नेताजी भावुक हुए
संजीव शुक्ल
इस बार ‘सबका साथ सबका विकास’ के ऐतिहासिक प्रोजेक्ट में नेताजी ने वन्य जंतुओं की चिंताओं को भी शामिल किया। वे वन्य समाज के आख़िरी छोर पे खड़े जंतुओं को भी मुख्यधारा में घसीटना चाहते थे। उन्होंने वाइल्ड लाइफ़ सेंचुरी का दौरा करना तय किया। आनन-फ़ानन में सारी तैयारियाँ की गईं। मंच तैयार किया गया, भाषण उसी पर दिया जाना था। तय दिन तय समय पर माननीय आए और इधर-उधर हाथ हिलाते हुए सीधे मंच पर पहुँच गए। वहाँ पहुँचकर चारों तरफ़ देख एक बार फिर हाथ हवा में लहराया। मुस्कुराहट को कान के सिरे तक पहुँचाया। होंठों की कोरों ने खुलकर अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर गालों पर सर्जिकल स्ट्राइक की।
माहौल बिलकुल पीक पर था। वे शुरू हो गए। उन्होंने कहा अपनों के बीच आकर जो ख़ुशी हुई, वह बयाँ नहीं की जा सकती। हमारा जंगल से पुराना रिश्ता रहा है। हमारा बचपन जंगल में ही गुज़रा है। लकड़ी बीनने और गाय के लिए चारा लाने के लिए जंगल अक्सर ही आना होता था। तमाम जानवर तो दोस्त बन गए थे। शाखामृग हमारे लिए जामुन लेकर आते। कई जानवरों की तो मैं आवाज़ भी निकाल लेता था। उनकी बोली-बानी समझता और उसी में उनसे संवाद स्थापित करता। वे पूरे फ़्लो में थे। उन्होंने आगे कहा कि हम आपके लिए मांस का विदेशों से आयात करेंगे ताकि आप लोग एक दूसरे को अपना आहार न बनाएँ और सद्भाव से रहें। जो प्राणी संकटग्रस्त श्रेणी में आ चुके हैं, उनके संरक्षण के लिए विशेष बजट का इंतज़ाम किया जाएगा। पिछली सरकारें जंगल का सब बजट खा जाती थीं। ख़ासकर नेहरू जी तो जंगली प्राणियों से घोर दुर्भावना रखते थे। उनकी पूरी डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया राजाओं और मनुष्यों की सत्ताओं के इतिहास से भरी है, पर जंगली जानवरों पर क़ायदे के दो पन्ने भी नहीं हैं। यह पूर्वाग्रह नहीं तो क्या है मित्रों! पर अब ऐसा कदापि न होगा। नेहरू के औद्योगीकरण की जगह हम जंगलीकरण करेंगे। और हाँ कुछ जानवरों के नाम बदलने पर सरकार गंभीरता से विचार कर रही है। जैसे कि बंदर और मर्कट की जगह अब उनको शाखामृग कहा जाएगा। मर्कट से मारकाट जैसी हिंसक भावना जगती है जो कि ठीक नहीं। यह हिंसक नाम है। इसी तरह लकड़बग्घा को काष्ठबग्घा कहा जाएगा। यह भाषा के शुद्धिकरण की दिशा में क्रांतिकारी क़दम होगा। तभी एक हिरण ने कहा, “सर आपने जो पिछली बार हमारा सारा बजट भेड़ियों के विकास पर ख़र्च कर दिया, जबकि आपके समर्थन में सबसे ज़्यादा भीड़ हमारी जाति की ही रहती थी। महँगाई इत्ती कि हमारी हिरणियों के मंगलसूत्र तक बिक गए।” माननीय अकबकाकर रुक गए, थोड़ा सोचा और फिर गला खंखारकर बोले, “आपकी बात सही है। हम चाहकर भी आपकी मदद न कर सके, क्योंकि हमारी सरकार अल्पमत में थी और भेड़ियों के समर्थन पर टिकी थी। हम शर्मिंदा हैं, पर ज़िन्दा हैं, सो हमारा वादा है कि इस बार हम आपके साथ अन्याय न होने देंगे।”
सभा के प्रेस कॉन्फ्रेंस में तब्दील हो जाने के डर से माननीय ने भाषण को वहीं विराम देने का मन बना लिया। दुनिया में यदि वे किसी चीज़ से डरते थे, तो वह थी प्रेस कॉन्फ्रेंस। उन्होंने बात को लपेटने की ग़रज़ से कहा कि आज बस इतना ही। अभी एक और मीटिंग में जाना है सो आपसे विदा लेते हैं। दुबारा जल्द ही मिलेंगे। सभा ज़िन्दाबाद के नारों से गूँज उठी। माननीय नीचे उतरे और अपने गरुण पर बैठने ही वाले थे कि रंगबिरंगे गिरगिटों का एक समूह सामने आ गया। सब अपने-अपने गले की मालाओं को उनके चरणों में रख विनीत भाव से उनकी जय-जय करने लगे।
एक गिरगिटान ने कहा, “आते रहिएगा सर। आपसे बहुत कुछ सीखते हैं। एकलव्य की भाँति ही मन में धारकर आपको पूजा है। आप हमारे वैचारिक पितृपुरुष हैं। रंग बदलने में आप हमारे बाप के भी बाप हैं।” नेताजी भावुक हो गए। आँखों में आँसू और उनके हाथ ख़ुद-ब-ख़ुद जुड़ गए। सचिव के इशारा करने पर वे भारी मन से प्रस्थानित हुए।
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