अपराध दर अपराध

01-06-2024

अपराध दर अपराध

संजीव शुक्ल (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अगर नेहरू का नाम लेना शर्मिंदगी और अपराध है तो यह अपराध विश्व की राजनीतिक और साहित्यिक बिरादरी की तमाम नामी-गिरामी शख़्सियतों ने किया है। आज ज़रूरत है कि इसका खुलकर पर्दाफ़ाश किया जाय। भगवान जाने इन अपराधों के प्रति उनमें कभी अपराधबोध हुआ या नहीं; शर्मिंदगी महसूस हुई या नहीं। क़ायदे में तो एक जाँच कमेटी इस पर भी बैठाई जानी चाहिए कि इन महनीय लोगों को अपने इन कुकृतयों पर कभी शर्मिंदगी हुई या नहीं? लेकिन हाँ, कमेटी बैठाने से पहले सतर्कता ज़रूर बरतें। कहीं उसका हाल सुभाष बाबू की गोपनीय फ़ाइलों को खुलवाने जैसा न हो जाए। बड़ा हल्ला मचता था कि सुभाष बाबू की गोपनीय फ़ाइलों में नेहरू के तमाम अपराध दर्ज हैं। पंथ-विशेष को लगता था कि इन फ़ाइलों में ज़रूर कुछ न कुछ नेहरू की बदनीयताें के क़िस्से मिलेंगे, जिसे फिर चटखारे लेकर सुनाया जाएगा। उनकी मनोहर कहानियों को और पंख लगेगें। पर सब बेकार!! 

उल्टे उसमें तो नेहरू द्वारा सुभाष बाबू के परिवार की आर्थिक सहायता किये जाने की सदाशयता उजागर हो गयी, जिसे नेहरू जीते जी कभी इसका ज़िक्र तक नहीं करते थे। पता नहीं कैसे बड़े लोग थे जिन्होंने अपना ढिंढोरा तक नहीं पीटा! ख़ुद सुभाष जी की बेटी ने एक चैनल को दिए इंटरव्यू में नेहरू और सुभाष दोनों को राष्ट्रवादी नेता बताया और बताया कि दोनों अपने अपने तरह से देश की सेवा कर रहे थे। उन्होंने नेहरू की ख़ूब तारीफ़ की। 

जो कल तक गोपनीयता को अपराध बताते फिरते थे, पारदर्शिता का ढिंढोरा पीटते थे, वे इलेक्टोरल बांड की जानकारियों को छुपाने की भरसक कोशिश करते पाए गए। जो पारदर्शिता के पैरोकार थे, वे आज पी.एम. केयर फ़ंड का हिसाब जनता के बीच आना नहीं देना चाहते। 

ख़ैर तो आज सबसे पहले शुरूआत सुभाष बाबू के अपराधों से ही शुरू करते हैं। देखते हैं कि उन्होंने कैसे कैसे अपराध किए . . .

तो सुभाष जी का अक्षम्य अपराध यह था कि उन्होंने एक जगह यह लिखा है कि “भारत में अभी महात्मा गाँधी के बाद दूसरा सबसे कोई लोकप्रिय नेता है तो वह हैं जवाहरलाल जी। और वे आगे लिखते हैं कि, “युवकों में तो वे महात्मा जी से भी अधिक लोकप्रिय हैं।” 

इसके अलावा इतिहास को जानें तो पता चलता है कि सुभाष बाबू कांग्रेस की राह से अलग होने के बावजूद अपनी “आज़ाद हिंद फौज” की ब्रिगेड के नाम गाँधी, नेहरू और मौलाना आज़ाद के नाम पर रखे जाने का अपराध करते हुए पाए जाते हैं। गाँधी तो चलो फिर भी उनसे उम्र में बहुत वरिष्ठ थे, इसलिए उनके प्रति उनके सम्मान को लोकलाज के तौर पर देखा जा सकता है, लेकिन नेहरू तो उनसे कुछ ही बरस बड़े थे। फिर उन्होंने ऐसा अपराध क्यों किया? अपने समकालीन और लगभग हमउम्र को इतना सम्मान कौन देता है भाई? वे और लोगों के नाम पर भी तो अपनी ब्रिगेड्स के नाम रख सकते थे। पर उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और सरे-आम अपराध किया। गाँधी को राष्ट्रपिता का ख़िताब देने का अपराध भी सुभाष के ही सिर जाता है। वाक़ई सुभाष बाबू पैदाइशी अपराधी प्रवृत्ति के थे। 

और तो और क्रांतिनायक सरदार भगतसिंह भी कुछ इसी तरह के भीषण अपराध करते पाए गए। उन्होंने तो हद ही कर दी! उन्होंने नेहरू को युगांतरकारी तक बता दिया!! सो मेरे विचार से मुक़द्दमा चलना तो इन पर भी बनता है। इसके लिए भगतसिंह की भर्त्सना तो की ही जानी चाहिए। है न . . . 

क्या उन्हें तत्कालीन राष्ट्रीय परिदृश्य में तारीफ़़ के लिए सिर्फ़ एक नेहरू ही मिले थे? 

भगतसिंह कहते हैं कि, “इस समय जो नेता आगे आए हैं वे हैं—बंगाल के पूजनीय श्री सुभाष चन्द्र बोस और माननीय पंडित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिंदुस्तान में उभरते नज़र आ रहे हैं और युवाओं के आंदोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिंदुस्तान की आज़ादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है, तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगांतरकारी . . . सुभाष बाबू मज़दूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। 

“पर पंडित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं।”

इनके बाद आपको डॉक्टर राधाकृष्णन का अपराध बताते हैं। वे कहते हैं कि “नेहरू दुनिया के महान पुरुषों में से एक हैं।” 

हालाँकि अपराधी तो एक और भी महान व्यक्ति है, जिसने नेहरू की तारीफ़ कर बहुत ही घटिया काम किया है और जिसे एक वर्ग विशेष नेहरू के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर खड़ा कर उसकी विरासत को अपना बताता फिरता है। वह अपराधी है पटेल। यह वर्ग विशेष बताता है कि नेहरू ने पटेल के साथ बड़ा ज़ुल्म किया। 

हालाँकि यह बात और है कि दुश्मनी के बावजूद नेहरू ने पटेल को हटाने के लिए किसी मार्गदर्शक मंडल का गठन नहीं किया था। 

पटेल लिखते हैं कि, “कई तरह के कार्यों में एक साथ संलग्न रहने और एक-दूसरे को इतने अंतरंग रूप से जानने की वजह से स्वाभाविक रूप से हमारे बीच का आपसी स्नेह साल-दर-साल बढ़ता गया है। लोगों के लिए यह कल्पना करना भी मुश्किल होगा कि जब हमें एक-दूसरे से दूर होना पड़ता है और समस्याओं को सुलझाने के लिए हम एक-दूसरे से सलाह-मशविरा नहीं कर पाने की स्थिति में होते हैं, तो हम दोनों को एक-दूसरे कमी कितनी खलती है। इस पारिवारिकता, नज़दीकी, अंतरंगता और भ्रातृवत स्नेह की वजह से उनकी उपलब्धियों का लेखा-जोखा करना और सार्वजनिक प्रशंसा करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है। लेकिन फिर भी, राष्ट्र के प्यारे आदर्श, जनता के नेता, देश के प्रधानमंत्री और आमजनों के नायक के रूप में उनकी महान उपलब्धियाँ एक खुली किताब जैसी हैं।”

सरदार पटेल यही नहीं रुकते हैं वे और लिखते हैं . .  “जवाहरलाल उच्च स्तर के आदर्शों के धनी हैं, जीवन में सौंदर्य और कला के पुजारी हैं। उनमें दूसरों को मंत्रमुग्ध और प्रभावित करने की अपार क्षमता है। वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो दुनिया के अग्रणी लोगों के किसी भी समूह में अलग से पहचान लिए जाएँगे . . .। उनकी सच्ची दृढ़प्रतिज्ञता, उनके दृष्टिकोण की व्यापकता, उनके विज़न की सुस्पष्टता और उनकी भावनाओं की शुद्धता— ये सब कुछ ऐसी चीज़ें हैं जिसकी वजह से उन्हें देश और दुनिया के करोड़ों लोगों का सम्मान मिला है . . .। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि स्वतंत्रता की अल्लसुबह के धुँधलके उजास में वे हमारे प्रकाशमान नेतृत्व बनें। और जब भारत में एक के बाद एक संकट उत्पन्न हो रहा हो, तो हमारी आस्था को क़ायम रखनेवाले और हमारे सेनानायक के रूप में हमें नेतृत्व प्रदान करें। मुझसे बेहतर इस बात को कोई नहीं समझ सकता कि हमारे अस्तित्व के इन दो कठिन वर्षों में उन्होंने देश के लिए कितनी मेहनत की है।”

अब आगे बढ़ते हैं और बताते हैं मौलाना आज़ाद का अपराध। 

वे कहते हैं कि “जवाहरलाल बड़े स्नेहशील और उदार हृदय व्यक्ति हैं तथा व्यक्तिगत ईर्ष्या-द्वेष के लिए उनके मन में कोई जगह नहीं है।” 

आइंस्टीन उनके लेखकीय कौशल के मुरीद थे, लिहाज़ा उनको भी इस क्राइम के लिए ज़िम्मेदार माना जाय। 
इसके अलावा साहित्यिक जगत में भी बड़े-बड़े अपराधी मिलेंगे। 

मुक्तिबोध तो बेहोशी की हालत से बाहर आते ही नेहरू के बारे में पूछते रहते थे। बताइये बेहोशी तक में अपराध करने से नहीं चूके। 

हक्सले कहते हैं कि राजनीति नेहरू का स्पर्श पाकर शालीन हो गयी। अब बताओ यह भी कोई बात हुई। 

 एक बार फ़िराक़ ने नेहरू के समक्ष अपनी चुप्पी को कुछ यूँ बयान किया। उन्होंने कहा कि-

“तुम मुख़ातिब भी हो क़रीब भी
तुमको देखे कि तुमसे बातें करें”

अब यह कहने की ज़रूरत नहीं कि फ़िराक़ का यह एक मुँहचुप्पा अपराध था। 

एक और वाक़या है। एक बार इलाहाबाद में एक गोष्ठी में इतिहास लेखन विषय पर विमर्श के दरमियान इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद और नेहरू के बीच चर्चा हुई। चर्चा ज़्यादा बढ़ने पर फ़िराक़ ने कहा कि “सुनो ईश्वरी तुम इतिहास लिखते हो, उसने इतिहास बनाया है।” 

इसके बाद आते हैं ‘दिनकर’ पर। अब क्या कहें कि उन्होंने तो ‘लोकदेव नेहरू’ नाम से पूरी एक किताब ही लिख दी। यह अपराध की दुनिया में बहुत बड़ा क्राइम था। 

इनके अपराधों की तो पूरी लिस्ट तैयार हो सकती है। 

उन्होंने एक कविता भी लिखी है जो यह है:
 
“समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं 
गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं 
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाक़ी है 
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाक़ी है 
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल 
विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल 
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध 
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध”

बताइये कितना बड़ा अपराध दिनकर के नाम दर्ज है। हालाँकि पूरी कविता से अनजान दक्षिणपंथी भी अक्सर इस कविता की दो लाइनों को अक्सर उद्धृत करते रहते हैं, “समय लिखेगा उनके भी अपराध।” 

इसके अलावा इतिहास में अपराध तो एक और भी दर्ज है और वह है नेहरू को उनके शासन में ही “भारत रत्न” दिए जाने का। यह अपराध तत्कालीन राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने किया था। दरअसल बात यह है कि तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद वैश्विक पटल पर नेहरू के चमत्कारिक नेतृत्व से अभिभूत थे। वे वैश्विक पटल पर भारत को नेतृत्वकारी भूमिका में लाने की नेहरू की भूमिका से बख़ूबी परिचित थे। हाँ, तो हुआ यह कि एक ऐसे ही सफल विदेशी दौरे से नेहरू के वापस लौटने पर प्रसाद ने 15 जुलाई 1955 को राष्ट्रपति भवन में एक दावत रखी। उसमें उन्होंने अचानक से नेहरू को भारत रत्न दिए जाने की घोषणा कर दी। जैसा कि टाइम्स ऑफ़ इंडिया की 16 जुलाई, 1955 की रिपोर्ट में कहा भी गया था, राष्ट्रपति के इस स्वप्रेरणा निर्णय को ‘बहुत गुप्त रखा गया’ था। यह उनका अपना निर्णय था। इसके लिए उन्होंने कैबिनेट की संस्तुति की परंपरा को भी तोड़ दिया। तिस पर प्रसाद की हिम्मत तो देखिए, उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा कि, “चूँकि यह क़दम मैंने स्वविवेक से अपने प्रधानमंत्री की अनुशंसा के बग़ैर व उनसे किसी सलाह के बिना उठाया है, इसलिए कहा जा सकता है कि यह निर्णय अवैधानिक है, लेकिन मैं यह जानता हूँ कि मेरे इस निर्णय का स्वागत पूरे उत्साह से किया जाएगा।” 

बताते हैं कि 13 जुलाई को नेहरू के यूरोप और सोवियत संघ के सफल विदेशी दौरे से लौटने पर राष्ट्रपति प्रोटोकॉल तोड़, उन्हें लेने स्वयं हवाई अड्डे पर गए थे! अपराध तो ख़ैर वैसे यह भी था, पर छोड़ो भी। यहाँ बताते चलें कि भारत रत्न सम्मान समारोह में नेहरू का प्रशस्तिपत्र नहीं पढ़ा गया था, क्योंकि नेहरू नहीं चाहते थे कि उनका प्रशस्ति पत्र पढ़ा जाए। जो भी हो, लेकिन इससे प्रसाद का अपराध तो कम नहीं हो जाता न! इसके अलावा राष्ट्रपति प्रसाद जो कि कई मामलों पर नेहरू के कटु आलोचक थे, ने नेहरू को ‘हमारे समय में शान्ति के महान वास्तुकार’ कहकर एक और अपराध किया। 

कहाँ तक गिनाऊँ। कुलमिलाकर ये सब के सब घातक अपराधी हैं। 

ख़ैर इनको तो फिर भी अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि इनका कुछ आप बिगाड़ नहीं सकते क्योंकि ये सब दिवंगत हो चुके हैं। लेकिन सबसे ज़्यादा खटकने वाली बात यह है कि अभी भी बाहर हम लोगों का परिचय यह कहकर कराया जाता है कि हम गाँधी-नेहरू के देश से आते हैं। यहाँ तक कि अभी कुछ वर्षों पूर्व हमारे माननीय के सामने उनका त’आरुफ़ अमेरिकी सीनेट के स्टेनि होयर ने यह कहकर कराया कि आप गाँधी-नेहरू के देश से आए हैं। बताइए इन सबकी आँखों पर अभी भी गाँधी-नेहरू का चश्मा चढ़ा हुआ है। लगता है इनकी आँखों का पानी ही मर गया है। 

बहुत हो चुका है! अब इन अपराधों को रोकने की सख़्त ज़रूरत है, ताकि नेहरू, गाँधी का कोई नामलेवा न रहे। क्यों है न! 
 

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