ गयी। मैंने भी चार दिनों का अवकाश लिया था। मुझे भी कार्यालय जाना था।
“दीदी, जीजू कब कहे हैं आने के लिए? कब आ कर तुम्हारे एप्लीकेशन पर साईन करेंगे?” ट्रेन में मैं चुप बैठी थी कि भाई ने पूछा।
“मुझे कुछ नहीं पता। कुछ भी ठीक से नहीं बता रहे हैं,” मैंने भाई की ओर देखे बिना कहा।
मैं मन ही मन सोच रही थी कि ससुराल के रिश्ते क्या ऐसे ही होते हैं? या कि मैं ही ग़लत हूँ? मुझे रिश्तों में अपनापन या एक बहू के स्वागत् की वो गर्मजोशी क्यों नहीं दिखाई दी? . . .
आख़िर मैं ही तो पहल कर के ससुराल में सबसे मिलने आयी थी। अपनापन व स्नेह के बन्धन के कारण ही तो मैंने दो कपड़े रखे . . . भाई को साथ लिया और सबसे मिलने चली आयी। ये भी नहीं सोचा कि मिलने के लिए ससुराल से बुलावा आना चाहिए।
“दीदी, यहाँ सबसे मिल कर तुम्हें सब कुछ ठीक लग रहा था?” मुझे चुप देखकर सहसा भाई ने पूछा।
“ हाँ, सब कुछ ठीक लग रहा था। क्यों? क्या हुआ?” मैंने भाई के प्रश्न का उत्तर देते हुए पूछा।
“तो ठीक है दीदी। तुम्हें ठीक लग रहा था तो मैं ही ग़लत हो सकता हूँ। छोटा हूँ न? उतनी समझ नहीं है,” भाई ने कहा। अभी तक ख़ुशी से भरा उसका चेहरा उतर गया था।
मैं सोचने लगी कि भाई को मेरी ससुराल में क्या ठीक नहीं लगा? क्या भाई ने भी वही महसूस किया था जो मैंने। कुछ देर तक सोचने और कोई विशेष बात न होने के कारण मैंने इस विषय पर सोचना छोड़ दिया। अगले दिन कार्यालय जा कर अपने स्थानान्तरण के प्रयास में अगला क़दम क्या होना है, इस पर विचार करने लगी।
. . . सोचती रही किन्तु कुछ भी समझ नहीं आ रही था कि अपने पति के बिना स्थानान्तरण का प्रयास कैसे करूँगी? मैं कुछ दिनों तक इस विषय पर सोचना छोड़ कर कार्यालय और घर की दिनचर्या में लगी रही। घर?
घर? कैसा घर? किसका घर? माता-पिता का घर? जहाँ मैं पैदा हुई। पढ़-लिख कर इस योग्य बनी कि अपने पैरों पर खड़ी हो सकी . . . वो मेरा जन्म स्थान मेरा अपना घर नहीं रहा। मेरे विवाह के पश्चात् मम्मी यही तो कहती है कि बैंक से आकर कुछ देर आराम किया करो। अपने घर जाओगी तो जो चाहे करना।
अपने घर जाना है। यही सोच कर मैं अपने पति को लगभग प्रतिदिन फोन करती। मेरे पति का फोन भी यदाकदा आ जाता। लगभग एक वर्ष होने को आ गये, मेरे पति को अवकाश नहीं मिला। इतना अवकाश अवश्य मिल जाता कि प्रतिमाह मेरी सैलरी से एक हिस्सा अपने अकाउन्ट में डालने के लिए फोन कर देते।
मेरी परेशानी देखकर एक दिन मेरे मैनेजर ने मेल से अपनी अप्लीकेशन बैंक के मुख्यालय के साथ सभी प्रादेशिक कार्यालयों में भेजने के लिए कहा।
मैंने ऐसा ही किया। मेरी मेल का प्रभाव पड़ा। मेरी विवशता मेरे विभाग ने समझा और शीघ्र होने वाले स्थानान्तरण की सूची में मेरा नाम डाल दिया।
घर पहुँच कर सबसे पहले मम्मी-पापा को यह सूचना दी। मेरे स्थानान्तरण की ख़बर पा कर वे अत्यन्त प्रसन्न थे। फ़ुर्सत से पति से बात करने तथा यह सुखद सूचना देने के लिए मैंने अपने कमरे में जाकर उन्हें फोन मिला दिया।
“क्या परेशानी थी तुम्हें वहाँ रहने में? अपना स्थानान्तरण यहाँ कराने के लिए इतना भागदौड़ करने की क्या आवश्यकता थी? जैसे वहाँ रह रही हो वैसे ही यहाँ रहोगी,” पति की बात सुनकर मैं सन्नाटे में आ गयी और चुप हो गयी। कुछ-कुछ नहीं बल्कि सब कुछ समझ में आने लगा था।
“ . . . न जाने क्या जल्दी पड़ी है यहाँ आकर रहने की,” धीमी आवाज़ में बुदबुदाते हुए पति ने कहा और फोन रख दिया।
कुछ देर तक मैं यूँ ही फोन पकड़े बैठी रही। सोचती रही कि मुझे अब क्या करना चाहिए?
“बेटा, चाय पीने आओ। ठंडी हो जाएगी,” मुझे बुलाने के लिए मम्मी ने आवाज़ दी।
“आ रही हूँ मम्मी। चाय ठंडी नहीं होने पाएगी। समय से निर्णय लूँगी और समय पर आऊँगी,” कहते हुए मैं चाय पीने डायनिंग मेज़ पर आ कर बैठ गयी।
“न जाने क्या बोलती है ये लड़की . . . कुछ समझ में नहीं आता,” कहते हुए मम्मी रसोई में नाश्ता लेने चली गयीं।
मेरे पहुँचने से पूर्व भाई डायनिंग मेज़ पर बैठा मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।
“कहाँ रह गयी थी दीदी? चाय ठंडी हो रही है। तुम्हारी प्रतीक्षा कर के मम्मी ड्राइंग रूम में पापा को चाय देने चली गयीं,” भाई ने कहा। मैं जानती थी कि शाम की चाय पापा ड्राइंगरूम में टीवी पर समाचार देखते हुए पीते हैं।
“मैं? मैं न जाने कहाँ रह गयी थी? जहाँ थी उस स्थान को पहचान नहीं पाई थी। जब झाँसी से लौट रही थी तब ट्रेन में तुमने जो पूछा था कि दीदी तुम्हें सब कुछ सामान्य लग रहा था? अब मैं वहीं पहुँची हूँ। तब उस स्थान को समझ नहीं पायी थी। अब तुम्हारी बात, ससुराल का वो स्थान और वहाँ के अपने लोगों को भी अब समझ पायी हूँ . . .
“तू मुझसे छोटा है किन्तु समझदार है,” भाई को अपनी ओर अर्थपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पा कर मैंने अपनी बात पूरी की।
“क्या पूरा हो रहा है भई, तुम लोगों में?” मम्मी ड्राइंगरूम से आ गयी थीं।
“मम्मी, अभी तो कुछ पूरा नहीं हुआ है। मैं अपना लक्ष्य पूरा कर तुम्हें बताऊँगी,” मैंने मम्मी से कहा।
“ठीक है बहुत बढ़िया। मम्मी का सपोर्ट हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा,” मम्मी ने कहा। और रसोई में किसी काम से चली गयीं।
भाई मेरी ओर देखकर मुस्कुरा पड़ा। उसकी मुस्कुराहट सामान्य मुस्कुराहट नहीं थी बल्कि एक फीकी और उदास मुस्कुराहट थी। मैंने भी सोच लिया कि अपने भाई-बहनों और मम्मी-पापा के चेहरों पर वास्तविक मुस्कुराहट लाना शेष है।
“पैसे भेज देना। सैलरी तो आ गया होगी तुम्हारी?” सप्ताह भर भी न बीते थे कि मेरे पति का फोन आया।
“हाँ, बिलकुल आ गयी है। किन्तु तुम्हें एक फूटी कौड़ी अब नहीं भेजने वाली हूँ। मेरे साथ सम्बन्ध तोड़ने के लिए हो सके तो थोड़ा-सा अवकाश निकाल लेना,” मैंने सख़्त शब्दों में कहा।
“क्या . . .?” पति के शब्द भी सख़्त हो गये थे।
“ना . . . ना . . . ना . . . अपशब्द निकालने की तो ग़लती न करना, फोन वाइस रिकार्डर पर लगा है!” कहते हुए मैंने फोन रख दिया।