वे और उनका नारीवाद

01-10-2022

वे और उनका नारीवाद

संजीव शुक्ल (अंक: 214, अक्टूबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

वह अंदर तक नारीवादी चेतना से सम्पन्न हैं। वे नारियों के प्रति अत्यधिक सहृदय हैं। उनका मानना है कि नारीवादी होने के लिए नारी होना ज़रूरी नहीं, बस इसके लिए मनुष्य के अंदर एक नारी-मन होना चाहिए, जो नारी जाति की संवेदनाओं को समझ सके। वे परिचित नारियों के लेखन में अद्भुत शिल्प, कथ्य और भावप्रवणता के बिंदु खोज ही लेते हैं। जहाँ चाह वहाँ राह!! वह सोशल मीडिया पर इस तरह की पोस्टों पर विनत भाव से आह-वाह करते हुए यत्र-तत्र पाए जाते हैं। उनके आह-वाह भरे वक्तव्य तब तक अपने आवागमन के चक्र से मुक्ति नहीं पाते, जब तक कि रचनाकार आभार के बोझ से दबी हुई प्रतिक्रिया नहीं दे देते। आभार प्रकट मात्र से उनका जीवन धन्य हो उठता है। महिला मित्र की पोस्ट पर उनके द्वारा की गई एक के बाद एक ताबड़तोड़ टिप्पणियों को जमा करने का मक़सद सिर्फ़ इतना होता है कि उनको लगता है कि मात्र एक टिप्पणी पोस्टकर्ता के लेखकीय अवदान को परिभाषित करने के लिए पर्याप्त नहीं। सो एक कमेंट नाकाफ़ी है। वे एक सजग टिप्पणीबाज़ हैं। इसके पीछे उनकी अपनी मेहनत है। 

कई बार तो वे उनकी सिर्फ़ दो लाइन की पोस्ट पर भी दो-दो पन्नों की टिप्पणी लिख मारते हैं। ऐसे में भी जब मूल पोस्टकर्ता द्वारा टिप्पणीकर्ता को अनदेखा किया जाता है, तो हम जैसे साधारण पाठकों का भी उत्साह ठंडा पड़ जाता है, उन्हें तो ख़ैर अन्दर तक तोड़ ही जाता होगा! इतनी मेहनत और नतीजा शून्य! यह तो श्रम का खुलेआम अनादर है। आम आदमी हो तो उधर मुँह न देखे पर वे जीवट के धनी और खड़े से गिरने की हद तक विनम्र हैं। “रार नहीं ठानूँगा, हार नहीं मानूँगा” की राह पर चलते हुए वे अपने प्रयासों को गतिमान रखते हैं। उनका खुला मानना है कि प्रयासों में ही पूर्णता निहित है और जीवन गतिशीलता का नाम है। 

महिला मित्र की लेखनी से निकले प्रेम संदेश उन्हें मेघदूत की याद दिला जाते हैं। उनका दिल जो तेज़ हवा और बादलों के बीच चमकती बिजली को देख भर लेने से ही लरजने लगता, ऐसे संदेशों को पढ़कर उनका मन बादलों के बीच लुकाछिपी का खेल खेलने को उद्यत हो उठता; जो मन फिसलकर डूब जाने के डर से उनको किसी पोखर के किनारे तक न जाने देता, किसी देवी की लेखनी से निकली प्रेम रचना पढ़कर आवारा हो प्रेमसरिता में ग़ोताख़ोरी करने के लिए मचलने लगता। 

अगर वे स्वयं प्रेम की भावनात्मक बाढ़ को शब्दरूप देने के लिए लेखनी उठाएँगे तो सच मानिए कि नारी पक्ष की कोमलता, पक्षधरता उनके लेखन में स्वयमेव केंद्रीय भाव के रूप में उभर कर आ जाएगी। नारी मन की कोमलता की चिरस्वीकृत घोषणा ने उनको कोमलता का पुजारी बना दिया। कोमलता की उनकी उपासना यहीं से शुरू हुई। वे स्वयं कोमलकांत पदावली में प्रेम को स्वर देते और अपनी रचना के साथ किसी महिला की फोटो भी किसी स्कीम के तहत चस्पा कर देते। प्रेम-रचना को समझने के लिए यह अतिरिक्त सुविधा वह इसलिए मुहैया कराते ताकि कल्पनाशीलता के अभाव में कोई पाठक उसके मर्म तक पहुँचने से वंचित न रह जाए। “सबका साथ सबका विकास” की यही समग्रतावादी सोच उनको बड़ा साहित्यकार बनाती है। 

पर पुरुष पक्ष उनकी संवेदना पाने को हमेशा तरसता रहा!! जहाँ महिला रचनाकारों की पोस्ट पर वह सहज भाव से लुढ़कते हुए आ जाते वहीं पुरुष वर्ग में इक्के-दुक्के लोगों को ही उनकी टिप्पणियाँ नसीब होतीं। 

पुरुष खेमें की पोस्टें हर बार उनकी टिप्पणियों के लिए मायूस हुईं। अगर कभी किसी परिचित की पोस्ट पर आए भी तो उद्धव के ज्ञान की तरह। 

उनकी लेखकीय स्थापनाओं से इसमें संदेह नहीं रहा कि पुरुष वर्ग पैदाइशी काइयाँ होता है और वह प्रेम जैसे सात्विक कृत्य को भी व्यवसाय के तौर पर ले रहा होता है। उसमें समर्पण की कमी होती है और वह सिर्फ़ मतलबपरस्ती में डूबा रहता है। पुरुषों की कठोरता से सदैव उनको वितृष्णा रही। 

इसलिए पुरुषों द्वारा रचित प्रेमपूर्ण रचनाओं को वह हमेशा शक की निगाहों से देखते हैं। ऐसी रचनाओं पर उनकी दृष्टि प्रथम दृष्टया समीक्षा की माँग करती हैं। पुरुष वर्ग की प्रेम रचनाएँ उन्हें शुष्क निबंध सी लगतीं। वह अपनी पुस्तक किसी पुरुष जाति को समर्पित नहीं करते भले ही उनकी पांडुलिपि दीमक को समर्पित हो जाए। भई अपने-अपने सिद्धांत हैं। आप पाएँगे कि अंततः उनकी रचना किसी नारी को ही समर्पित होते हुए मोक्ष-प्राप्ति की कामना से तृप्त होती दिखेगी!! लेखकीय डिमांड पर वह नारी जाति की त्रासदियों को भी उभारने की क्षमता रखते हैं, पर लेखक होने के नाते वह इतना ही कर सकते हैं। इसे आप क़लम से क्रांति भी कह सकते हैं। शेष काम के लिए, मने नारी जाति की समस्याओं, सरोकारों के लिए की जाने वाली आंदोलनात्मक गतिविधियों का दायित्व वो अन्य ज़िम्मेदार लोगों के लिए छोड़ देते हैं। यह उनकी सहृदयता है। 

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