सरकार तुम्हारी जय होवे
संजीव शुक्लअरे भाई उनको कबीर होने के मायने न बताओ। वह पानी पर नहीं चढ़ने वाले। एक बार तो चिकना घड़ा भी उनकी फिसलन देख के पानी माँग जाए। वैसे किसी से ऐसी उम्मीद रखना भी ठीक नहीं।
भाई कबीर तो कबीर हैं।
और फिर वह सस्ता ज़माना था, तिस पर कोई कम्पटीशन भी नहीं था। आज के ज़माने में जुलाहागिरी से पेट पालने के तो ख़्वाब भूल ही जाइये। तब खरी-खरी कहने वाले को पागल समझ सरकार लोग मुआफ़ कर देते थे। आज कह के देखिये न चार-चार एफ़आईआर हो जाय तो कहिये।
तो भाईसाब ज़माने के हिसाब से हैं। उनका कहना है कि अब संतन को ही सीकरी में काम है। जब तक एक किताब लिखने में समय ज़ाया करेंगे उतने में तो दस गणेशपरिक्रमा करके बीस गुना पुण्य बटोर लेंगे। वे दरख़्तों के लचीलेपन के क़ायल हैं, सो वे भी उन पेड़ों की तरह सदा हरे-भरे रहते हैं। वे सत्ता की तरफ़ उठने वाली हर उँगली को तोड़ देना चाहते हैं। सत्ता के ख़िलाफ़ उठने वाले हर आंदोलन में विघटनकारी तत्त्वों की सूत्रबद्धता की कल्पना कर प्रचारित करने की महती भूमिका उन्हीं के कंधों पर है।
भई! सही बात है, कबीर की कबीर जाने। वो उद्भट विद्वान थे। वह नॉनस्टॉप लिखने वालों में से थे। पता नहीं कितने तो दोहे लिख मारे हैं कबीर साहब ने। संत प्रकृति के थे वे। आत्मविज्ञापन से कोसों दूर थे। उनको छपने की चिंता नहीं ही होगी, क्योंकि उनको पता था कि अगर ये न छपा तो छपेगा क्या? और ये छापेंगे नहीं तो जाएँगे कहाँ? अच्छा इसके बाद अगर मान लिया कि नहीं ही छापेंगे तो उन पर क्या फ़र्क़ पड़ता?
अब अगर बड़े लोगों की तरह ये भाईसाब भी तुलसी, सूर, कबीर बनने की सोंचे, तब तो आम आदमी की मौत मारे जाएँगे और वह भी असमय! वो ऐसी मौत मरना नहीं चाहते। अरे समाधि पर कोई अगरबत्ती न जलाए तो कोई बात नहीं कम से कम कुत्ते तो न करें कुछ उस पर। क्योंकि वो तो पैदा होते ही सुनते आए हैं कि 'मौत वही जो दुनिया देखे, घुट-घुटकर यूँ मरना क्या'!
इसलिए शान से तभी मरा जा सकता है जब नाम होगा और नाम तब होगा, जब लोग जानेंगे और जानेंगे तब, जब पुरस्कृत होंगे और पुरस्कृत तब होंगे, जब कहीं छपेंगे और छपेंगे तब, जब वंदना के गीत गाएँगे!
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