उनको समर्पित

संजीव शुक्ल (अंक: 199, फरवरी द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

ऐसा नहीं कि वो बोलते नहीं! बहुत बोलते हैं। जब न बोलें तो समझ लीजिए कि इस समय समीकरण उनके अनुकूल नहीं हैं और वे चौगिरदा फँस चुके हैं। इस विशेष परिस्थिति के अलावा वे सच्चे अर्थों में वाग्वीर हैं। कभी-कभी सच भी बोल जाते हैं, पर प्रायः नहीं। ज़्यादातर सच के मौक़ों पर चुप रह जाते हैं। यह सच के प्रति उनका अव्यक्त सम्मान है! यह सच के प्रति उनकी श्रद्धांजलि है। उनके यहाँ स्तरीय भाषा राष्ट्रीय पर्वों पर ही जगह बना पाती है! वाणीकौशल में तथ्य उनके लिए महत्त्वपूर्ण कभी नहीं रहा, अगर कुछ महत्त्वपूर्ण है तो ख़ुद का स्थापन और कभी-कभी तो सामने वाले का विस्थापन ही उनका केंद्रीय लक्ष्य रहता है। यह अलग बात है कि वे अपने अतिरिक्त कौशल द्वारा किसी के विस्थापन में भी अपनी संभावनाएँ तलाश लेते हैं।

इसके अलावा वे काल-गति और स्थानों से परे हैं। वे सद्भाव की माँग पर अलग-अलग समयों पर हुए महान आत्माओं को एक साथ लाकर आपस में विमर्श तक करा सकते हैं; यह दुर्लभ गुण है। और यही नहीं वे स्थान-विशेष को भी मौक़े की नज़ाकत के हिसाब से कहीं भी लाने ले जाने का हुनर रखते हैं। अगर ज़रूरी हुआ तो तक्षशिला बिहार में भी लाया जा सकता है नहीं तो जहाँ है, वहाँ हैय्ये है। मतलब यह कि इतिहास-भूगोल इच्छानुसार इधर-उधर कर सकते हैं। वे समावेशी भी हैं। जहाँ जाते हैं, वैसे बन जाते हैं। किरदार को बाक़ायदा जी लेते हैं। वे ख़ुद से प्रश्न भी करवाते हैं क्योंकि वे लोकतांत्रिक हैं, बस शर्त सिर्फ़ इतनी कि प्रश्न मनोभावों के अनुकूल हों। वे रंग बदलने में गिरगिटों को भी शर्मिंदा कर देते हैं। वे बहुरूपिया हैं। सही भी बात है जो ख़ुद को पल-पल नहीं बदल सकता, वह देश क्या ख़ाक बदलेगा।

पर इन सब भारी योग्यताओं के बावजूद वह यह सब कर पाते हैं तो सिर्फ़ इसलिए नहीं कि वे अतिरिक्त हुनरदार हैं, बल्कि इसलिए भी कि उनके साथ में "अहो रूपम अहो ध्वनिः" का जयकारा लगाने वाली बड़ी संख्या में मस्तिष्क शून्य स्वामिभक्त जनता है।

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