उम्मीदों के अपने दुःख
संजीव शुक्ल
“अगर दुखी ही होना था, तो आपको इस्तीफ़ा देना ही नहीं चाहिए था,” नेता के मुँहलगे छुटभैये ने अपने दुखी नेता से कहा।
“नहीं वो बात नहीं है रामलोटन। मैं दुःखी उस बात से नहीं हूँ।”
“फिर किस बात से दुखी हैं दद्दू?”
“भाई पद और उम्र को किनारे रख मैं हमेशा उनके सामने लंबवत रहा। अपनी बेचकर भी उनकी इज़्ज़त बढ़ाई। संवैधानिक पद पर रहकर भी कभी संविधान का सगा नहीं रहा। हमेशा पार्टी के लिए प्रतिबद्ध रहा। जितना हो सका पार्टी हित के लिए ख़ूब संभावनाएँ जगाईं। संवैधानिक मर्यादा के भरसक पालन का दाग़ आज तक अपने कैरियर पर लगने नहीं दिया। फिर भी . . .”
“फिर भी क्या?”
“फिर भी अब हम उनकी नज़र में पहले जैसे न रहे। यही दुख है।
“और तो और उनके कहे के अनुसार तुरंत बीमार हो, स्वास्थ्य संबंधी कारणों से इस्तीफ़ा भी दे दिए लेकिन . . .”
“लेकिन क्या दद्दू?”
“खुलकर कहो। आप पर कोई आँच आए, यह हमें बरदाश्त नहीं। क़सम से दद्दू आग लगा दूँगा, आग!” रामलोटन आवेश में था।
“अरे नहीं भाई हिंसा वाली बातें न करो।”
“फिर हमें बात बताओ दद्दू। नहीं तो हम मानेंगे नहीं। हमने आपका नमक खाया है।”
“धत्त ज़्यादा बटरिंग न करो। खाए तो बहुत कुछ हो,” कहते हुए, दद्दू के चेहरे पर एक मुस्कान सी तैर गई, “नानी के आगे ननिहाल की बातें न करो।”
फिर तुरंत दुखी होकर बोले कि . . . “बताओ भला हम तो उनके कहने पर बिगड़े स्वास्थ्य का हवाला देकर रिजाइन भी कर दिए, लेकिन पूरे 10 घंटे होने को है, अभी तक न तो अगली भूमिका के संकेत मिले और न ही किसीका स्वास्थ्य लाभ की कामना वाला संदेश आया। क्या हम इस लायक़ भी नहीं?
“क्या अब देश को हमारी सेवाओं से वंचित रखा जाएगा?”
यह सुनकर भावुक होने की बारी अब रामलोटन की थी। उसने भरे गले से कहा, “दद्दू ये वाक़ई ग़लत हुआ आपके साथ। जबकि पिछली बार हृष्टपुष्ट सारंग देव को सहानुभूति दिलवाने के लिए जबरन आईसीयू में भरती करवा दिए थे।” वह अभी भी स्वास्थ्य संबंधी पहलू पर अटका था।
लेकिन रामलोटन के आख़िरी वक्तव्य से चौंक से गए नेता जी। उन्होंने कहा, “नहीं-नहीं हमें नहीं जाना आईसीयू। हमें डर लगता है आईसीयू से।” डर के मारे माथे पर आई पसीना को रूमाल से पोंछते हुए नेता जी को लगा कि वे ग़लत दिशा में सोच रहे थे। उन्हें महसूस हुआ कि स्वास्थ्य लाभ की कामना के इस एंगल पर अब तक उनका ध्यान क्यों नहीं गया?
वे जबरन स्वास्थ्य सुविधाओं को दिए जाने के सख़्त ख़िलाफ़ थे। उन्होंने किसी अज्ञात भय से अपनी पारी को यहीं समाप्त करने का मन ही मन संकल्प ले लिया।
फिर संयत हो शहीदाना मुद्रा में रामलोटन से कहा कि हमें कर्म के प्रति एकनिष्ठ भाव रखना चाहिए, हमें फल की चिंता नहीं रखनी चाहिए। जितना बन पड़ा हमने किया, अब हरि इच्छा।
रामलोटन नेताजी को अपलक देखता रह गया। वह नेताजी के दार्शनिक विचारों को समझते-समझते अब मन ही मन नए मालिक की तलाश में जुट गया।
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