दूर न जाना बिटिया

15-01-2025

दूर न जाना बिटिया

नीरजा हेमेन्द्र (अंक: 269, जनवरी द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

“अम्मा मैं छत पर जा रही हूँ। अपना खाना भी वहीं ले जा रही हूँ,” रश्मि ने माँ से कहा और भोजन की प्लेट लेकर सीढ़ियाँ चढ़ती हुई छत पर जाने लगी। इस समय दोपहर के दो बज रहे हैं। माँ जाड़े की धूप में आँगन में बैठी शाम के भोजन के लिए मेथी का साग तोड़ रही थीं। रश्मि अभी-अभी काॅलेज से आयी है। हाथ मुँह धोकर अपने लिए भोजन लेकर वह माँ से पूछकर छत पर जाने लगी। माँ ने रश्मि के हाथ में पकड़े हुए भोजन की प्लेट की ओर देखा। 

“अरे, सिर्फ़ गुड़-रोटी लेकर जा रही है। निमोना और चावल भी बना है, वे कौन खाएगा?” माँ ने कहा। जब तक अम्मा की बात पूरी होने पाती, तब तक रश्मि उछलती-कूदती छत पर जा चुकी थी। 

अम्मा जानती हैं कि वो घूम-घूम कर छत पर गुड़-रोटी खाएगी और अपनी छोटी बहन अंशिका से बातें करती जाएगी। रश्मि और अंशिका एक ही काॅलेज में पढ़ती हैं। रश्मि इस वर्ष नौवीं और अंशिका सातवीं कक्षा में पढ़ रही है। इनका काॅलेज घर से अधिक दूर नहीं है। वे दोनों एक साथ पैदल काॅलेज आती-जाती हैं। अभी-अभी ये दोनों काॅलेज से आयी हैं और रश्मि गुड़-रोटी लेकर छत पर चली गयी है। अंशिका पहले ही छत पर जा चुकी है। 

सर्दियों के दिन हैं। खिली धूप में घूमना-फिरना इन्हें अच्छा लगता है। साँझ को धूप जब ढलती हुई छत की रेलिंग से नीचे उतरने लगती है, तब वे दोनों नीचे आती हैं। 

इस समय घर में कोई काम भी नहीं होता है। ये काॅलेज से आकर कुछ देर के लिए मूड फ़्रैश करना चाहती हैं और छत पर चली जाती हैं। पूस की धूप किसे भली नहीं लगती? आजकल दिन में सभी अपने घर की छतों, दालानों अथवा धूप वाले खुले आँगन में बैठ कर दोपहर की धूप का आनन्द लेते दिखाई देते हैं। रश्मि को भी खुली छत व खुले वातावरण में रहना अच्छा लगता है। 

रश्मि और अंकिता इस छोटे-से क़स्बे सोनवा में रहती हैं, जो एक क़स्बे से विकसित होता हुआ धीरे-धीरे छोटे शहर के रूप में विकसित हो रहा है। अभी यह शहर एक ओर खेत, बाग़-बग़ीचे, ताल-तलैयों से समृद्ध है, तो दूसरी ओर स्कूल-काॅलेज, अस्पताल तो कहीं बड़ी-बड़ी दुकानें, छोटे–बड़े माॅल आदि के बन जाने से एक छोटे शहर का रूप लेता जा रहा है। यहाँ रहने वाले आज के शहरी होते लोगों में कहीं न कहीं पहले वाला गाँव बसा हुआ है . . . छुपा हुआ है। 

रश्मि के पिता राम शरण जी का परिवार यहीं का रहने वाला है। उनका परिवार कब से यहाँ रह रहा है, उन्हें पता नहीं। उनके दादा-परदादा बताते हैं कि वे लोग इसी गाँव के निवासी हैं। पूरा कुनबा, भाई-पट्टीदार सभी इसी गाँव में रहते हैं। 

राम शरण जी के अपने परिवार में दो बेटियाँ और दो बेटे हैं। दोनों बेटियाँ रश्मि और अंशिका बेटों से बड़ी हैं। चारों बच्चे घर के समीप स्थित एक काॅलेज में पढ़ते हैं। काॅलेज अभी-अभी नया खुला है। बमुश्किल चार वर्ष हुए हैं। इसमें नये नामांकन होते जा रहे हैं। यहाँ पढ़ने वाले बच्चों की संख्या ठीक-ठाक है। 

इस समय दोनों छोटे बेटे भी स्कूल से आकर घर के सामने पड़े ख़ाली मैदान में अपने हम उम्र बच्चों के साथ खेल रहे हैं। राम शरण जी की इच्छा है कि दोनों बेटियाँ रश्मि और अंकिता पढ़-लिख जाएँ और उनका विवाह पढ़े-लिखे, खाते-पीते परिवार में हो जाए। 

साथ ही यह भी कि बेटियों का ब्याह किसी बड़े शहर में हो। यहाँ रहने वाले उनके एकाध रिश्तेदारों की बेटियों का ब्याह गाँव में खेती-किसानी वाले परिवार में हो गया है। अनाज-पानी घर में भले ही भरा हो, किन्तु उन बेटियों की ज़िन्दगी गाँव तक ही सीमित हो गयी है। 

वे बेटियाँ जब भी पीहर आती हैं, उनकी बातों से यूँ प्रतीत होता है मानो वो घुटन भरी ज़िन्दगी जी रही हों। विवाह पूर्व की वो उमंग-उछाह, बात-बात में खिलखिला पड़ने वाली . . . . . . खेतों-बाग़ों में हिरनी की भाँति कुलाँचें भरने वाली उन लड़कियों के चेहरों पर विवाह के पश्चात् उदासी व निराशा की परतें तथा आँखें स्वप्न रहित दिखती हैं। 

उन बेटियों के अनुसार उन्हें अब अपना शेष जीवन किसी प्रकार काटना हैै। वे कहती हैं कि उनका जीवन अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए है। अपना जीवन जितना भी जीना था, पीहर में माता-पिता के घर जी चुकी हैं। 

राम शरण जी सोचते हैं कि उनकी बेटियों के साथ ऐसा न हो। यही कारण है कि अपनी बेटियों को ख़ूब पढ़ा-लिखा कर उनका ब्याह शहर में करना चाहते हैं। जिससे उनकी बेटियाँ ख़ूब ख़ुश रहें। इन्हीं सपनों के साथ दिन व्यतीत होते जा रहे हैं। 

“माँ, मैं अपनी फ़्रैण्ड राधिका के घर जाऊँ? थोड़ी देर में आ जाऊँगी,” रश्मि ने अपनी माँ से पूछा। 

माँ छत की अरगनी पर पड़े कपड़ों को उलट-पलट रही थीं। पूस माह की धूप तो मानों निकलते ही ढलने लगती है। दिन छोटे होते हैं। धूप में पड़े सुबह के कपड़े शाम तक सूख नहीं पाते हैं। इस समय मुहल्ले के लगभग सभी घरों की छतों की अरगनियों पर दूर-दूर जहाँ तक दृष्टि जाती है, रंग-बिरंगे कपड़े सूख रहे हैं। 

“जाओ, शीघ्र आ जाना। अंशिका को भी साथ में ले लो। आजकल शाम जल्दी ढलने लगती है। दिन रहते-रहते आ जाना,” माँ ने रश्मि से कहा। 
 
“ठीक है मम्मी, आ जाऊँगी,” रश्मि ने कहा। 

रश्मि और अंशिका ने बाहर पहनने वाले कपड़े पहने और तैयार होकर, प्रसन्नचित्त आपस में बातें करती हुई अपनी मित्र राधिका के घर की ओर चल दीं। राधिका का घर इसी मुहल्ले में कुछ घर छोड़ कर आगे है। दोनों बहनों को एक साथ जाते देख छोटा भाई आयुष दौड़ता हुआ माँ के पास आया। 

“माँ, मैं भी दीदी के साथ घूमने जाऊँगा,” आयुष ने हठपूर्वक कहा। 

“तो जाओ न!” माँ ने कहा। 

“कैसे? वो तो चली गयीं,” आयुष ने मायूसी से कहा। 

“जब दीदी जा रही थी, तब तुम कहाँ थे? दीदी तो अपनी सहेली राधिका के घर गयी है,” माँ ने कहा। 

“मैं बाहर खेल रहा था। मैंने दोनों को उधर जाते हुए देखा है। मुझे भी जाना है मम्मी,” आयुष ने हाथ से राधिका के घर की ओर संकेत करते हुए कहा। 

“नहीं बेटा, अभी वो जा चुकी हैं। तुम खेलकर आये हो। हाथ-पैर गंदे हैं। दीदी कभी फिर कहीं घूमने जायेगी तो तुम्हें ले जायेगी। हम कह देंगे . . . अभी हैण्डपम्प से हाथ मुँह धोकर साफ़ कपड़े पहन लो। पापा आ रहे होंगे। होमवर्क कर लो। शाम को पापा भी पढ़ने के लिए बैठाएँगे,” माँ ने आयुष से कहा। 

“ठीक है। अगली बार हम भी दीदी के साथ घूमने जाएँगे,” कोई अन्य मार्ग न देख आयुष ने कहा। 

“हाँ . . . हाँ ठीक है। हम दीदी से कह देंगे। अभी हाथ-मुँह धोकर राजा बेटा बन जाओ,” माँ ने कहा। 

आयुष ख़ुश होते हुए आँगन में लगे हैण्डपम्प से हाथ मुँह धोने लगा। 

प्राकृतिक रूप से भूमि से निकलता हुआ हैण्डपम्प का पानी गर्मियों में शीतल और सर्दियों में गुनगुना आता है। हैण्डपम्प के पानी की यही विशेषता है। इस छोटे-से शहर के लगभग प्रत्येक घर के आँगन-दालान में हैण्डपम्प लगा हुआ है। 

आयुष हाथ-मुँह धोकर बरामदे में बिछे तख़्त पर बस्ता लेकर पढ़ने बैठ गया। कुछ ही देर में छोटा भाई अविरल भी खेलकर आ गया। वह भी हाथ-मुँह धोकर, कपड़े बदलकर तैयार हो गया। दोनों बेटे तख़्त पर बैठ कर होमवर्क करने लगे। 

होमवर्क कर वे दोनों कुछ देर आराम करेंगे। शाम को पापा के आ जाने पर थोड़ी पढ़ाई और करेंगे। तत्पश्चात् भोजन कर सभी बच्चे सोने चले जायेंगे। बच्चों की यही दिनचर्या है। बच्चों के इर्द-गिर्द ही बड़ों की भी दिनचर्या बँधी है। 

“ओह! साँझ होने वाली है। ये लड़कियाँ अभी तक नहीं आयीं,” दिन ढलता हुआ देख रश्मि की मम्मी मन ही मन चिन्तित हो उठी। 

“आयुष, छत से देखो दीदी आती दिख रही है क्या?” माँ की आवाज़ सुनते ही आयुष पढ़ाई छोड़कर भागता हुआ छत की ओर भागा। 

“अरे . . . अरे! ध्यान से देखकर धीरे से जाओ। भागो नहीं,” माँ की आवाज़ अनसुनी करता हुआ आयुष शीघ्रता से छत पर पहुँच गया। 

“मम्मी, दोनों आती दिख रही हैं किन्तु अभी दूर हैं। कमल वस्त्रालय के पास हैं। मम्मी, वो धीरे-धीरे बड़े आराम से बातें करती आ रही हैं। शाम हो रही है, जल्दी-जल्दी नहीं आ पा रही हैं,” आयुष ने बहनों के आने की सूचना तो दी। किन्तु बहनें उसे अपने साथ घुमाने नहीं ले गयीं इसलिए थोड़ी-सी उनकी शिकायत भी माँ से कर दी। माँ उसके कहने का अर्थ समझ गयी थीं। 

“ठीक है, अब नीचे आ जाओ,” माँ ने कहा। 

माँ जानती हैं कि बच्चों की आपस में शिकवा-शिकायत, नोक-झोंक चलती रहती है। रश्मि अगले वर्ष दसवीं की परीक्षा देगी। वह कहती है कि इस वर्ष की अपेक्षा अगले वर्ष उसे अधिक पढ़ना होगा। अभी इधर होने वाले अवकाश के दिनों में अपनी छोटी बहन व सहेलियों के साथ बारिश में कभी धान की रोपाई देखने, जाड़े के दिनों में खेतों में हरे मटर खाने तो कभी गन्ना खाने निकल जाती हैं। 

आम के वृक्षों पर जब टिकोरे (अमिया) लगती हैं तब भाई-बहनों व आसपास के बच्चों के साथ बाग़ों से टिकोरे बीनने निकल जाती हैं। चाहे लाख कहो पर बच्चे सुनते नहीं हैं कि अभी किसी दिन ज़रा-सी आँधी आएगी और टिकोरे कौड़ियों के भाव बिकेंगे। कोई पूछने वाला न होगा। अवश्यकता होगी तो अमिया बाज़ार से मँगा लेंगे। किन्तु बच्चे मानते नहीं हैं। कहते हैं कि बग़िया में जाकर टिकोरे बीनने में अच्छा आता है। 

रश्मि की माँ चाहती है कि एक-दो वर्ष के अन्दर उसका विवाह हो जाय। रश्मि की उम्र की कई लड़कियों का यहाँ ब्याह हो चुका है। रश्मि के पापा कभी भी उसके विवाह की चर्चा नहीं करते हैं। न कोई तैयारी करते दिखाई देते हैं। अपनी चिन्ता वो रश्मि के पापा से प्रकट भी करतीं। 
 
“नहीं, अभी नहीं। अभी तो वो नौवीं कक्षा में है। आजकल लड़कियाँ ख़ूब पढ़-लिख ले रही हैं, तब जाकर उनके माता-पिता उनके विवाह के बारे में सोचते हैं। मैं रश्मि को ख़ूब पढ़ाऊँगा-लिखाऊँगा। उसका विवाह शहर में करूँगा। जिससे वो सुखी रहे,” अपने पति की बातें सुनकर रश्मि की माँ चुप हो जातीं। 

वो सोचती कि ठीक ही कह रहे हैं, उनके पति। रश्मि शहर में रहेगी तो सुखी रहेगी। यहाँ की अपेक्षा बड़े शहरों में सभी सुविधाएँ हैं। भले ही यह छोटा शहर है। लड़़कियाँ यहाँ भी ख़ूब पढ़-लिख रही हैं। फिर भी यहाँ शहर वाली बात नहीं है। रश्मि ख़ूब पढ़ेगी। बड़े शहर में उसका ब्याह हो जाएगा तो वो ख़ूब सुखी रहेगी। 
 

शनैः-शनैः समय व्यतीत होता जा रहा है। रश्मि और अंशिका सदा साथ-साथ पढ़ने जातीं। पढ़ाई के साथ-साथ वे ख़ूब खेलती-कूदतीं, घूमतीं-फिरतीं। ग्रीष्म अवकाश के दिनों में भोर में उठकर अपनी सहेलियों के साथ बाग़ों, खेतों की ओर घूमने निकल जातीं। कभी घर के सामने के अपने बग़ीचे में फ़ोल्डिंग चारपाई मँगवा कर अपनी सहेलियों के साथ आम के वृक्ष के नीचे बैठ कर ख़ूब गप्पें मारतीं। बाग़ में लगे अमरूद के पेडों़ से कच्चे-पक्के अमरूद तोड़कर खातीं। 
 
जब आम पकने लगते तो दोनों बहनें अपनी सहेलियों को बुलाकर अपनी बग़िया में आम का दावत करतीं। कितना अच्छा लगता। बहुत मनमोहक दिन थे, किसी रंग-बिरंगे, कोमल, ख़ूबसूरत परिन्दे के समान। किसी को क्या पता था कि समय रूपी यह ख़ूबसूरत परिन्दा बहुत तेज़ी से उड़ कर कहीं दूर चला जाएगा। 

रश्मि ने दसवीं की परीक्षा पास कर ली। वह अत्यन्त प्रसन्न थी। 

“माँ, मैं अब ग्यारहवीं क्लास में चली गयी हूँ। इस बार मैं अपने बर्थडे पर ख़ूब अच्छा, अपनी पसन्द का सूट लूँगी और अपनी सहेलियों को घर पर बुलाऊँगी। शाम को केक भी काटूँगी,” रश्मि ने माँ से कहा। 

“हाँ . . . हाँ . . . सब हो जाएगा मेरी बिटिया। हम तो पिछले वर्ष ही कह रहे थे। तुम्हीं ने मना कर दिया था कि इस वर्ष बोर्ड का एग्ज़ाम है। अगले वर्ष बर्थडे मानाऊँगी,” माँ ने स्नेह करते हुए कहा। 

“हाँ माँ, इस बार मैं अपनी सहेलियों को बुलाऊँगी,” रश्मि ने पुनः कहा। 

“हाँ . . . हाँ . . . मैं कब मना कर रही हूँ,” माँ ने कहा। 
 
“मम्मी, क्या बनाएँगी खाने में उस दिन सबके लिए?” रश्मि अपने बर्थडे के बारे में माँ से ख़ूब बातें करना चाह रही थी। 

“बना दूँगी। अच्छी-अच्छी चीज़ें जो भी तुम कहोगी, उस दिन सब बना दूँगी। बर्थडे आने तो दो,” माँ ने कहा। मम्मी की बातें सुनकर रश्मि संतुष्ट होती हुई बाहर दालान की ओर चली गयी। माँ भी घर के कार्याें में लग गयी। 

दिन इतनी शीघ्रता से व्यतीत होते जा रहे थे, जैसे समय को पंख लग गये हों। समय के साथ रश्मि का क़द भी ख़ूब निकल आया। आख़िर ऐसा हो भी क्यों न? देखते-देखते दो वर्ष और व्यतीत हो गए थे। इण्टरमीडिएट की परीक्षा पास कर रश्मि ने इस वर्ष स्नातक प्रथम वर्ष में प्रवेश ले लिया था। अंशिका भी इस वर्ष बारहवीं कक्षा की परीक्षा दे रही थी। 
 
“सुनिए, लड़की सयानी हो रही है। हमें अब रश्मि के लिए वर देखना प्रारम्भ कर देना चाहिए,” एक दिन रश्मि की माँ ने अपने पति से कहा। 

“अभी से . . .? अभी तो रश्मि ने स्नातक भी नहीं किया है। अभी उसे और पढ़ने दो। पढ़ी-लिखी लड़की रहेगी तो विवाह होने में देर नहीं होगी। अच्छा रिश्ता भी मिल जाएगा,” रश्मि के पिता गोविन्द शरण जी ने कहा। “छोटी उमर में अब कोई लड़कियों का विवाह नहीं करता। ये सब गाँव-देहात की पुरानी बाते हैं। शहरों में रहने वाले पढ़ी-लिखी, समझदार लड़की चाहते हैं,” रश्मि की माँ को उहापोह की स्थिति में देखकर गोविन्द शरण जी ने आगे कहा। 

. . . ठीक ही तो कह रहे हैं रश्मि के पापा। एक-डेढ़ वर्ष में क्या चला जाएगा? रश्मि बी.ए. पूरा कर लेगी तो उसके भविष्य के लिए अच्छा रहेगा . . . रश्मि का माँ ने मन ही मन सोचा और संतुष्ट हो गयी। 

रश्मि और अंशिका ख़ूब मन लगाकर पढ़ रही थीं। पढ़ाई के साथ-साथ वे घर के कार्यों में माँ का हाथ भी बँटातीं। बस इसी प्रकार हँसते-खेलते दिन व्यतीत होते जा रहे थे। 

“रश्मि की माँ, सुनो। रश्मि के लिए एक रिश्ता आया है। मेरे एक मित्र के रिश्तेदार जो कि शहर में रहते हैं, उन्होंने एक लड़का बताया है,” एक दिन रश्मि के पापा ने कहा। 

“ये तो बड़ी अच्छी बात है। जाकर देख आइए,” रश्मि की माँ ने ख़ुश होते हुए कहा। 
 

गोविन्द शरण जी ने अपने मित्र के साथ लड़का देखने का मन बना लिया। वो भी चाहते थे कि कोई अच्छा लड़का मिले तो रश्मि का विवाह तय कर दें। कुछ माह पश्चात् रश्मि का स्नातक फाइनल की परीक्षा है। उसका ग्रेजुएशन पूरा हो जाएगा। विवाह तय रहेगा तो उन्हें विवाह की तैयारी करने का समय मिल जाएगा। 

कुछ दिनों पश्चात् गोविन्द शरण जी अपने मित्र के साथ रश्मि के लिए वर देखने चल दिये। उनकी ट्रेन बड़े शहर की ओर चल दी। बड़े शहर के स्टेशन पर पहुँच कर गोविन्द शरण जी ने रेलवे प्लैटफ़ॉर्म पर पैर रखा और स्टेशन की भव्यता देखते रह गये। कहाँ उनका वो छोटा-सा शहर जिसके रेलवे स्टेशन पर मात्र ट्रेन की दो पटरियाँ। कहाँ यहाँ अनेक पटरियाँ और पटरियों के पास साफ़-सुथरे, चैड़े प्लैटफ़ॉर्म। 

इस समय शाम होने में अभी समय है और अभी से सारे प्लैटफ़ॉर्म रंग-बिरंगी असंख्य लाईटों से जगमग-जगमग करने लगे हैं। यह सब देख उनके मन में प्रसन्नता की एक लहर-सी दौड़ गयी। कितना भव्य शहर है। उनकी बेटी का ब्याह इतने बड़े शहर में तय हो जाय जो वह बहुत ख़ुश रहेगी। 

अपने मित्र के साथ वे स्टेशन से बाहर निकल आये। ख़ूब चौड़ी सड़क, बड़ी-बड़ी गाड़ियों का आना-जाना, लोगों की भागती हुई भीड़ . . . कदाचित् कार्यालय छूटा था और सभी अपने-अपने घरों की ओर भाग रहे थे। ऑटो, टैक्सियों, रिक्शे, गाड़ियों की इतनी अच्छी व्यवस्था देख गोविन्द शरण जी को बहुत अच्छा लगा। वो मुस्कुरा पड़े। स्टेशन के बाहर आकर उन्होंने टैक्सी बुक की और मित्र के साथ लड़के वालों के घर की ओर चल दिए। 

रास्ते भर वो इस शहर को देखते जा रहे थे। सड़क के दोनों ओर बड़ी-बड़ी दुकानें, माॅल, ऑफ़िस आदि अपनी भव्यता के साथ खड़े थे। आधुनिक वेशभूषा में सजे-सँवरे शहरी लोग आ-जा रहे थे। इतना बड़ा शहर और उसमें विकसित सुख-सुविधाएँ देख उनकी प्रसन्नता बढ़ती जा रही थी। 

कुछ ही देर में वे लड़के वालों के घर पहुँच गए। लड़के का घर शहर के एक पुराने मुहल्ले में था। जिसे देखकर उन्होंने उन्होंने अनुमान लगाया कि शहर बड़ा होता गया होगा, नयी-नयी काॅलोनियाँ बसती गयी होंगी। लड़के वाले इस शहर के पुराने रहने वाले हैं। यही कारण है कि वे इस पुराने मुहल्ले के पुश्तैनी घर में रहते हैं। 

लड़के के पिता ने दरवाज़ा खोला। आरदपूर्वक इन्हें घर के बैठक में बैठाया। बाहर से देखने में लड़के का घर ठीक-ठाक था। दो मंज़िल का बना घर था। घर में लड़के के माता-पिता के अतिरिक्त एक छोटी बहन थी। परिवार में कुल चार सदस्य थे। छोटे परिवार के रहने के लिए ये घर पर्याप्त था। 

बातों-बातों में पता चला कि लड़का इसी शहर में नौकरी करता है। वह एक बड़ी प्राईवेट कम्पनी में है। अभी ऑफ़िस से आया नहीं है। उसके पिता कह रहे थे कि बस आता ही होगा। साथ ही यह भी कि शहर की आबादी बढ़ गयी है। सड़कों पर हर समय जाम की समस्या बनी रहती है। अतः कभी-कभी आने में विलम्ब भी हो जाता है। 

थोड़ी देर में लड़के के पिता एक ट्रे में उन लोगों के लिए जलपान ले कर आ गये। गोविन्द शरण जी ने आज ही लौटने के लिए सोचा है। किन्तु लड़के से मिलकर ही जायेंगे। विवाह की कोई बात आगे बढ़ाने से पूर्व पूरी तरह संतुष्ट होना आवश्यक है। यही सोचकर गोविन्द शरण जी ने लड़के के आने तक रुकने का निर्णय लिया है। लड़के का घर, उसके पिता का स्वभाव सब कुछ अच्छा है। लड़के से मिलना भी आवश्यक है। गोविन्द शरण जी व उनके मित्र वहीं बैठे रहे। शाम के लगभग साढ़े छह बजे लड़का घर आया। 

गोविन्द शरण जी को लड़का भी ठीक लगा। वे अपने साथ लड़की की फोटो लेकर आये थे जिसे उन्होंने अब लड़के के पिता को दे दी थी। उन्होंने लड़के से बातचीत की। उसकी नौकरी की जानकारी ली और लड़के के घर वालों को अपने घर आने का न्योता देकर वापस आ गये। 
 
लड़के के पिता शीघ्र ही पत्नी और बेटे के साथ गोविन्द शरण जी के घर आये। रश्मि सबको पसन्द आ गयी और विवाह की बात पक्की हो गयी। आने वाली लगन के शुभ मुहूर्त में धूमधाम से रश्मि का विवाह कर दिया। विदा हो कर रश्मि ससुराल चली गयी। 

बेटी के जाने के बाद गोविन्द शरण जी का घर सूना हो गया। पूरे घर में, दालान में, छत पर, आँगन में हर जगह छम . . . छम . . . करती, घूमती, चहकती उनकी बेटी घर सूना कर ससुराल के लिए विदा हो गयी थी। देखते-देखते यह घर उसके लिए पराया हो गया था। ससुराल ही अब उसका घर हो गया था। 

बेटी के बिना गोविन्द शरण जी और उनकी पत्नी का मन नहीं लग रहा था। रश्मि के भाई-बहन सभी उसको बहुत याद कर रहे थे। खाते-पीते, कहीं भी आते-जाते . . . बात-बात में रश्मि की चर्चा करते। आख़िर वह इस घर की सबसे बड़ी बेटी थी। उम्र के बाईस वर्ष उसने इस घर में सबके साथ व्यतीत किये हैं। उसकी स्मृतियाँ इस घर के कोन-कोने में बसी हुई हैं। 

“सुनो रश्मि की मम्मी, उदास न हो। चार दिन बाद चौथ में उसे विदा करा कर ले आऊँगा,” पत्नी को उदास देखकर गाविन्द शरण जी ने उन्हें समझाते हुए कहा। 

चार दिन व्यतीत हुए और रश्मि को विदा कराकर गोविन्द शरण जी घर ले आये। रश्मि को देख घर में सभी के चेहरे खिल गये। मानो अब से पूर्व पूरे घर ने उदासी की चादर ओढ़ रखी थी जो रश्मि के आते ही हट गयी हो। सबको ऐसा लग रहा था जैसे रश्मि को अब कभी यहाँ से कहीं नहीं जाना है। किन्तु रश्मि तो यहाँ बस तीन-चार दिनों के लिए आयी थी। अपने घर वालों का स्नेह देखकर रश्मि भी भावविह्वल थी। इन तीन-चार दिनों में वह भरपूर मायका जी लेना चाहती थी। तीन-चार दिनों पश्चात् रश्मि का पति यश उसे लेने आ जाएगा। उसे जाना होगा। यह घर तो उसके लिए विवाह पश्चात् ही पराया हो चुका है। 

विवाह पश्चात् चौथ जैसी रस्म की अनिवार्यता न होती तो रश्मि अभी माँ के घर न आ पाती। क्यों कि यश को कार्यालय से शीघ्र अवकाश मिलना मुश्किल था। किसी प्रकार दो दिन का अवकाश लेकर यश उसे विदा कराने आएगा। रश्मि की ससुराल यहाँ से दूर भी तो है। लगभग पूरा दिन आने-जाने में ही लग जाता है। यह सम्भव नहीं है कि जब इच्छा हो रश्मि माँ के घर आये और मिलकर चली जाये। 

पहले दिन घर में भाई-बहनों से ख़ूब गपशप, ख़ूब बातें होती रहीं। शाम को थोड़ा समय निकाल कर वह पास-पड़ोस की आंटियों से मिलने गयी। दूसरा पूरा दिन उसका अपनी सहेलियों से मिलने में व्यतीत हो गया। तीसरे दिन अपने भाई-बहनों व पड़ोस की कुछ हमउम्र सहेलियों के साथ वो खेत, बाग़-बगीचों की ओर घूमने निकल गयी। वह उन सभी स्थानों पर गयी, जहाँ वो विवाह से पूर्व भाई-बहनों के साथ घूमने जाया करती थी। 

इन स्थानों पर घूमना इस बार बहुत अच्छा लग रहा था रश्मि को। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों वृक्ष-लताएँ, खेत-बाग़, वृक्षों पर चहचहाते रंग-बिरंगे पक्षी, सभी उससे बातें कर रहे हैं। वह भी उनसे जुड़ाव का अनुभव कर रही थी। ऐसी अनुभूति पहली बार उसे तब हो रही थी जब वह उनसे बिछड़ने जा रही थी। उन सबको छोड़ कर कहीं दूर दूसरे शहर में बसने जा रही थी। पीहर से . . . . . . उससे जुड़ी इन सभी चीज़ों से उसका इतने दिनों का ही साथ था। अब विदा होकर जाएगी तो पुनः न जाने कब आना हो? 

दो-चार दिन और मायके में रहने के पश्चात् विदा होकर रश्मि ससुराल चली गयी। ससुराल के दो मंज़िला घर में रश्मि को ऊपर का कमरा मिल गया, जिसमें रश्मि ने अपनी छोटी-सी दुनिया सजा ली। एक कोने में पिता के घर से मिली आलमारी तो एक ओर दीवार से लगाकर पलंग बिछी और वहीं मेज़ पर प्रतिदिन की आवश्यकता की छोटी-बड़ी कुछ वस्तुएँ रख लीं। 
 
दिन व्यतीत होने लगे। रश्मि का पति यश सुबह नौ बजे काम पर निकल जाता। दिन में रश्मि घर के कार्यों में सास का हाथ बँटाती थी। दोपहर को थोड़ा आराम करती। शाम को यश घर आ जाता। इसी प्रकार रश्मि के जीवन की चर्या चलती रही। 

ससुराल में पहली सर्दियाँ थीं रश्मि की। घर के भीतर बिलकुल भी धूप नहीं आती थी। घर सब ओर से बन्द था। दिन में यदि किसी को धूप चाहिए तो उसे छत पर जाना होता था। घर के लोग काम ख़त्म होते ही दिन में छत पर चले जाते थे। घर के अन्दर के कमरों में बहुत ठिठुरन होती थी। घर में आँगन था ही नहीं। होता भी तो घर के चारों ओर इतने ऊँचे-ऊँचे घर बन गये थे कि धूप आती ही नहीं पाती। धूप सेंकने कभी-कभी रश्मि भी छत पर जाती। रश्मि के सास-ससुर धूप सेंकने के लिए दिन के अधिकांश समय छत पर रहते। अतः रश्मि अधिक नहीं जा पाती। सास भी नहीं कहतीं कि नीचे ठंड में सिकुड़ रही हो तो घूँघट कर छत पर आ जाओ। 

कहने को तो यश के घर के लोग स्वयं को शहर में रहने वाले शहरी मानते हैं। किन्तु ससुर के सामने घूँघट निकलवाते हैं। इन शहरियों से अच्छा परिवर्तन तो छोटे शहरों व गाँवों के लोगों में आ गया है। जहाँ महिलाएँ शहरी महिलाओं से अधिक आगे बढ़ने व स्वावलम्बन की भावना रखती हैं। और लड़कियाँ . . .! घर में साइकिल, स्कूटी नहीं है तो न सही, वे पिता व भाइयों की मोटर साइकिलों पर फर्राटे भरती दिख जाती हैं। 
 
शनैः-शनैः सर्दियाँ ढलान पर आ गयीं। ढलती सर्दियों के पश्चात् अपने साथ वसंत को लेकर आ गया है फागुन का महीना। रश्मि का पहला फागुन है ससुराल में। 

पीहर की स्मृतियाँ रश्मि को पुनः अपनी ओर खींच रही हैं। फागुन में बहने वाली वासंती हवा, बाग़ों से आती कोयल की कूक, हवाओं में व्याप्त महुए की मादक गंध . . . नयी कोंपलें, नव पल्लव, रंग-बिरंगे पुष्प, तितलियाँ . . . इन सबके बीच अपने आकर्षक रंग बिखेरता, मदमस्त चाल से धीरे-धीरे आता फगुआ यानी होली। मस्ती और मादकता को आमंत्रण देता प्रतीत होता फगुआ। 

ऐसे पर्वों में रश्मि को पीहर की ख़ूब याद आती। जब होली से दो-चार दिनों पहले घर-घर से उठने वाली गुझिया व पकवानों की मीठी महक से वातावरण महक-महक उठता। ऐसे मौसम में अपने भाई-बहनों व सहेलियों के साथ रश्मि बाग़ों की ओर निकल पड़ती। 

खेतों में लहराती-झूमती गेहूँ, तिलहन की फ़सलें, आम के बौर व पके हुए महुए की भीनी-भीनी गंध से वातावरण कितना सुगन्धित रहता। बिरवों पर लहराते पुष्प और कलिकाएँ लहरा-इठला कर कहतीं—यही है वसंत। इस ऋतु की पहचान बन चुकी कोयल की मीठी कूक। रश्मि कैसे विस्मृत कर सकती है वो सब कुछ। 

रश्मि को जब भी कोयल की कूक सुनाई देती वह भी कोयल जैसे स्वर में कूकने का प्रयत्न करती। रश्मि की प्रसन्नता उस समय और बढ़ जाती जब कोयल उसके कूक के स्वर का प्रत्युत्तर देती हुई रश्मि के साथ कूकती। 

दोनों ओर से देर तक स्वरों का आदान-प्रदान होता रहता। अनजानी-अनचिन्ही वो कोयल रश्मि की मित्र बन जाती। प्रतिवर्ष इसी वसंत ऋतु में वो रश्मि से मिलने आती। ओह! . . . कहाँ हैं वो दिन? कहाँ है मेरी मित्र वो कोयल . . .? स्मृतियों का भँवर और उसमें डूबती-उतराती रश्मि . . . स्मृतियाँ हैं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहीं . . . मन के न जाने किस कोने से बहुधा निकल पड़ती हैं . . .

फाग गाते नाचते-झूमते होरियारों की वो टोली, होलिका दहन के लिए घर-घर से कंडे-लकड़ियाँ माँगते उल्लसित बच्चों की टोलियाँ, स्वादिष्ट पकवानों का खाना-पीना, होली के दिन भाई-बहनों, सहेलियों का झुण्ड बनाकर आस-पास के घरों के बड़े-बुज़ुर्गों का पैर छूकर आशीर्वाद लेने जाना। कहाँ गये वो दिन . . . कहाँ गया वो सब कुछ . . . कहाँ छोड़ कर आ गयी रश्मि वो सब कुछ, यहाँ इस अजनबी शहर में? ओह . . .! इन स्मृतियों का क्या करे जो गाहे-बगाहे उसके समीप दबे पाँव आ जाती हैं। 

रश्मि प्रतीक्षा कर रही थी कि कब यश और उसके पापा बाज़ार जा कर होली के पकवान बनाने की सामग्री लाएँगे? कब वह अपनी सास के साथ मिलकर गुझिये, पुए, नमकीन आदि बनवाएगी। होली में बस तीन दिन ही शेष हैं। रश्मि की पहली होली जो ससुराल में है। उत्सुकता स्वाभाविक है। सामान तो अब तक आ जाना चाहिए। अगले दिन यश और उसके पापा बाज़ार से बनी-बनाई गुझिया, कुछ नमकीन के पैकेट और पापड़ आदि ले आये और हो गयी होली की तैयारी पूरी। 

होली ही क्यों लगभग सारे पर्व रश्मि ऐसे ही मनाती चली गयी . . . शहरी तौर-तरीक़ों से। इन तौर-तरीक़ों से उसे मनाना भी आ गया। पीहर की स्मृतियों को परे धकेल कर धीरे जीना भी सीख रही थी। 

समय आगे बढ़ता जा रहा था। रश्मि दो बच्चों की माँ बन गयी। उसकी छोटी बहन अंशिका का भी ब्याह हो गया। किन्तु बड़े शहर में नहीं अपितु मायके के पास के ही एक छोटे-से शहर में। अंशिका के साथ एक चीज़ अच्छी थी कि पीहर के समीप होने के कारण जब भी उसकी इच्छा होती, पीहर आ जाती। अंशिका के पति उसी शहर में सिंचाई विभाग में कार्यरत थे। अंशिका के विवाह में रश्मि गयी थी। उसे वहाँ इतना अच्छा लगा मानों प्रथम बार विधि-विधान से ऐसा विवाह होता देख रही हो। 

पाँच दिन पूर्व से प्रारम्भ हो चुका था विवाह का कार्यक्रम। सभी नाते-रिश्तेदारों की जुटान। ख़ूब हँसी-मज़ाक, नाच-गाना। विवाह की अनके रस्मों जैसे छई दरेती, हल्दी मटकोड़, कुआँ पूजन, देव पूजन, पीतर पूजन आदि के लिए पास पड़ोस की महिलाओं का सज-सँवर कर विवाह गीत गाते हुए मंदिर, कुएँ और बाग़ों में जाना . . . कितना सुन्दर लगा था सब कुछ। 

इन सब में रश्मि का मन ऐसा रमा कि कुछ दिनों के लिए वह विस्मृत कर बैठी कि वह विवाहिता है। इन सबके बाद उसे अपनी ससुराल जाना है। ऐसा नहीं कि ये सभी कुछ पहली बार हो रहा था बल्कि रश्मि के विवाह में भी ये सब कुछ हुआ था किन्तु उसने ये सब कुछ कहाँ देखा? वह तो दुलहन थी। अंशिका का विवाह सम्पन्न हो गया। 

अंशिका की विदाई हो गयी। धीरे-धीरे एक-दो दिनों में सभी अतिथि . . . मामा-मामी, बुआ, मौसी, काकी सबका परिवार भी विदा हो कर चला गया। रश्मि को एक-दो दिनों तक और रुकना था। तत्पश्चात् उसे भी जाना था। एक-दो दिन तो जैसे एक-दो पल की भाँति व्यतीत हो गए। 

“अगली लगन में आयुष (रश्मि का भाई) का भी ब्याह होना है,” रश्मि विदा होने लगी तो पापा ने कहा। 

“इतनी जल्दी?” रश्मि ने कहा। 

“हाँ बेटा, लड़की देख ली है। बात तय है। इसी शहर के देवपुर गाँव की है। पढ़ी-लिखी है। संस्कारी परिवार की है। बस तिथि और साईत-घड़ी निकालना है,” पापा की बात सुनकर रश्मि को अच्छा लगा। 
 
भाई दोनों बहनों से छोटा अवश्य है, किन्तु विवाह योग्य है। काम भी करने लगा है। उसका विवाह हो जाये यह अच्छा होगा। अंशिका के विवाह के पश्चात् माँ-पापा के अकेलेपन की साथी आ जाएगी। घर में बहू आ जाएगी तो माँ को बहुत सहारा हो जाएगा। 

दो दिनों पश्चात् रश्मि माँ के घर से विदा होकर ससुराल आ गयी। अब उसकी व्यस्तताएँ बढ़ गयी थीं। उसका अधिकांश समय बच्चों की देखभाल तथा घर के कार्यों में निकल जाता। उसके पास अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देने, सजने-सँवरने का समय नहीं था। नये कपड़े भी कम ही बनवा पाती। नये कपड़े पहन कर जाती भी तो कहाँ जाती? 

यश के इक्का-दुक्का जो रिश्तेदार इस शहर में थे, वे कभी भी यश के घर नहीं आते थे। न ही यश के घर से कोई किसी से मिलने-जुलने नहीं जाता था। रश्मि ने इनकी चर्चा सुनी है। ये रिश्तेदार यश के विवाह में आये थे। यश के परिवार के लोग भी उनके घर शादी-ब्याह के अवसरों पर ही जाते हैं। नितान्त समाजिकता का अभाव है दिखाई देता है शहरों में। तीज-त्योहार में भी नाते-रिश्तेदारों से मिलने जाने का प्रचलन यहाँ नहीं दिखाई देता। रश्मि कभी-कभार बाज़ार जाती तो उन्हीं पुराने कपड़ों से काम चला लेती। 
 
पर्व-त्योहरों पर मायके की स्मृतियाँ उभर आतीं किन्तु रश्मि उन्हें दबा देती तथा माँ के घर जाने की इच्छा को मन में ही मार देती। समय आगे बढ़ा। मम्मी-पापा की दोनों बेटियाँ रश्मि और अंशिका अपने घर की हो गयी थीं। उनकी कमी बहू ने आकर पूरी कर दी थी। रश्मि मायके कभी-कभी ही जा पाती। किन्तु माँ और भाभी से फोन पर बातें होती रहतीं। 

“दीदी, हम लोग कल किशोर चाचा की बेटी की शादी में गए थे। छोटी दीदी भी जीजा के साथ वहाँ आयी थीं। किशोर चाचा ने उनको भी निमंत्रण भेजा था,” भाभी की बात रश्मि ख़ूब ध्यान से सुन रही थी। 

“हम सब को वहाँ ख़ूब मज़ा आया। छोटी दीदी नये डिज़ायन का लहंगा-साड़ी पहन कर आयी थीं। ख़ूब अच्छी लग रही थीं,” भाभी ने बताया और रश्मि कल्पनाओं के पंखों पर सवार हो कर उड़ती हुई मायके के विवाह समारोह में पहुँच गयी। विवाह में ऐसा उत्साह, उमंग, नाच-गाना, हर्ष-उल्लास देखे अरसा हो गया था। 

यहाँ इतने बड़े शहर में कभी-कभी किसी सगे रिश्तेदारों के घर से ही निमंत्रण आता है। विवाह में जाओ तो वहाँ अधिकांश चेहरे अपरिचित होते हैं। बस, विवाह में औपचारिकता निभा कर आ जाना होता है। उस घर के इक्का-दुक्का जो लोग परिचित होते हैं, वे भी उस समय काम में व्यस्त दिखते हैं। 

बड़े शहर और छोट शहर के यथार्थ के अन्तर और अन्तर्विरोधों के बीच झूलती हुई रश्मि के जीवन के दिन व्यतीत होते जा रहे थे। देखते-देखते दस वर्ष व्यतीत हो गए। इस बीच रश्मि की सास चल बसीं। अब रश्मि के ऊपर घर के उत्तरदायित्व कुछ और बढ़ गए थे। वह घर के कार्याें व बच्चों की शिक्षा-दीक्षा के उत्तरदायिव में सिमट गयी थी। उसका सामाजिक दायरा कुछ भी नहीं था। पास-पड़ोस भी आपस में एक-दूसरे को कम ही जानते-पहचानते थे।

रश्मि के अपने पापा की भी उम्र हो चली थी। पहले वो कभी-कभी रश्मि से मिलने उसके घर आते थे। अब कई वर्ष हो गए हैं उन्हें आये हुए। इस उम्र में इतनी दूर आना उनके लिए सम्भव नहीं है। फोन से हालचाल का आदान-प्रदान हो जाता है। उसे भी मायके गये अरसा हो गया है किन्तु मन तो सदा मायके में ही विचरण करता रहता है। 

“दीदी, मैं माँ के घर गयी थी। वहाँ हफ़्ते भर रही। बड़ा अच्छा लगा,” आज अंशिका का फोन आया था। 

 उसकी बातें सुनकर रश्मि हाँ . . . हूँ कर रही थी। 

“वहाँ उस समय ताई जी के पोते की बरही थी। ताई जी ने मुझे भी आने के लिए कहा था। पूजा के लिए हम सब काली जी के मन्दिर गये थे। गीत-मांगर हुआ। पूजा हुई। शाम को हम सबका भोजन वहीं था,” अंशिका बताती जा रही थी और रश्मि हाँ . . . हूँ . . . कर के बस सुनती जा रही थी। 

“अरे हाँ, एक बात बतानी है तुमसे। वो जो हमारी सहेली थी अराधना! उसका ब्याह भी वहीं पास में ही हुआ है। इस बार मैं और भाभी उसके घर गए थे। हमें देख कर वह बहुत प्रसन्न हुई। दीदी, वह बार-बार तुम्हें पूछ रही थी। कह रही थी कि तुम्हारा अच्छा है, बड़े शहर में ब्याह हुआ है। ताई जी के यहाँ भी सब तुम्हें पूछ रहे थे। बहुत दिन हो गए तुम्हें माँ के घर यहाँ आये हुए। दीदी, कब आओगी तुम?” अंशिका की बातें सुनकर रश्मि कुछ नहीं बोल पा रही थी। वह कैसे बताती अपने बड़े शहर के नीरस और अकेलेपन से भरे हुए जीवन के अनुभवों को? कैसे . . .? और किसी को बताने से सब बदल तो नहीं जाएगा? 

अंशिका जब भी फोन करती है, वह इसी प्रकार ख़ूब बातें करती है। 

“बोलो न दीदी! कब आओगी?” अंशिका ने कहा। 

“आऊँगी समय मिलने पर,” रश्मि बस इतना ही बोल पायी। 

“वहाँ की फोटुएँ वाट्सएप करना,” फोन रखते-रखते रश्मि ने कहा। 

“ठीक है दीदी, करती हूँ,” कहकर अंशिका ने फोन रख दिया। 

रश्मि सोच रही थी कि कितने दिन हो गए उसे मायके गये हुए। कदाचित छह वर्ष। अब माँ के घर के नाते-रिश्तेदार, उनके बच्चे, पास-पड़ोस, नयी पीढ़ी के बच्चे . . . सब कैसे दिखते होंगे? जो बच्चे बड़े हो गए होंगे वो अब उसे पहचान पाएँगे भी या नहीं? इतने दिनों में वहाँ बहुत कुछ बदल गया होगा। वो भी तो कितनी बदल गयी है। 

उसके विवाह को सत्रह वर्ष हो गए। उसका वज़न बढ़ गया है। कहीं किसी विशेष समारोह में जाने से पूर्व उसे बालों में डाई लगानी पड़ती है। अपने स्तर से चाहे जितना सज-सँवर ले, अपनी वास्तविक उम्र से पाँच-दस वर्ष बड़ी लगती है। सब कुछ तो बदल गया है। 

रश्मि की बहुत इच्छा होती है कि मायके जाने की। किन्तु माँ का घर दूर है। एक दिन से अधिक लग जाते हैं उसे वहाँ पहुँचने में। फिर दो-चार दिन रुको न, उतनी दूर जाकर भी सबसे मिलो न तो जाने का क्या लाभ? अपने घर को सम्हालने वाली वो अकेली है। बच्चे सुबह स्कूल चले जाते हैं। यश का भी ऑफ़िस रहता है। बड़ा शहर है। यहाँ पास-पड़ोस में किसी को, किसी से कोई मतलब नहीं होता। अधिकतर पड़ोसी एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं हैं। 

जब भी मैं यश के साथ मिलकर मायके जाने का प्रोग्राम बनाती हूँ . . . घर में कौन रहेगा . . .? बच्चों को छोड़कर जाएँगे तो उनका ध्यान कौन रखेगा? यदि उन्हें लेकर जाएँगे तो उनकी पढ़ाई का नुक़्सान होगा। ऐसे अनेक प्रश्न खड़े हो जाते हैं और उनका जाने का प्रोग्राम धरा रह जाता है। बस, बातों में और कल्पनाओं में वह माँ के घर जाकर वापस आ जाती है। माँ का घर पास में तो है नहीं कि आज गये और सबसे मिलजुल कर अगले दिन वापस आ गये। जैसा कि अंशिका करती है, जो वहीं पास में व्याही है। 

समय व्यतीत होता जा रहा है। समय की नदी में जीवन बहता चला जा रहा है। नदी के मार्ग कहीं हरे-भरे खेत, बाग़-बग़ीचे, तो कहीं पथरीले तट, दूर-दूर तक फैला रेगिस्तान है, तो कहीं ख़ाली मैदान, उजाड़-बियावान हैं। ऐसे विभिन्न पड़ावों से गुज़र कर जीवन बहुत आगे बढ़ गया है। अब तो माँ भी नहीं हैं। कुछ वर्ष पूर्व जब रश्मि माँ की गै़र मौजूदगी में माँ के घर गयी थी तो भइया-भाभी, बहन के परिवार, पास-पड़ोस सबसे मिलकर आ गयी थी। उन सबसे भी जिनकी गोद में वह खेलकर बड़ी हुई है . . . इस उम्मीद में कि वह फिर वापस आएगी तो इन सबसे मिल भी पाएगी या नहीं? 

शनैः-शनैः इस बड़े शहर में रहते हुए रश्मि को बीस वर्ष हो गये हैं। यानी उसके वैवाहिक जीवन के बीस वर्ष हो गये हैं। रश्मि को अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि एक दिन वह पुनः अपने बचपन में लौट जाएगी। अपने उसी गाँव की गलियों में अपना बचपन पुनः जीएगी। अपनी स्मृतियों में वह अपना गाँव, गलियाँ, खेत-बाग़, स्कूल-काॅलेज सबको जीवित रखे हुए है . . . इसी आशा में वह अपना जीवन जीती जा रही है जैसे कि एक दिन उसे वापस लौटकर उन्हीं दिनों में जाना है . . . अपने गाँव जाना है। जिसे विवाह के पश्चात् दुनिया पीहर कहती है। 

उसे ऐसा क्यों लगता है जैसे उसकी जड़ें अपने उसी छोटे से गाँव में . . . माँ के घर में छूट गयी हैं। वह उन जड़ों की टहनियों से टूटा पत्ता है। जड़ों के बिना शाखाएँ कैसे पल्लवित रह सकती हैं? एक न एक दिन उन्हें अपनी जड़ों के पास जाना है। सहसा रश्मि के मन में यह विचार उठता है कि कदाचित वह तो वृक्ष से टूटा हुआ पत्ता है, टहनियाँ नहीं। वो टूटा पत्ता जो वृक्ष से टूट कर भी जड़ों के इर्द-गिर्द घूमता-उड़ता रहेगा है किन्तु वापस वृक्ष में जुड़ नहीं पाएगा। वह मृगमरीचिका में जी रही है। मृगमरिचिकाएँ मात्र भ्रम उत्पन्न करती हैं। 

वृक्ष से टूटे पत्ते की कोई जड़ नहीं होती। रश्मि भी टूटा पत्ता है। लड़कियाँ वृक्ष से टूटा पत्ता होती हैं। उनकी अपनी कोई जड़ नहीं होती है। न पीहर में, न ससुराल में। टूटा पत्ता हवाओं के साथ उड़कर गाहे-बगाहे अपने वृक्ष की जड़ों के पास जाता अवश्य है किन्तु अगले ही क्षण किन्हीं हवाओं के साथ उड़कर कहीं दूर चला जाता है। वहाँ . . . जहाँ न उसकी जड़े हैं, न टहनियाँ . . . मात्र कुछ स्मृतियाँ हैं जिनकी परछाइयों में उसे जीना है। 

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