चेले जो गुरु निकले
संजीव शुक्ल
शिक्षक का असली मान तो उसके चेले ही बढ़ाते हैं। इसलिए अगर चेला बढ़िया है तो गुरु की बल्ले-बल्ले और अगर चेला ही सही नहीं, तो फिर भाई काहे के गुरु! चेला अपनी पर आ जाए तो कोई क्या ही कर लेगा, फिर चाहे वह जित्ता बड़ा वाला गुरु हो! कहने का मतलब सिर्फ़ गुरु से ही नहीं चेले को पहचान मिलती, चेले से भी गुरु को पहचान मिलती है। अगर चेला आधुनिक टाइप का हुआ तो एक शेर की दूसरी लाइन को छोड़कर कह सकता है कि “तुम्हीं तुम हो तो क्या तुम हो” . . .
अब देखो न अगर किसी क्लास में, किसी विषय में किसी लड़के की बाढ़ रुक जाए तो सबसे पहले यही आकाशवाणी होती है कि “भई इसका गुरु कौन है?”
चेला यदि जड़ी हो तब तो गुरु के रूप में ब्रह्मा जी भी उतर आएँ, तब भी उसका कुछ न होने वाला। तुलसी बाबा ने ऐसे ही थोड़े न लिखा है कि, “मूरख हृदय न चेत, जो गुरु मिलई बिरंचि सम।” और वहीं पर अगर कहीं चेला प्रतिभाशाली मिल गया, तो वह अपने साथ-साथ अपने गुरु का भी नाम रौशन करता है। कहने मतलब गुरु की अपनी सीमाएँ हैं, जो शिष्य पर निर्भर हैं। इस प्रकार मामला कुछ हद तक संयोग और बहुत कुछ चुनाव पर निर्भर है।
हालाँकि गुरु-चेले के मामले में भ्रम भी ख़ूब फैला है। ज़्यादातर गुरु इस ग़फ़लत में जीते हैं कि अपने शिष्यों का मार्गदर्शन करते हैं। वैसे इस मामले में अगर देखा जाय तो गुरुओं का भी बहुत दोष नहीं। कुछ तो प्राचीन उक्तियाँ और कुछ चेलाही करने वाले चेले अपने-अपने गुरुओं को ऐसा चने के झाड़ पर चढ़ा देते हैं कि वे गुरुडम के भौकाल से नीचे उतरते ही नहीं। जब दिन में चार बार “गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः, गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नम” सुनेंगे तो भाई हवा में तो उड़बै करेंगे।
ये गुरु लोग मौक़ा देखकर यह बताने से नहीं चूकते कि हमारे पढ़ाए हुए न जाने कितने पी.सी.एस. और आई.ए.एस. बन गए। अब कौन कहे कि जब सब आईएएस/पीसीएस हो गए हैं, तो ये राहजनी और चोरी-उचक्कई कौन कर रहा? इनको काहे लावारिस छोड़े दे रहे हैं।
वैसे होशियार चेले हद से ज़्यादा इन हवा-हवाई आदर्शवादी औपचारिक बातों का लोड नहीं लेते। वे जानते हैं गुरु तो निमित्त मात्र है; करना सब ख़ुदी को ही है। इसके अलावा जबसे एक गुरु द्वारा अपने अघोषित चेले का अँगूठा माँग लिया, तब से चेले भावनाओं को परे रख कुछ ज़्यादा ही चौकन्ने रहते हैं। अब वे समझदार हो गए हैं। वे समझ गए हैं कि सम्मान देने के लिए अँगूठा देना ज़रूरी नहीं। वह अन्यान्य तरीक़ों से भी दिया जा सकता है। दो मीठे बोल से भी सम्मान किया जा सकता है। अगर मुँह से ही गुरु को सम्मान देने की बात है, तो उसमें काहे को पीछे रहा जाय। वचनों में कैसी दरिद्रता! संसार अगर गुरु की प्रतिष्ठा का आकांक्षी है, तो क्यों न उसे सम्मान देकर अपने सम्मान की श्रीवृद्धि कर ली जाए। बुद्धिमान शिष्य वही है जो गुरु को ढाल बनाकर आगे बढ़ जाता है। प्रकट में ये बहुत विनम्र होते हैं।
भारतीय राजनीति में तमाम ऐसे चेले हुए हैं जो अपने गुरु के भी गुरु निकले। वे गुरु के कंधों पर चढ़कर अपनी ऊँचाई नापते हैं।
ऐसे शिष्य सर्वोच्च पद पर पहुँचकर भी यदि अपने को फ़लाँ का चेला बतायें, पर श्रेय अपनी प्रतिभा को ही दें, तो समझ जाइए कि वह प्रतिभा से भरपूर है। पब्लिक उसकी विनम्रता का कोरस में गायन करती है। पब्लिक कहती है, “देखो इतने बड़े पद पर पहुँचकर भी अपने गुरु को भूला नहीं है। इसे कहते हैं सच्चा शिष्य।” यही तो अपनी भारतीय संस्कृति है।
ऐसे चेले पब्लिक में हवा उड़ा देते हैं कि वे अभी भी अपने सगे गुरु से जब-तब मार्गदर्शन लेते रहते हैं। जो शिष्य सामर्थ्यवान होते हैं, वे अपने गुरु को किसी न किसी मंडल का अधिष्ठाता बना देते हैं।
एक योग्य शिष्य ने सत्ता पाते ही सबसे पहले “मार्गदर्शक मंडल” का गठन किया, जिसमें बड़े वाले गुरुओं को डाला गया। कथित गुरुओं को बताया गया कि आपकी चढ़ती उम्र को देखकर आपको राजसभा आने की ज़रूरत नहीं। आपसे मार्गदर्शन प्राप्ति हेतु हम स्वयं उपस्थिति हुआ करेंगे, आप तकलीफ़ न करें। अब मार्गदर्शक भावुकता में बहकर वाक़ई मार्गदर्शन की राह तकें तो इसमें बेचारे शिष्य की क्या ग़लती?
यह तो एक तरह से एक गुरुदक्षिणा थी, जो एक शिष्य द्वारा अपने गुरु के सम्मान में दी गई थी, अन्यथा आज के ज़माने में कौन किसका इतना ख़्याल रखता है। लोगों ने भी खुले मन से शिष्य की जय-जयकार की।
एक मुग़ल सम्राट को यह टेक्निक नहीं पता थी। सो वह नाहक़ ही अपने पिता को जेल में डालकर बदनामी कमा गया। आख़िर पिता भी तो गुरु ही होता है न!! चेले चेले में यही अंतर होता है।
ख़ैर यश सबके हाथ में कहाँ लिखा होता है!
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