एक औसत रात : एक औसत दिन

03-05-2012

एक औसत रात : एक औसत दिन

डॉ. शैलजा सक्सेना

साँझ का धुँधलका, सब धुँधला दिखे
थक गए पाँव मन भी थकने लगा
चक्र दिन का थका टूटता सा हुआ
रात के आँचल में चुप सोने चला।
 
देह ने देह को फिर आवाज़ दी
मन के चिल्लाते प्रश्न कहीं दब गए
बुद्धि भावों को पलने में चुप सो गयी
इंद्रियों में चाह के नयन जग गये।
 
अँगुलियाँ भटकती रहीं रात भर,
पगडंडियाँ देह में नई बनती गईं
बादल सा तन – मन तिरता रहा
खिला मन का कमल पँखुरी-पँखुरी।
 
फिर महाजन सी देखो सुबह हो गई
कर्ज़दारों सा जीवन सहमने लगा
फिर दबे प्रश्न सूरज से जलने लगे
उत्तरों को मन छटपटाने लगा।
 
दीवारों से निकल आये अभावों के प्रेत
आक्षेपों का जंगल फिर उगने लगा
चाहत चरमराकर चटकने लगी
देह के दैन्य पर मन हँसने लगा।
 
रही सुख की सीमा वही पल दो पल
असुख धुँध सा मन पर छाया रहे
रात जिसे बाँध आँचल में मेरे गई
प्रीतम वही अजनबी सा लगा॥
 

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