यक्ष और राजनीतिक विश्लेषक
संजीव शुक्ल
एक बार एक राजनीतिक विश्लेषक जनता का चुनावी सर्वेक्षण करते करते एक अनजान रेगिस्तानी इलाक़े में पहुँच गया। उसे ज़ोरों से प्यास लगी। गला सूखने लगा। राजनीति की हवा को टोहने के लिए लोगों से संवाद करने में वह पहले ही बहुत थक चुका था और तिस पर यह ज़ालिम गर्मी। उफ़!! मारे प्यास के वह बेहाल हो चुका था, पर यह क्या! दूर-दूर तक कहीं पानी की एक बूँद नहीं। वह पानी की तलाश में भटक ही रहा था कि एक जगह उसे एक तालाब नज़र आया। वह पानी तक पहुँचने के लिए जल्दी-जल्दी डग बढ़ाने लगा। पास पहुँचने पर झट से पानी पीने के लिए झुका ही था कि यह क्या! कहीं से एक भारी भरकम आवाज़ आई, “रुको, तुम ऐसे नहीं हमारे तालाब का पानी पी सकते। अगर नहीं माने तो यही बेमौत मारे जाओगे। तुम्हारा टीवी पर आने वाला यह विश्लेषण एक सपना बनकर रह जाएगा।”
विश्लेषक सहम गया। डरकर बोला, “बहुत प्यास लगी है। रहम करिए, पानी पी लेने दीजिए।”
“नहीं, मैं यक्ष हूँ। एक तरह से यहाँ का राजा।”
राजा सुनकर विश्लेषक के जान में जान आई। उसने बहुत मुलायमियत से कहा, “आप राजा हैं तो ज़रूर उदार भी होंगे। क्योंकि कहानियों में सुना है कि राजा प्रायः उदार ही होते हैं,” ऐसा कहकर उसने राजा को रिझाने की भरसक कोशिश की। “हमें अपनी प्रजा समझ के पानी पी लेने दीजिए,” उसने फिर प्रार्थना की।
यक्ष इस प्रार्थना से पिघल गया। उसने कहा कि ठीक है, एक चुल्लू पानी पी लो लेकिन भरपूर पानी पीने के लिए हमारे प्रश्नों का जवाब देना होगा, अन्यथा पानी न पी सकोगे।
विश्लेषक ने जिधर से आवाज़ आ रही थी उधर को देखने की कोशिश की, लेकिन तभी फिर वही आवाज़ गरजी, “मुझको देखने की कोशिश न करो, नहीं तो मारे जाओगे!”
विश्लेषक ने डर के मारे आँखें बन्द कर लीं। विश्लेषक को ऐसी ही विषम परिस्थिति में युधिष्ठिर द्वारा पूर्व में धैर्य से सवालों को सुनने और जवाब देने की याद आई। मन में आत्मविश्वास लाने की कोशिश करते हुए विश्लेषक महोदय ने ज़बान में मिठास घोलते हुए कहा, “राजन अपना सवाल पूछिए।”
“हुंह! तो बताओ लोकप्रिय नेता कौन होता है?” यक्ष ने अपना पहला सवाल दागा।
विश्लेषक यह सवाल सुनकर चौंका! वह तो सोच रहा था कि यक्ष कुछ आत्मा-परमात्मा से जुड़े सवाल पूछेगा, जिसमें उसका अटकना तय है। पर यह तो कुछ नए ज़माने का यक्ष लग रहा है। ख़ैर सवाल अपनी फ़ील्ड से जुड़ा होने के कारण उसने राहत की साँस ली। उसने जवाब देते हुए कहा कि जी जो बात-बात में जन की बात करे, ख़ूब सपने दिखाए। लोग जिसके कहे को बिना जाँचे-परखे वेदवाक्य की तरह मानें, वही असली लोकप्रिय नेता होता है।
यक्ष ने पूछा, “और प्रभावी नेता कौन होता है?”
विश्लेषक ने उत्तर दिया, “जी जो सुने कम, सुनाए ज़्यादा। मन की बात करे।”
यक्ष ने अगला प्रश्न पूछा, “लोकप्रिय और प्रभावी नेता में असरकारी कौन है?”
“ज़ाहिर है प्रभावी नेता असरकारी है, क्योंकि वह सरकारी है। प्रभावी नेता बाद की स्टेज है,” राजनीति के विश्लेषक ने कहा।
तड़ापड़-तड़ापड़ इतने सारे सवालों के पूछे जाने पर विश्लेषक को कुछ शक हुआ कि हो न हो यह यक्ष ये सवाल किसी किताब से पूछ रहा हो! नहीं तो इतने सवाल कौन पूछता है? ख़ैर डर के मारे वह चुप ही रहा।
तभी फिर वही भारीभरकम आवाज़ गूँजी, “लोकतंत्र में प्रधानसेवक की क्या भूमिका है?”
“जी यह भी नेता की ही एक ब्रीड है। असली प्रधानसेवक वही है, जिसे जनहित का सही से संधि विच्छेद करना आ गया,” राजनीतिक विश्लेषक ने अपनी क़ाबिलियत का लोहा मनवाने के लिए जनहित पर रहस्यात्मकता को पर्याप्त स्पेस देते हुए पूरे कॉनफ़ीडेंस से जवाब दिया।
“प्रधान सेवक और जनहित का संधि-विच्छेद का क्या मतलब?” यक्ष ने राजनीतिक विश्लेषक के ज़्यादा स्मार्ट बनने पर लगभग क्रोधित होते हुए पूछा।
“जी मतलब असली प्रधानसेवक वही जो बातें तो जन की करे, लेकिन हित अपने लोगों का करे,” विश्लेषक ने बात साफ़ की।
तभी एक तेज हवा का झोंका आया और पन्नों के फड़फड़ाने की आवाज़ आई। विश्लेषक का शक गहरा हुआ। वह डरा! वह सोचने लगा कि अगर उसके हाथ में किताब हुई तो न जाने कितने सवाल अभी और पूछे और अगर किसी सवाल पर फँस गया तो? वह इन्हीं आशंकाओं में झूल रहा था कि तभी यक्ष का एक और सवाल गूँजा, “प्रायः जनता ग़लत व्यक्ति को भी चुन लेती है। ऐसा क्यों?”
विश्लेषक ने उत्तर दिया, “क्योंकि जनता ‘पाप से घृणा करो, पापी से नहीं’, सिद्धांत में विश्वास रखती है।”
यक्ष ने फिर पूछा, “लेकिन ये पापी तो कई बार बाद में भी पाप करना नहीं छोड़ते और फिर भी चुन लिए जाते हैं। ऐसा क्यों होता है?”
विश्लेषक ने कहा, “उदारता के चक्कर में।”
“मतलब?” यक्ष ने फिर सवालिया निशान खड़ा किया।
“पहली बात जनता अपनी बिरादरी के नेताओं के पापों को पाप नहीं मानती। दूसरी बात अगर मान भी लेती है, तो चुनाव के समय यदि उम्मीदवार जनता के पैरों पर गिर माफ़ी माँग लेता है, तो वह उसे हृदय से क्षमा भी कर देती है,” विश्लेषणकर्ता ने व्याख्या के नए एंगल को सामने रखते हुए बताया।
यक्ष इन जवाबों से लगभग खीझ सा रहा था।
“अच्छा यह बताओ कि चुनाव लड़ने वालों के बीच किसके जीतने की सम्भावना अधिक रहती है?” यक्ष ने अपनी समझ से बहुत गंभीर सवाल पूछा।
विश्लेषक को अब सवालों में मज़ा आने लगा था। उसने मुस्कुराते हुए कहा, “जी वोटरों को जाति/धर्म पर लड़वाकर उनके एक बड़े वर्ग का वोट हासिल करने की जिसमें जितनी ज़्यादा क्षमता होगी, उसके जीतने की सम्भावनाएँ भी उतनी अधिक रहेंगी।”
यक्ष उत्तर सुनकर कुछ परेशान सा हुआ। एक लंबा पॉज़ लेते हुए यक्ष ने एक और नया सवाल दागा, “नए दौर में नेता और जनता में क्या अंतर है?”
विश्लेषक ने आत्मविश्वास से कहा, “जी जो लोकतंत्र में अपने चुनने के अवसर को भी आपदा बना दे, वो जनता और जो जन-आपदा में भी अपने लिए अवसर तलाश ले वह नेता!”
यक्ष तभी से दहशत में है। उसने एक किताब के पन्ने पलटते हुए कहा, “लेकिन संविधान में तो ये सब कहीं लिखा नहीं। ये तो बड़ी उलझन है।”
तभी विश्लेषक ने फुल कॉनफीडेंस से कहा, “राजन क्या मैं सत्य नहीं कह रहा?”
यक्ष ने मुश्किल से ख़ुद को सँभालते हुए विश्लेषणकर्ता से कहा, “तुम पानी पियो। मैं चला हिमालय। फिर से तपस्या करने! मैं अभी तक नेताओं को न समझ सका। लग रहा मेरी ही तपस्या में कुछ कमी रह गई।”
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