कविता में भारी उछाल पर पढ़ने और सुनने वालों का भीषण अकाल
संजीव शुक्लफ़ेसबुक पर कविता की संक्रामकता दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। कइयों ने कइयों को भरपूर उकसाया है। हम नहीं जानते, बचे रहिये!! जो देखो वही चपेट में आ रहा है। हर आदमी हाथ आज़मा रहा है इस क्षेत्र में। बिना पढ़े वाह-वाह का अच्छा ख़ासा स्कोप भी एक वज़ह है।
इस धारा में कुछ ख़ास क़िस्म की कविताएँ ही मेनस्ट्रीम में रहती हैं। उदाहरण के तौर पर इश्क़ में ग़ाफ़िल प्रेमी की आहें रचना के केंद्र में रहती हैं। इसमें ख़ुद को नदी के तट पर रखते हुए प्रेमिका के किसी और के साथ नाव पर जाने जैसी कुछ सूचना देनी होती है। कुछ लोग देशभक्ति की रचनाओं में भी सृजन की संभावनाएँ तलाश लेते हैं, यद्यपि वह अपने वैयक्तिक जीवन में देशभक्ति की भावनाओं से ख़ुद को उसी तरह अलग रखते हैं, जैसे धर्मनिरपेक्षता में यक़ीन रखने वाले धर्म को राजनीति से अलग रखते हैं।
ख़ैर, फ़िराक़ बनने की चाह के साथ हम भी एक-आध लाइनों के साथ कूदे थे कविता के अखाड़े में, पर अच्छा रिस्पॉन्स न मिलने से (उल्टे टी.आर.पी.और डाउन हुई) किसी की तरह झोला उठाकर चल दिये।
यह मनोवैज्ञानिक संक्रमण है। जिसे देखो वही कसरत कर रहा है कविता में। एक हमी नहीं है जहाँ में और भी तमाम हैं . . .
कुछ जघन्य रचनाकर्मी जो भीड़ से डरते हैं, वह कविता की भीड़ से इतर व्याख्या के क्षेत्र में नया करने की कोशिश कर रहें हैं। इसकी तारीफ़ की जानी चाहिए। कम से कम वह कुछ नया तो कर रहे हैं। इसी क्रम में एक बहुश्रुत दोहे की व्याख्या कुछ इस टाइप में आई।
दोहा है—
"ऐसे बानी बोलिये मन का आपा खोय,
औरन को शीतल करै आपहु शीतल होय"
भाईसाब के अनुसार ऐसी बोली बोलिये कि सामने वाला अपना आपा खो दे; वह आपे से बाहर आ जाय। ऐसी बोली जो दूसरे की चढ़ी गर्मी को उतार दे और इसके बाद ख़ुद की छाती में भभक रही आग को भी तुरंत शांति दे।
आप भी दाद दीजिए!