गर्व की वजह

संजीव शुक्ल (अंक: 263, अक्टूबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

घर से निकलते ही, आज सुबह सुरेश का लड़का मिल गया। कहने लगा कि आज तो गजबै हो गया अंकल जी। मैंने कहा कि क्या हुआ, बड़े प्रसन्न दिख रहे हो। प्रत्युत्तर में उसने दाहिनी तरफ़ झुकते हुए पान की लंबी पीक उड़ेली। मैं जल्दी से पीछे हटा ताकि पैजामे को पीकरंजित होने से बचा सकूँ, पर कुछ न कुछ छीटें पड़ ही गईं। मन खिन्न हुआ पर लिहाज़ में कुछ कह न सका। अपनी मौखिक गतिविधि को संपन्न कर उसने कहा कि अंकल आप जाने नहीं? 

मैंने कहा, “क्या हुआ?” अब मैं भी बेचैन हुआ। फिर अपने पूर्वानुमान के आधार पर सब कुछ जानने के अंदाज़ में कहा कि हाँ वो रामलोटन का लड़का अब घरवालों की बात मान शादी करने को राज़ी हो गया है। कल मैंने उसको बिठा के क़ायदे से समझाया था। मानना ही था। मैंने अपनी समझाइश की अहमियत जताई। वह तुरंत मुँह बिचकाते हुए कहा कि अरे वो नहीं। आप भी अंकल इन घरेलू बातों में उलझे रहते हैं। मैं अपनी संकीर्णता पर शरमाया, लेकिन तुरंत ही ख़ुद को सँभाल ऊँची जानकारी देते हुए बताया कि अच्छा तुम मानमर्दन सिंह की बात कर रहे हो न! हाँ अब वे समाजवादी नहीं रहे! उन्होंने चुनाव में अपना नामांकन वापस ले पार्टी बदल ली है। 

“अरे नहीं! अंकल आप भी,” कहकर वह फिर एक बार झुका। मैंने झट से दूरी बनाई और ख़ुद को सफलतापूर्वक उसकी छींटाकशी से बचा ले गया। इस उमर में ख़ुद की फ़ुर्ती पर नाज़ हुआ। 

“जो सत्तर सालों में नहीं हुआ, वह आज हुआ,” उसने फ़ुल कांफ़िडेंस के साथ कहा। 

“ऐसा क्या हो गया भाई?” 

उसने कहा कि अंकल सत्तर सालों में आज पहली बार कविता और शायरी को संवैधानिक जगह मिली। मेरी कुछ भी समझ में नहीं आया। 

मैंने पूछा, “कैसे?” 

उसने कहा, “आपने मुख्य निर्वाचन आयुक्त की प्रेस कॉन्फ्रेंस देखी?” 

सवाल का जवाब वह सवाल से दे रहा था। जब आदमी में कॉन्फ़िडेंस ख़तरे के निशान से ऊपर बह रहा होता है, तब वह इसी अंदाज़ में बात करता है। 

मैंने न के भाव से खोपड़ी हिलाई! 

उसने कहा, “जाइए, तब आपने क्या देखा?

“अरे, अभी अपने निर्वाचन आयुक्त ने पत्रकारों के सवालों के जवाब में जो धड़ाधड़ शायरी की है, आय-हाय! क्या कहने उसके! साहब ने महफ़िल लूट ली! शेर पर शेर कहकर पत्रकारों का मुँह बंद कर दिया। कुछ पत्रकार अपनी तरफ़ के थे, सो बहुत लाजवाब हुए। क़सम से संविधान के पद पर आसीन व्यक्ति के मुँह से शायरी झड़ना कितना सुखद लग रहा था। शायरी को पहली बार संवैधानिक मंच मिला! आप ही बताओ, अब से पहले किस आयुक्त ने शायरी को इस तरह प्रमोट किया? 

“क्या पहले लोग नहीं पढ़ सकते थे शायरी? बिलकुल पढ़ सकते थे, लेकिन नहीं पढ़ी, क्योंकि तब वे डरते थे। ये उन्मुक्त लोकतांत्रिक वातावरण इस सरकार ने पैदा किया है। ख़ैर छोड़िए, आप बताइए कि शायरी को क़ानूनी दर्जा मिला कि नहीं? अपने का तो गर्व से सीना चौड़ा हो गया। निश्चित तौर पर यह राष्ट्रवादी सोच के कारण ही सम्भव हुआ।” 

“कुछ विस्तार से बताओ भाई। आख़िर क्या पत्रकारों ने पूछा और क्या उधर से जवाब दिया गया?” 

“आप सुनना ही चाहते हैं तो सुनिए। अब जैसे कि पत्रकारों ने चुनाव प्रचार के दौरान नेताओं, ख़ासकर सत्ता पक्ष द्वारा शब्दों की मर्यादा का ध्यान न रखने की तरफ़ ध्यान दिलाया और इस पर आयोग द्वारा समुचित कार्यवाही न किए जाने का प्रश्न खड़ा किया, तो इस पर हमारे आयुक्त जी ने तुरंत कहा कि ऐसा न कहें, हमने कार्रवाई तो की है।” 

“‘पर आपने सिर्फ़ विपक्षी नेताओं पर ही कार्रवाई की है। यह एकपक्षीय है,’ एक पत्रकार ने प्रतिप्रश्न किया। 

“‘अरे भाई कोई सोचे न सोचे लेकिन हमें तो उनके पद की गरिमा का ध्यान रखना है। सो उनके संवैधानिक पद की गरिमा को ध्यान में रखते हुए हमने उनको न सम्मन भेजकर उनकी पार्टी को नोटिस भेजा है।’ इसके बाद उन्होंने सीधे अपने बशीर बद्र साहब को उद्धृत कर दिया और किया इसलिए कि उन्हें सब याद था। उन्होंने कहा कि ‘दुश्मनी जमकर करो, लेकिन यह गुंजाइश रहे, जब कभी हम दोस्त बन जाएँ तो शर्मिंदा न हों।’ उन्होंने कहा कि हम सबको चुनाव की गाइडलाइंस को फ़ॉलो करना चाहिए। हमको न तो क़ानून को हाथ में लेना चाहिए और न ही मुँह में। हमें संयत बोलना चाहिए। 

“इसी तरह विपक्षी पार्टियों के ईवीएम की धाँधली को लेकर लगाए गए आरोपों की बाबत, जब कुछ पत्रकारों ने मुख्य निर्वाचन आयुक्त से इस संदर्भ में जवाब माँगा, तो आयुक्त साहब ने जो इस पर जवाब दिया, वह सीधे दिल में उतर गया। जवाब क्या दिया, बल्कि लाजवाब कर दिया! इस बार उन्होंने ख़ुद को उद्धृत किया, ‘अधूरी हसरतों का इल्ज़ाम, हर बार हम पर लगाना ठीक नहीं, वफ़ा तुमसे नहीं होती, ख़ता EVM की कहते हो।’ 

“जवाब सुनकर सब के सब अवाक्‌ रह गए। इस शायराना जवाब ने सबको शांत कर दिया। महोदय की साहित्यिक प्रतिभा के सब क़ायल हो गए।” 

“. . . मगर उनको शायरी न करके पत्रकारों के सवालों का जवाब देना चाहिए था। उनको तथ्यात्मक जवाब देना चाहिए था। यह प्रेस कॉन्फ्रेंस थी कोई मुशायरा तो नहीं,” मैंने अपनी समझ से तर्कपूर्ण बात रखी। 

“अरे नहीं अंकल, आप समझे नहीं, वह जवाब ही तो था, जो शायरी में छुपा था! बस ज़रूरत है उसके मर्म तक पहुँचने की। कभी क़व्वाली सुने हो आप?” 

मैंने कहा, “क्यों नहीं, ख़ूब सुनी है।” 

“तो उसमें क्या है? सवाल-जवाब ही तो रहता है। यहाँ भी वही बात है। यह एक तरह से शायरी में जवाब था। बाबा तुलसीदास भी तो इहलौकिक और पारलौकिक प्रश्नों का उत्तर अपनी काव्यात्मक मेधा से ही देते थे!” उसने अपना निष्कर्ष प्रस्तुत किया। 

अब मेरे पास सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। मैं चुप रह गया। 

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