दशहरा पर पंडित रामदीन की अपील
संजीव शुक्ल
मैं दशहरे की शाम अपने लॉन में बैठा फ़ेसबुक पर किसी दूसरे की प्रोफ़ाइल पर ताकाझाँकी कर रहा था। इधर तीन-चार दिन से रावण से सम्बन्धित भली-भली सी पोस्टें पढ़ने को मिल रहीं थीं, जिसमें दशहरे पर रावण दहन न करने की भावुक अपील रहती थी। फिर नोटिस किया कि इस तरह की भावुक अपीलें तो कई सालों से की जा रही हैं। तभी पड़ोसी पण्डित रामदीन के व्हाट्सएप मैसेज का नोटिफ़िकेशन आया। खोलकर देखा तो वह भी रावण से ही जुड़ी पोस्ट थी। बड़ी रागात्मक पोस्ट थी। उसमें लिखा था—रावण में वासना थी, तो संयम भी था। उसमें यदि अपहरण की ताक़त थी, तो बिना सहमति के पराई स्त्री को स्पर्श न करने का संकल्प भी था। भोगी था, तो तपस्वी भी था, वग़ैरह-वग़ैरह।
पढ़कर मन भीग गया। सोचा यदि विद्यानिवास मिश्र जी को समय रहते ये सब जानकारी हो गई होती तो वे रावण के साथ भी न्याय कर पाते और “मेरे रावण का मुकुट भीग रहा है” ज़रूर लिखते। बताते हैं, रावण सिर्फ़ तलवार का ही नहीं धनी था, वह क़लम का भी धनी था। वह मारकाट के बाद ख़ाली समय कुंभकर्ण की तरह सोकर नहीं जाया करता था, बल्कि ख़ाली समय में कविता करता था।
इसमें कोई शक नहीं कि लंकापति रावण बहुत बलशाली था। बस एक बालि का केस छोड़ दिया जाय, जिसमें कि वह बालि से पराजित होकर उसकी काँख में दबा रहा। इस काँख-अवधि को छोड़ दें, तो शेष अवधि वह लंका में ही रहा। छीना-झपटी और अपहरण की एकाध बुराइयाँ ज़रूर थीं, जो कि राक्षस का दर्जा हासिल करने के लिए ज़रूरी भी थीं। हमें लग रहा यह उसकी मजबूरी थी, अन्यथा क्राइटेरिया फ़ुलफ़िल न होने चलते राक्षस के स्टेटस से बाहर भी हो सकता था। इसलिए इन एकाध क्षुद्रताओं को प्रथम दृष्टया एवाइड किया जाना चाहिए। मैं इमोशनल होने लगा।
रावण से जुड़े संदेश धड़ाधड़ आ रहे थे, क्योंकि अवसर दशहरा का, मामला रावण का और सम्बन्ध बिरादरी का था। ऐसी पोस्टों की बाढ़ में जो निरंतरता देखने को मिल रही है, उससे एकबारगी लगा कि लोग अब आँख मूँदकर इतिहास को जस का तस स्वीकारने के मूड में नहीं हैं। वे गुणदोष के आधार पर इतिहास को जाँचेंगे-परखेंगे, फिर निर्णय लेंगे। इतिहास का पुनर्मूल्यांकन किया जाएगा। रामायण को नई दृष्टि से देखा जाएगा।
रावण अजेय भले न हो, पर अमर अवश्य है। रावण मरा नहीं है, मर भी नहीं सकता, जब तक उसके ऐसे चाहने वाले हों। इन्हीं सद्भवनाओं के चलते ही लोगों में रावण का क्रेज़ बढ़ा है।
तभी पड़ोस के पंडित रामदीन दिखे। निश्चिंत था कि कहीं और जा रहे होंगे, लेकिन जब वे हमारी तरफ़ बढ़े तो चिंतित हुआ। उनका आना चंदे की रसीद कटवाने के संदर्भ में ही होता था। याद नहीं कि कभी अन्य सामाजिक अवसरों पर भी नमूदार हुए हों। सो उनकी आमद से दिल बैठने लगा। महीने का दूसरा सप्ताह था, तो यह भी बहाना न काम आता कि तनख़्वाह ख़त्म हो गयी, अगली बार ले लेना। ख़ैर अब वो प्रत्यक्ष थे। उन्होंने आते ही जय लंकेश कहा। मैं चकित था उनकी रामजोहार के नए वर्जन से और इसलिए भी कि अभी रावण के बारे में ही फ़ेसबुक पर पढ़ रहा था और अब यह संबोधन! मैं समझ न सका कि इस अभिवादन का जवाब कैसे दूँ। जय लंकेश तो कभी कहा नहीं, सो मुँह से न निकला। मैंने सिर्फ़ हाथ जोड़ लिए। तभी उन्होंने जेब से एक कार्ड निकाल कर हमें दिया और कहा, “ब्राह्मण महासभा की प्रादेशिक कमेटी ने मुझ तुच्छ को ज़िला अध्यक्ष नामित किया। मैंने कर्ताधर्ताओं से अपनी व्यस्तता का बहुत हवाला दिया, पर उन्होंने हमारी एक न सुनी। कहा-आपको सँभालना ही होगा। संकोचवश मैं मना न कर सका।”
जब वे ख़ुद को तुच्छ कह रहे थे तब उनके चेहरे पर मतलब भर का दर्प चमक रहा था। जब आदमी ख़ुद को तुच्छ कहकर अपनी प्रभुता का बखान कर रहा हो, तो समझो वह अपनी प्रभुता को और धार दे रहा होता है।
मैंने बधाई दी और चलता करने की ग़रज़ से पूछा—कहाँ चल दिए? लेकिन वे चलता नहीं हुए। उन्होंने कहा, “बस आप से मिलने चले आए। आप तो कभी आते नहीं। भाई मिलते-जुलते रहा करो। जीवन का सार प्रेम है। सब यहीं छूट जाना है।” अंदर की आग को अंदर ही दबाकर मैंने सौजन्यता से कहा, “बैठिये।” वो बग़ल की कुर्सी खींचकर बैठ भी गए। भावनाएँ आहत थीं और हुईं।
ख़ैर मैंने दस्तूर निभाते हुए चाय के लिए बेटे को आवाज़ दी। वो अपने झोले में कुछ खोजने लगे। फिर डिब्बी निकाली और उसमें से एक टैबलेट हमें देते हुए कहा कि शुक्ला जी हमारी चाय में यह गोली डलवा दीजिए। मैं चीनी की चाय नहीं पीता।
आज क़ायदे से फँसा था . . .
कहा, “और सुनाइये।”
वे बोले, “मैंने एक पोस्ट लिखी थी, आपने पढ़ी? कैसी लगी?”
मैं समझ गया ये क्रांति करने निकले हैं। पोस्ट यद्यपि फ़ॉरवर्डेड थी, फिर भी प्रकट में यही कहा—जी पढ़ी। रावण के विषय में थी।
उन्होंने कहा, “आपका क्या मत है?”
मैंने कहा, “रावण विद्वान था, पर महानीच था।”
वे आहत हुए। राम-राम कहते हुए, उन्होंने तुरंत दोनों कानों पर बारी-बारी से दाहिने हाथ की उँगलियों को छुआते हुए कहा कि अपशब्द न बोलिये महापंडित रावण के लिए। वह नीच नहीं, उच्च कुल जन्मा परम शिव भक्त था।
मैंने कहा, “जन्म से क्या होता है? करतूतें तो नीची थीं।”
उन्होंने कहा, “ऐसा न कहिए। अपने पूर्वजों का सम्मान करना सीखिये महोदय।”
मैंने कहा, “दूर की नातेदारी आपको मुबारक। यहाँ ऋषि पुलस्त्य तक ही निभ पाई। पूर्वजों में आपको यही एक मिले थे?”
फिर वे कुछ सोचने लगे और सोचते-सोचते ही यकायक अपनी जेब से एक दूसरी डिब्बी निकाल ली और कहने लगे, “जब तक चाय बनकर आती है तब तक तमाखू ही खा ली जाय।” और फिर अपनी गदेली पर तमाखू और चूना रख मलने लगे। मलते-मलते वे कहने लगे, “रावण बड़ा ही विद्वान था। उसने शंकर जी स्तुति में जो श्लोक रचे वे आज भी बहुत श्रद्धा से पढ़े जाते हैं।” अब तक उनकी तमाखू तैयार हो चुकी थी। तीन बार हथेली पर हौले से चोट देने के बाद वे ‘सार सार को गहि रहे थोथा देइ उड़ाइ’ की तर्ज़ पर पहले फूँक मारी फिर चुटकी में तमाखू को ले, नीचे वाले ओंठ और दाँतों के बीच दबाते हुए शेष को दोनों हाथों से झाड़ दिया। मैंने रूमाल नाक पर रख लिया। यह देख उन्होंने कहा कि इससे कुछ नहीं होगा।
फिर बोले, “हाँ तो मैं क्या कह रहा था।” मैं चुप ही रहा। वे बोले कि हाँ अगर वो न रचता, तो क्या पढ़कर भगवान शंकर को प्रसन्न करते? हमें उसका आभार मानना चाहिए।
उन्होंने कहा, “हमें विद्वता का सम्मान करना चाहिए।” तभी बेटे को चाय लाते देख वे बातचीत के क्रम को वही रोक थूकने को उठ गए। एक प्यारा-सा गुलाब थूक का शिकार बना। तन-बदन में आग लग गयी। क़सम से आज रावण होने का मन करने लगा। पर न हो सका। एक ग्रेट ऑपर्च्युनिटी यूँ ही निकल गई।
वे आए बैठे और चाय की चुस्कियों के साथ फिर रावण चर्चा में लग गए। कहने लगे, “ये . . . रावण में कुछ बुराइयाँ थीं तो अच्छाइयाँ भी थीं। हम बुराई क्यों देखें? सकारात्मक दृष्टि अपनानी चाहिए।
“वह इतना बड़ा तपस्वी था कि भगवान महादेव को प्रसन्न करने के लिए उसने अपने ही सर काट के चढ़ाए। चाहता तो किसी दूसरे के भी चढ़ा सकता था, पर नहीं। समर्थ होते हुए भी उसने माँ सीता को स्पर्श तक नहीं किया। बस उनसे अपनाने की चिरौरी करता रहा। चंद्रहास होते हुए सिर्फ़ प्रेम निवेदन करता रहा।”
मैंने कहा कि हो सकता है! लेकिन मानस में तो रावण की चिरौरी कुछ इस तरह है, ‘मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढ़ि कृपाना।’
लगा कि तुलसी की बात उन्हें पसंद नहीं आई। वे तुलसी को ख़ारिज भी कर सकते थे, पर चुप रहे।
उनके जज़्बे को देख किसी भी नवजात जातिप्रेमी को लग सकता था कि हाय मैं अब तक खुलकर रावण क्यों न हुआ? हमसे हुआ क्यों न गया? हमने इस तरफ़ अब तक खुलकर सोचा क्यों नहीं? संभावनाओं को तलाशा क्यों नहीं? क्या वाक़ई यह अब तक की सबसे बड़ी असफलता रही?
इसके अलावा जो लोग प्रकृति से अधूरे टाइप के रावण हुए भी हैं, उनमें खुलकर स्वीकारने का साहस नहीं हुआ। अगर साहस ही होता तो रावण न बन जाते। ये सब संकोच में पड़े रहे। ये लोग अंदर से ‘फ़ुल्ली रावण’ होते हुए भी बाहर से राम दिखने को विवश थे। कारण माँ-बाप की इच्छा रही कि संतति राम जैसी बने। लोक में राम को श्रद्धा और रावण को हेय दृष्टि से देखा जाता है। कारण सिर्फ़ लोकलाज।
इस लोकलाज ने बहुतों की हार्दिक इच्छाओं का गला घोंटा है। ख़ूब बद्दुआएँ मिलीं। तभी इसे शाप मिला कि तुम्हारे हिस्से की शाबाशी कभी तुम्हारे हिस्से नहीं आएगी। इसलिए जब भी किसी से उसके अच्छे कामों की प्रेरणा के बारे में पूछा जाता है तो वह इसका श्रेय अपनी अन्तश्चेतना को देता है, जबकि वह लोकलाज निभा रहा होता है।
ख़ुद से राम बना न जा सका और रावण बनने न दिया गया। इस तरह पता नहीं कितने श्रवण कुमार अपने माँ-बाप की ख़ातिर राम की राह चलने को विवश हुए।
कुछ लोगों ने लोकलाज के चलते, राम के मुखौटे में ही रावण बनने की संभावनाओं को तलाशा। कुछ सफल रहे, तो कुछ परमगति को प्राप्त हुए। हाँ, कुछ की क्षमताओं को देखकर ये ज़रूर लगा कि यदि आज रावण ज़िन्दा होता, तो वह भी उन्हें देखकर बलैया लेता।
ख़ैर कुलजमा बात यह कि पंडित जी के हिसाब से हम सभी अभी तक लक्ष्य विरुद्ध ही रहे। पूजना था रावण को और पूज रहे थे राम को। बनना था रावण और चेष्टा थी राम बनने की। कुलमिलाकर लक्ष्य भ्रम का मामला ज़्यादा रहा . . . ‘धूल चेहरे पर थी और आईना साफ़ करता रहा।’
मैंने कहा, “फिर क्या सोचा है?”
उन्होंने कहा—रावण दहन रोकने के लिए जल्दी ही कुछ किया जाय, नहीं तो आततायी जला देंगे।
मैंने कहा, “इसमें बुरा क्या है? रावण असत्य का प्रतीक है और राम सत्य के। हम लोग विजयदशमी को असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाते हैं। हमारे पुरखे तो न जाने कब से ख़ुशी-ख़ुशी रावण दहन करते आ रहे हैं। और फिर यह दहन तो प्रतीकमात्र है। बच्चे आनंदित होते हैं।”
उन्होंने कहा, “हम कौन रावण के ज़िन्दा रहने की माँग कर रहे हैं। हम तो सिर्फ़ लंकेश की सम्मानित मृत्यु चाहते हैं। उसके हिस्से का सम्मान चाहते हैं बस! ऐसा उद्भट वीर अगर किसी और जाति में जन्मता तो दहन छोड़ो, लोग आरती उतारते!
“औ’ एक हम हैं . . . अगर रावण किसी अन्य जाति का होता, तो क्या उसे हर साल जलाना सम्भव होता? अभी तक धरना प्रदर्शन होने लगते। जब हमीं अपनी जाति के रत्नों का ध्यान न धरेंगें, तो और कोई क्यों सोचेगा?
“ख़ैर जब जागो तभी सवेरा।”
उनके हिसाब से रावण दहन न केवल उनके साथ अन्याय और अनौचित्यपूर्ण है बल्कि इसमें डिफ़ॉमेशन का केस भी बनता है। उन्होंने कहा रावण की पुण्यतिथि पर नमन का कार्यक्रम रखा जाएगा। मैं चुप रहा और वे मुखर थे।
पण्डित रामदीन आज रावणमय थे। यहाँ की आबोहवा की तासीर ही ऐसी है कि पलक झपकते ही लोग अपने दल, सिद्धांत और आराध्य की अदला-बदली कर लेते हैं। सिद्धांतों/वादों के मामले में हम क्रमशः विस्तार से सूक्ष्म की ओर बढ़ते हैं। मसलन विश्वबन्धुत्व से शुरू हुई विचार यात्रा राष्ट्रवाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद, परिवारवाद होते हुए अंततः आत्मवाद पर विराम पाती है। यह प्रेम के फैलाव से उसके घनीभूत तत्त्व की प्राप्ति तक की यात्रा है। इन वादों के मामले में हमारा चुनाव हमारे जुड़ाव के सापेक्ष तय होता है। उदाहरण के तौर पर अगर दो धर्मों का मामला है, तो हम अपने धर्म का चुनाव करेंगे और यदि एक ही धर्म के बीच का मामला है तो हम अपनी जाति की तरफ़ खड़े मिलेंगे। इसी तरह यदि जाति और अपने परिवार के बीच चुनाव का प्रश्न खड़ा होता है, तो हम बेधड़क परिवार के साथ खड़े होंगे। यह हमारी उदारवृत्ति है कि हम किसी भी वाद की संकीर्णता से ख़ुद को मुक्त रखते हैं।
आज पंडित रामदीन रावण के पक्ष में खड़े होकर अपनी इसी उदारता का परिचय दे रहे थे। वैसे सीमित संसाधनों में जितना रावण हुआ जा सकता था, उतना वो थे। स्वर्ण प्रेम और भाई का हिस्सा दबाने के मामले में वे रावण को फ़ॉलो करते थे। इनका स्वर्ण-प्रेम सोने की अँगूठी तक सीमित रहा (पूरी स्वर्णमयी लंका औक़ात से बाहर थी)। इसके अलावा जिस तरह रावण ने कुबेर से उसका पुष्पक विमान छीन लिया था, उसी तरह ये भी भाईचारे में उसका हिस्सा कब्ज़ियाए बैठे थे। लतियाये तो कई बार!
मैंने कहा, “भाई एक राह चलो, या तो रावण की पुण्यतिथि पर उसको सादर नमन कर लो या फिर विजयदशमी की शुभकामनाएँ दे लो। दोनों बातें साथ न निभ सकेंगी। कम से कम अपने से यह न हो सकेगा।”
वे निराश हुए।
फिर गहरी श्वास छोड़ते हुए कहा—रावण दहन के बारे में आपकी क्या राय है?
मैंने कहा, “रावण कौन आपका परबाबा है, जो इत्ता परेशान घूम रहे हैं। रावण दहन रावण के अपमान का नहीं, बल्कि राम की विजय का लोकोत्सव है।”
वे चुप रहे। तभी अंदर से श्रीमती जी आईं और कहने लगीं कि बच्चों को रावण दहन दिखा लाइए।
मैंने पंडितजी से विदा लेने के लिए उनकी तरफ़ मुड़ा तो देखा तो वे गेट के बाहर थे।
मैं मन ही मन सोच रहा था कि खल को नायक में बदल देने की सामर्थ्य सिर्फ़ जाति में ही हो सकती है
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