साथ छूटा, स्वप्न रूठे

23-02-2019

साथ छूटा, स्वप्न रूठे

राघवेन्द्र पाण्डेय 'राघव'

मूल लेखिका : विद्या पणिकर (Love, loss and nightmares)
अनुवादक : राघवेन्द्र पाण्डेय ‘राघव’

 

नींद
चुपके-चुपके आती है
घेर लेती है मुझे
आँखे बंद हैं
मन मंद है
पर सोई नहीं हूँ अभी
मन मेरा
सुवासित फूलों से मह-मह
तुम्हारे प्यार के आगोश में
अब भी !
यह गंध
मन मकरंद को
दौड़ाती यहाँ-वहाँ
जूड़े में अपने
हरसिंगार लगाए

प्यार
एक खूबसूरत दुल्हन है

नींद ने घेरा बढ़ाया
आँखें नाचती रहीं
पलकों के नीचे
वह प्यारी दुल्हन
बीमार है
दुबकी पड़ी है
चादर के नीचे
पर सामने तुम हो
सो, खुश है सायास !

कहाँ हूँ मैं !
नहीं पता कुछ
नींद ले उड़ी मुझे
गहन गर्त में !
जा गिरी हूँ
अँधियारी कोठरी के भीतर
जम सी गई हूँ
असुरक्षित हूँ
भयभीत हूँ

कौन है यहाँ !
यह रक्त गंध
ये छिटके हुए लोथड़े
कहाँ हूँ मैं
मेरी आवाज़
कोई सुनता है क्या !

ओह !
यह श्मशान है शायद,
जहाँ कुचल दिए जाते हैं सपने
दफना दी जाती है आशाएँ
यहाँ मैं सिरकटी लाश हूँ
लुढ़क रही हूँ
गिर रही हूँ
मर रही हूँ ...

जागी मैं सहसा !
उफ्फ!
फिर से वही सपना
वही दु:स्वप्न
जो कल
जो परसों
जो बरसों से
हर दिन दिखता है
मुझे
तुम्हें खोने के बाद !

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