शर्म से मौत
संजीव शुक्ल
एक बार एक नया-नया जवान हुआ साँप, एक नेता जी के द्वार पर आकर उन पर गालियों की बौछार करने लगा। कारण, कुछ साल पहले जब वह छोटा था, उसका दादा इन्हीं नेताजी की लाठी का शिकार हुआ था। उसे बहुत दुःख हुआ था। उसने अपने पूर्वज अश्वसेन के संस्कारों से प्रेरित हो तभी बदला लेने की ठान ली थी। महाभारत में साँपों का राजा अश्वसेन अर्जुन से बदला लेने के लिए कर्ण के पास गया था और उससे अपनी प्रत्यंचा पर ख़ुद को चढ़ाने का अनुरोध किया, ताकि वह अर्जुन को निपटा सके। अर्जुन ने उसके ख़ानदान के साथ अच्छा सुलूक नहीं किया था, सो वह अर्जुन से बैर मानता था। हालाँकि कर्ण ने अतिरिक्त सतर्कता दिखाते हुए सहायता लेने से इंकार कर दिया। कर्ण सोच रहा था कि इस साँप का क्या भरोसा, कहो कल को यही सबसे चुग़ली कर दे और अर्जुन को मारने का श्रेय हड़प ले तब? तब वह क्या लोक में मुँह दिखाएगा!
हाँ तो तब वह बाल-मन साँप उसी भावना के वशीभूत था। उसकी दादी ने सांत्वना देते हुए कहा कि बेटा जब बड़े हो जाना, तब इसका बदला लेना। अभी छोटे हो, अभी खेल-कूद लो। फिर तो तुम्हें यही सब करना है।
इस पर साँप ने भोलेपन से कहा, “दादी क्या हम ज़िन्दगी भर बदला ही लेते रहेंगे!”
दादी ने कहा, “नहीं बेटे, बदला तो सिर्फ़ इस नामुराद से लेना है। बाक़ी को तो निःस्वार्थ भाव से निपटाना है। डँसना हमारा धर्म है।”
दिन बीतते गए साँप अब गबरू जवान हो गया था। बल्कि सच्ची बात तो यह थी कि वह बदला लेने के लिए ही जवान हुआ था। जैसे कुछ लोग वृद्धापेंशन लेने के लिए ही बूढ़े होते हैं।
ख़ैर वह दिन भी आ गया, जिसके लिए वह बड़ा हुआ था। उसने कहा, “दादी आज वह दिन आ गया जब आपके सुहाग और अपने दादा की हत्या का बदला हमें लेना है। ईश्वर ने हमें इसी निमित्त धरती पर भेजा है। हम सिर्फ़ रेंगने के लिए नहीं पैदा हुए हैं। आशीर्वाद दीजिए कि उस नेता को यमलोक पहुँचाकर ही आऊँ।”
दादी ने विजय तिलक करते हुए उसकी बलैया लीं और ख़ूब आशीर्वाद दिया। और कहा, “बेटा हम बहुत ज़हरीली प्रजाति के हैं। अब जाति की इज़्ज़त तुम्हारे हाथ में है। जाओ और यशस्वी हो। लेकिन होशियारी से। दुश्मन को कभी हल्के में नहीं लेना चाहिए।” पर उस युवा ने दादी की आख़िर की सलाह की अनदेखी की।
वह अपनी दादी को प्रणाम कर, फुफकारता हुआ, लहराता हुआ सीधे नेता जी के द्वारे पहुँचा। पहुँचते ही वह नेताजी को गरियाने लगा। नेताजी चाय की चुस्कियों के साथ अख़बार देख रहे थे। पास से गाली-गलौज की आवाज़ सुन, नेताजी ने मुँह उठाया और सामने साँप को फुफकारते हुए पाया। नेताजी साँपों की भी भाषा जानते थे, सो वे उसके अपशब्दों को ग़ौर से सुनने लगे। अपशब्दों से उन्हें कोई ख़ास चिढ़ न थी।
बदनाम न होंगे तो क्या नाम न होगा। सो वे बदनामी में भी संभावनाएँ तलाश लेने वाले व्यक्ति थे। एक प्रकार से आपदा में भी अवसर तलाशने वाले।
वे शांत ही रहे। सामर्थ्यवान जल्दी उत्तेजित नहीं होता। वे फिर उस ख़बर को उसी तल्लीनता से पढ़ने लगे, जिसमें उनके विरोधी पर सीबीआई की रेड पड़ने की ख़बर थी। वे मुस्कराए। और फिर किसी को फोन कर शाबाशी दी।
इधर साँप अपनी उपेक्षा से अत्यधिक रोष से भर उठा। उसने ज़बरदस्त फुफकार भरी। नेताजी का ध्यान भंग हुआ। उन्होंने देखा तो साँप अभी भी वहीं था। युवा साँप ने कहा, “तुमने इसी लाठी से हमारे दादा को मारा था।” साँप ने पास एक दीवार के सारे टिकी हुई लाठी की तरफ़ इशारा करके कहा।
“नहीं यह लाठी गाँधी जी की लाठी है। देखा नहीं ऊपर गाँधी जी की फोटो टँगी है। मारने वाली लाठी उस कोने में टिकी है।”
“पर तुम जैसे लोगों के पास गाँधी जी की फोटो और गाँधी-लाठी का क्या काम? गाँधी जी तो अहिंसावादी थे। तुमने तो हमारे दादा की हत्या की है,” नवेले साँप ने उत्तेजना में कहा।
“हम जब हिंसा नहीं करते, तब अहिंसावादी ही होते हैं। गाँधीजी की लाठी कमज़ोरों का सहारा है। जब हम कमज़ोर पड़ते हैं, तो गाँधी और उनकी लाठी हमारा सहारा बनती है। और हाँ, कौन दादा?” नेता जी ने अपनी बात कम्प्लीट करते हुए पूछा?
“अरे, वही तीन-चार साल पहले जाड़ों में तुमने हमारे दादा को मारा था, जब वे इस लॉन में सवेरे धूप ले रहे थे।”
“अच्छा तो तुम उस करिया करैत की बात कर रहे हो?” नेताजी ने दिमाग़ पर ज़ोर देते हुए कहा।
“हाँ तो उनको यही जगह मिली थी, धूप लेने के लिए? हम अपने क्षेत्र में दूसरे को नहीं रहने देते। जो हमारे अधिकार क्षेत्र में दख़ल देता है, उसका हश्र यही होता है। वह हमारे किसी परिवारी को भी तो काट सकता था।
“और हाँ, ठीक कहा तुमने, लाठी से ही मारा था। छोटे मोटे विरोधियों और शत्रुओं को निपटाने के लिए लाठी ही बहुत है।”
“माने बड़े शत्रुओं के लिए कुछ और यूज़ करते हैं क्या?” युवा साँप ने उत्सुकता से पूछा!
“तमाम हथियार हैं। यहाँ तो बिन हथियार उठाए काम तमाम कर देते हैं,” नेता ने आत्मविश्वास से कहा।
“बिना हथियार उठाए . . .?” साँप ने आश्चर्य से पूछा।
“छोड़ो हटाओ, तुम्हें इससे क्या?” नेताजी ने बताना उचित न समझा। “तुम जाओ, अभी खेलो-कूदो नहीं तो तुम भी . . .”
साँप ने इस बात पर ख़ुद को अपमानित महसूस किया।
उसने भी पलटवार करते हुए कहा—जिससे मिलना हो, देखना हो, मिल-देख लो। दो घंटे का समय देता हूँ। फिर दुनिया न देख पाओगे नेताजी।
नेताजी ने मुस्कुराते हुए कहा, “रेंगने वाले ज़्यादा नहीं उड़ा करते। हद में रहो! जितने तुम पूरी ज़िन्दगी में नहीं मार पाते, उतने तो यहाँ . . .” कहते हुए उन्होंने ख़ुद को एक बार फिर रोक लिया।
युवा साँप ने हार न मानते हुए कहा, “अभी तुम्हें हमारे ज़हर का अंदाज़ा नहीं।”
“और तुम्हें अभी हमारी ताक़त का अंदाज़ा नहीं,” नेता ने प्रत्युत्तर में कहा।
“हमारी फुफकार में ज़हर है! हमारा काटा पानी नहीं माँगता!” साँप ने जवाबी क़व्वाली की।
“हमारी तो बातों में ही . . .” कहते कहते नेता जी रुक गए। फिर उन्होंने नफ़ासत से कहा कि हमारी एक आवाज़ पर लोग जान लेने-देने के लिए तैयार हो जाते हैं। लोग स्वेच्छा से हमारे लिए मरने-मिटने के लिए तैयार हो जाते हैं। पर हम क़ानून को मानने वाले लोग हैं, जनतांत्रिक हैं। हम संविधान के दायरे में रहक़र निपटाते हैं। जनसहमति से सोच को अंजाम देते हैं।
“तो आज तय ही हो जाय कौन ताक़तवर है,” साँप ने कहा।
“ठीक है, फिर यही सही। जाओ और शाम को बताना आकर कि तुमने कितने लोगों को यमपुरी पहुँचाया।”
साँप वहाँ से चल दिया।
रास्ते में ही उसने कइयों को निपटा दिया। वह दौड़-दौड़कर लोगों को काट रहा था। शाम होते ही टास्क की अवधि पूरी हुई और वह थका-हारा सीधे नेताजी के दरवाज़े पहुँचा।
नेताजी वहाँ नहीं थे। वह परेशान हुआ, लेकिन तभी नेताजी एक लंबी गाड़ी से उतरे।
देखा कि युवा साँप सामने खड़ा था।
नेताजी ने देखते ही पूछा, “तो कितने मारे आज तुमने?”
“यही कोई बीस के आसपास। कोई ज़िन्दा न बचा।”
“अच्छा! इसके माने तुम परम उत्साही हो! नेताजी ने पीठ थपथपाने के अंदाज़ में कहा। पर अभी जाओ, शेष बातें कल बात होगी। आज मैं बहुत थक चुका हूँ। क़रीब दस उद्घाटन किए। तमाम भाषण देने पड़े।”
“नहीं मैं तुम्हारी कोई बहानेबाज़ी नहीं सुनूँगा। अब तुम्हारी बारी है। फ़ैसला अभी के अभी होकर रहेगा कि कौन कितना ताक़तवर है! मैं बिना फ़ैसला किए घर नहीं जाऊँगा।”
“ठीक है, पर रात को कोई प्रतियोगिता नहीं होती। अभी घर जाओ। फ़ैसला कल हो जाएगा।”
“तो ठीक है, मैं आज यही सड़क के उस पार पेड़ पर रहक़र रात काट लूँगा, लेकिन ऐसे तो घर न जाऊँगा,” साँप ने कहा।
“ठीक है,” कह कर, नेताजी अपने शयनकक्ष की ओर मुड़ लिए।
अगले दिन जैसे ही नेताजी तैयार होकर निकलने को हुए, वही युवा साँप फिर सामने आ गया।
नेताजी ने उससे कहा, “अच्छा! तुम देखना ही चाहते हो, तो ठीक है। हमें एक तक़रीर के लिए जाना है। फ़ैसला वहीं हो जाएगा। तुम भी चलो। लेकिन हमारे साथ नहीं, तुम अपने साधन से आओ,” नेताजी ने सावधानी बरतते हुए कहा।
युवा साँप ने नगीना फ़िल्म देख रखी थी। वह चुपके से नेताजी की गाड़ी में छुपकर बैठ गया।
नेताजी सभास्थल पर उतरे। समर्थकों ने नेता को मालाओं से लाद दिया और पूरा वातावरण नेताजी के नारों से गूँजने लगा।
नेता जी सीधे मंच पर पहुँचे। उनके आते ही औपचारिकताओं के बाद उनसे बोलने के लिए आग्रह किया गया।
नेता जी आए, खंखारे और बोले, “भाईयो, बहनो मैं अपने लिए नहीं जीता। मेरी ख़्वाहिश है कि मेरा धर्म बचा रहे। उसके लिए अगर मेरी जान जाती तो जाए, मुझे परवाह नहीं। आजकल विरोधी लोग अकारण ही धर्म को लांछित कर रहे हैं। हमारी धार्मिक स्वतंत्रता पर इतने पहरे और दूसरों को खुली छूट। अब हमें अपना हक़ लड़कर लेना होगा। अपनी जाति पर मर मिटो। जो बाधा बने उसे हटा दो। याद है हमारे क़ौम के सिरमौर को ख़ास संप्रदाय के लोगों ने कितनी बेदर्दी से मौत के घाट उतार दिया था। आज समय आ गया है, अपनी ताक़त दिखाने का। बदला लेने का!”
फिर क्या था! उत्तेजना का बवंडर उठा और एक सैलाब सा बढ़ चला। थोड़ी देर में दुकानें जलीं, लाशों के ढेर लगे। शाम तक शहर साँय साँय करने लगा।
शाम को नेताजी उस साँप की तलाश करने लगे, पर वह नहीं दिखा। अगले दिन जब नेताजी की गाड़ी का ड्राइवर गाड़ी साफ़ कर रहा था, तो उसे डिग्गी में बहुत बड़ा साँप दिखा। वह डर गया। फिर हलचल न देख उसने लंबी लाठी से हिलाया-डुलाया। साँप मरा था। नेता जी को बताया गया। वे आते ही पहचान गए। पर यह क्या उस पर कहीं कोई चोट का निशान भी नहीं। वन विभाग के कुशल जानकार बुलाया गया। उसने भी किसी चोट या काटे जाने की पुष्टि नहीं की। असली वजह कोई नहीं जान पाया, जबकि वह शर्म के मारे मर गया था।
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