कालीन का जनतंत्रीकरण

15-11-2023

कालीन का जनतंत्रीकरण

संजीव शुक्ल (अंक: 241, नवम्बर द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)

 

कालीन का जलवा हमेशा से क़ायम रहा है। कालीन पर चलना, उठना, बैठना हमेशा से ही एक स्टेटेट्स सिम्बल रहा है। कालीन पर चलने की हमेशा से ही लोगों की हसरत रही है। पर सबका नसीब एक जैसा कहाँ होता है। जिसके लिए रेड कार्पेट बिछी होती है, वह सबके आकर्षण का केंद्र होता है। यह कालीन ही है, जो व्यक्ति को अतिविशिष्ट बनाती है, अन्यथा बग़ैर कालीन के क्या राजा और क्या प्रजा सब बराबर। भई, राजा के कोई चार मुँह और चार हाथ तो होते नहीं है जो उसकी अलग से पहचान कराए। वह तो कालीन पर शाही अंदाज़ में चलने से ही पता चलेगा कि कौन राजा है? कालीन पर चलने का अपना तरीक़ा होता है, एक शऊर होता है। यह नहीं कि जब चाहा, जैसे चाहा, कालीन पर चल लिए। उसके लिए आपके पाँव कालीन पर चलने लायक़ होने चाहिए। दुष्यंत कुमार इस चीज़ को समझते थे तभी तो उन्होंने खुलेआम घोषणा की कि “आपके कालीन देखेंगे किसी दिन, इस समय तो पाँव कीचड़ में सने हैं।” कोई भी भला आदमी कीचड़ में सने पाँवों को लेकर किसी की साफ-सुथरे कालीन को देखने कैसे जा सकता है?

हालाँकि यह सामन्तवादी प्रवृत्ति थी कि कालीन पर एलीट क्लास ही चल सकता है। उस समय तक आम आदमी कालीन को सिर्फ़ बिछते हुए देखभर सकता था। कालीन पर चलने की उस बेचारे की हिम्मत कहाँ? ज़्यादा से ज़्यादा वह कालीन पर बैठ सकता है, बशर्ते उसका जिस्म कालीन की रूह को गंदा न करे। 

पर समय बदला और बहुत कुछ बदल गया। लोकतंत्र की हवा लगी तो बहुतेरे, कालीन को चटाई की तरह इस्तेमाल करके सामन्ती ठसक को जूते की नोक पर रखने का हौसला रखने लगे। अब जिसे देखो वही कालीन पर चलने की हसरत पालने लगा। कालीन का कालीनपना झाड़ दिया गया। 

लोकतंत्र में वोट की राजनीति ने विशिष्टता के मायने बदल दिए। कल तक दलित-कुचलित जनता अब जनता से 'जनता-जनार्दन' हो गयी . . .। कहने का मतलब अब कालीन पर सिर्फ़ विशिष्ट वर्ग का ही एकाधिकार न रहा; अब विशेष अवसरों पर जनसाधारण वर्ग को भी कालीन पर बैठने की अनुमति दी जाने लगी। यह समय की माँग है। इस तरह के मौक़े एक तरह से जनता रूपी पितरों के श्राद्धपक्ष के विशिष्ट अवसर हैं। श्रद्धा के अभाव में क्या हम श्राद्धपक्ष मनाना छोड़ दें? 

वह तो हम इसलिए भी मना लेते हैं, ताकि कोई पितृ-आत्मा बेवजह प्रेस्टीज-इश्यू न बना ले। 

लोकतंत्र में प्रायः ऐसे अवसर, (मने आमजन को रेडकारपेट पर बैठने या चलने की छूट जैसे) प्रतिबद्ध जनसेवकों के लिए टर्निंग प्वाइंट सिद्ध होते हैं। दूसरों को अवसर देकर अपने लिए अवसर पैदा करना भारतीय राजनीति का परंपरागत आशावाद है। कुछ क्षणों के लिए ही सही दरिद्रों को अपना माई-बाप बनाकर उनको श्रवण कुमार के बाप होने का अवसर देना क्या सामान्य उदारता है? 

जो भी हो, लेकिन इन सबके बीच कालीन से उसका कालीनत्व छीन लिया गया। 

कालीन को कालीन न रहने दिया गया। 

अब दुष्यंत जी की बात बीते दिनों की हो गई!! अब आत्मविश्वास सर चढ़कर बोल रहा है। अब अंदाज़-ए-बयां कुछ इस जबर अंदाज़ में होगा . . . “आपके कालीन देखेंगे उसी दिन, पाँव जिस दिन मेरे कीचड़-युक्त होंगे।” 

यह राही मासूम रज़ा के ‘नीम का पेड़’ के बुधई से सुखीराम तक की यात्रा का बदलाव है। कहना न होगा कि ‘सबका साथ सबका विकास’ की अवधारणा ने समाजवाद को किताबों से निकालकर कालीन पर उतार दिया। कालीन बुर्जुआ वर्ग का प्रतीक है, सो अब उससे चुन-चुनकर बदला लिया जा रहा है। उसे दरी बनाने की कोशिशें की गईं। 

अब कालीन को उसकी औक़ात दिखाने के लिए उसकी छाती पर कचरा रखा जाता है और न केवल रखा जाता है बल्कि अब उसे साधारण जनों के साथ माननीयों द्वारा बीना भी जाता है। किसी का दुर्भाग्य हो तो हो, पर कचरे का तो सौभाग्य ही है। और फिर जिस कचरे को अतिविशिष्ट व्यक्ति के करकमलों का स्पर्श मिल जाए, उसका क्या कहना!!!! रेड कार्पेट पर बैठकर कूड़े-कचरे को बीनना अपने आप में एक अद्भुत कला है!!! इस कलाबाज़ी पर कौन न मर मिटे!!! 

दरअसल कालीन पर कूड़ा रखकर बीनने के चलन की शुरूआत यूँ ही नहीं हुई। इसके पीछे एक कहानी है। हुआ यह कि ‘जनसेवा पर पहले हक’ को लेकर हुए आम निर्वाचन में एक पार्टी के मुखिया बाज़ी मार ले गए। जनसेवकों की भीड़ में वे प्रधान सेवक बनकर उभरे। सो अगले क़दम के रूप में प्रधान सेवक द्वारा अपने को सर्वहारा वर्ग का सच्चा प्रतिनिधि घोषित करते हुए प्रगति मैदान के विशाल प्रांगण में कूड़ा बीनने का क्रांतिकारी निर्णय लिया गया। यह काम कालीन पर बैठकर ही किया जाना था, ऐसा प्रधान सेवक का आदेश था।

मतलब यह कि अब कालीन पर बैठकर के भी कूड़ा बीना जा सकता है। उसके लिए गली-मुहल्लों और गंदी नालियों को लाँघने की ज़रूरत नहीं। जनसेवा में यह नवोन्मेषी दृष्टि थी। जनसेवा का बीड़ा उठाने वाले अपने इन्हीं सद्प्रयासों से जनता के प्यारे बने हुए हैं। 

प्रकट में संदेश यह कि कालीन अब जनसाधारण के लिए सुलभ हो गया है, पर प्रकारांतर से बड़ा संदेश यह कि देखिए अब आपके प्रधान सेवक की पहुँच भी कालीन तक हो गयी है। अब विशिष्ट वर्ग कालीन से अपने पुराने आत्मीय संबंधों को लेकर कुढ़े तो कुढ़े। कोई क्या कर सकता है! साथ ही अब कालीन को भी समय का सच स्वीकारना होगा। वैसे उसको (कालीन) तो ख़ुशी होनी चाहिए कि उसकी वजह से सामान्य भी विशिष्ट हो सकता है। उसे भारतीय जनता के हर परिस्थिति में ढलने औ समभाव रखने के कौशल से सीख लेनी चाहिए। “सर झुका सकते हैं लेकिन सर कटा सकते नहीं।” प्राथमिकता सर बचाने की होनी चाहिए। 

हमारे ग्रन्थ कहते हैं कि एक का उठान दूसरे के गिरान की वजह बनता है। जैसे अँग्रेज़ों का जब उठान हुआ हम लोग गर्त में गिरे। जब भाजपा ऊपर उठी तब कांग्रेस गड्ढे में गिरी। कल को भाजपा डाउन होगी तो फिर कांग्रेसियों का भाग्य चमक सकता है। यह शाश्वत है कि जब एक की हार होगी तभी तो दूसरे की जीत होगी। अतः इसे खेल भावना के तौर पर लेना चाहिए। अतः हम सभी को जनसाधारण के साथ-साथ कूड़े-कचरे के सम्मान में हुई अतिशय वृद्धि को सद्भाव के रूप में लेना चाहिए। ‘जैसे उसके दिन बहुरे ऐसे सभी के दिन बहुरे’ की लोकमंगल भावना के साथ अपने दिन बहुरने की प्रार्थना करनी चाहिए ताकि हम भी किसी दिन कालीन पर बैठकर कूड़ा-कचरा बीन सके।

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